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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 816
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ज꣡घ्नि꣢र्वृ꣣त्र꣡म꣢मि꣣त्रि꣢य꣣ꣳ स꣢स्नि꣣र्वा꣡जं꣢ दि꣣वे꣡दि꣢वे । गो꣡षा꣢तिरश्व꣣सा꣡ अ꣢सि ॥८१६॥
स्वर सहित पद पाठज꣡घ्निः꣢꣯ । वृ꣣त्र꣢म् । अ꣣मित्रि꣡य꣢म् । अ꣣ । मित्रि꣡य꣢म् । स꣡स्निः꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯म् । दि꣣वे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣡ । दि꣣वे । गो꣡षा꣢꣯तिः । गो । सा꣣तिः । अश्वसाः꣢ । अ꣣श्व । साः꣢ । अ꣣सि ॥८१६॥
स्वर रहित मन्त्र
जघ्निर्वृत्रममित्रियꣳ सस्निर्वाजं दिवेदिवे । गोषातिरश्वसा असि ॥८१६॥
स्वर रहित पद पाठ
जघ्निः । वृत्रम् । अमित्रियम् । अ । मित्रियम् । सस्निः । वाजम् । दिवेदिवे । दिवे । दिवे । गोषातिः । गो । सातिः । अश्वसाः । अश्व । साः । असि ॥८१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 816
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर और आचार्य का वर्णन है।
पदार्थ
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्त्ता सद्बुद्धिप्रेरक परमात्मन् वा आचार्य ! आप (आमित्रियम्) शत्रु से आनेवाले (वृत्रम्) पाप के (जघ्निः) नष्ट करनेवाले, (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वाजम्) बल को (सस्निः) शुद्ध करनेवाले, (गोषातिः) भूमियों, गायों वा वाणियों के दाता और (अश्वसाः) घोड़ों वा प्राणों के दाता (असि) हो ॥२॥
भावार्थ
जगदीश्वर के समान गुरु भी पाप आदियों का विनाशक, आत्मबल, मनोबल, बुद्धिबल, चित्तबल आदि को पवित्र करनेवाला, समस्त वाङ्मय को पढ़ानेवाला और प्राणों को परिष्कृत करनेवाला होवे ॥२॥
पदार्थ
(अमित्रियं वृत्रं जघ्निः) अमित्र न मित्र—शत्रु के समान आचरण करते हुए पाप को नष्ट करता है (दिवे दिवे वाजं सस्निः) दिन दिन प्रतिदिन अध्यात्मबल का दाता है (गोषातिः-अश्वसाः-असि) वाणी—स्तुति को सेवन—स्वीकार करने वाला आशुव्यापी मन—मनोभाव का सेवन करने—स्वीकार करने वाला है।
भावार्थ
शत्रु के समान आचरण करने वाले पाप को परमात्मन् तू नष्ट करता है। आध्यात्मिक बल को प्रदान करता है। पश्चात् हमारी स्तुतियाँ स्वीकार करता है और मनोभाव को भी अपनाता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
वृत्र- विनाश व वाज-प्राप्ति
पदार्थ
‘अमहीयुः'=पार्थिव भोगों की कामना न करनेवाला, आङ्गिरस = शक्तिसम्पन्न ऋषि प्रभु से लौकिक भोगों के लिए प्रार्थना न करके यह प्रार्थना है कि
१. (अमित्रियम्) = हमें पाप से न बचने देनेवाली (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के आप (जघ्निः) = प्रबल विनाशक हैं। वासना 'स्मर' है, तो आप 'स्मरहर' हैं । आपका स्मरण हमें वासनाओं का शिकार होने से बचाता है । २. हे प्रभो ! वासना- विनाश के द्वारा आप (दिवे-दिवे) = दिन-प्रतिदिन (सस्निः) = [षणु दाने] शक्ति प्राप्त करानेवाले हैं। वासना- विनाश से आप हमारी शक्ति की वृद्धि करते हैं । ३. . (गोषाति:) = [गाव: इन्द्रियाणि] आप विविध शक्तियों को सिद्ध करने के लिए उत्तम इन्द्रियों को देनेवाले हैं । इन इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न व्यापारों से इन्द्र की शक्ति में वृद्धि होती है । इन्द्र= जीवात्मा की शक्ति का साधनभूत होने से ही इनका नाम इन्द्रियाँ पड़ा है। ४. (अश्वसाः असि) = हे प्रभो ! आप हमें प्राणों के देनेवाले हैं। शरीर में व्याप्त होने से [अश् व्याप्तौ] ये प्राण अश्व कहलाते हैं। ‘आज हैं, कल न रहने से ‘अ-श्वः' ये अश्व भी कहलाते हैं । इन्हीं की शक्ति से मनुष्य कर्मों में व्याप्त रहता है। '
भावार्थ
अमहीयु बनकर हमारी प्रार्थना यही हो कि 'हमारी वासना विनष्ट हो और शक्ति बढ़े।' हमारी इन्द्रियाँ उत्तम हों और प्राणशक्ति की वृद्धि हो ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरमाचार्यं च वर्णयति।
पदार्थः
हे पवमान सोम पवित्रकर्त्तः सद्बुद्धिप्रेरक परमात्मन् आचार्य वा ! त्वम् (अमित्रियम्) अमित्रादागतम् (वृत्रम्) पापम् (जघ्निः) हन्ता, (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (वाजम्) बलम् (सस्निः) शोधकः। [जघ्निः, सस्निः इत्यत्र हन् हिंसागत्योः ष्णा शौचे ण्यन्तः इत्यनयोः ‘आगमहनजनः किकिनौ लिट् च।’अ० ३।२।१७१ इत्यनेन किन् प्रत्ययः लिड्वद्भावश्च।] (गोषातिः) गवां भूमीनां धेनूनां वाचां वा दाता। [गवां सातिः प्राप्तिः यस्मात् स गोषातिः।] (अश्वसाः) अश्वानां, प्राणानां वा दाता च। [अश्वान् सनोतीति अश्वसाः। अश्वपूर्वात् सनोतेः ‘जनसनखनक्रमगमो विट्’। अ० ३।२।६७ इति विट् प्रत्ययः ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्’ अ० ६।४।४१ इत्यनुनासिकस्य आत्वम्।] (असि) विद्यसे ॥२॥
भावार्थः
जगदीश्वर इव गुरुरपि पापादीनां हन्ताऽऽत्मबलमनोबलबुद्धिबल- चित्तबलादीनां पवित्रयिता, निखिलस्य वेदवाङ्मयस्याध्यापयिता, प्राणानां परिष्कर्त्ता च भवेत् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।२०, ‘गो॒षा उ॑ अश्व॒सा अ॑सि’ इति तृतीयः पादः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Gracious God, Thou art the Destroyer of the unfriendly sin, and the Bestower of knowledge day by day, Thou grandest strength to the organs of cognition and action !
Meaning
Soma, power and peace of divinity, destroyer of the evil and darkness of negative forces, constant catalytic force of nature in creative evolution day in and day out, you are the giver of earthly life and dynamic motion for onward progress. (Rg. 9-61-20)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अभित्रियं वृत्रं जघ्निः) અમિત્ર-શત્રુની સમાન આચરણ કરનારા પાપનો નાશ કરે છે (दिवे दिवे वाजं सस्निः) પ્રતિદિન અધ્યાત્મબળનો દાતા છે (गोषातिः अश्वसाः असि) વાણી-સ્તુતિનું સેવનસ્વીકાર કરનાર શીઘ્ર વ્યાપી મન-મનોભાવનું સેવન કરનાર-સ્વીકાર કરનાર છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : શત્રુની સમાન આચરણ કરનારા પાપનો પરમાત્મા તું નષ્ટ કરે છે. અધ્યાત્મબળને પ્રદાન કરે છે. પશ્ચાત્ અમારી સ્તુતિઓ સ્વીકાર કરે છે અને મનોભાવને પણ અપનાવે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वराप्रमाणे गुरूच पाप इत्यादी विनाशक, आत्मबल, मनोबल, बुद्धिबल, चित्तबल इत्यादींना पवित्र करणारा, संपूर्ण वाङ्मयाचे अध्यापन करणारा व प्राण परिष्कृत करणारा असावा. ॥२॥
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