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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 886
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    2

    प्र꣢ त꣣ आ꣡श्वि꣢नीः पवमान धे꣣न꣡वो꣢ दि꣣व्या꣡ अ꣢सृग्र꣣न्प꣡य꣢सा꣣ ध꣡री꣢मणि । प्रा꣡न्तरि꣢꣯क्षा꣣त्स्था꣡वि꣢रीस्ते असृक्षत꣣ ये꣡ त्वा꣢ मृ꣣ज꣡न्त्यृ꣢षिषाण वे꣣ध꣡सः꣢ ॥८८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । ते꣣ । आ꣡श्वि꣢꣯नीः । प꣣वमान । धेन꣡वः꣢ । दि꣣व्याः꣢ । अ꣣सृग्रन् । प꣡य꣢꣯सा । धरी꣡म꣢꣯णि । प्र । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षात् । स्था꣡वि꣢꣯रीः । स्था । वि꣣रीः । ते । असृक्षत । ये꣢ । त्वा꣣ । मृज꣡न्ति꣢ । ऋ꣣षिषाण । ऋषि । सान । वेध꣡सः꣢ ॥८८६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त आश्विनीः पवमान धेनवो दिव्या असृग्रन्पयसा धरीमणि । प्रान्तरिक्षात्स्थाविरीस्ते असृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः ॥८८६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । आश्विनीः । पवमान । धेनवः । दिव्याः । असृग्रन् । पयसा । धरीमणि । प्र । अन्तरिक्षात् । स्थाविरीः । स्था । विरीः । ते । असृक्षत । ये । त्वा । मृजन्ति । ऋषिषाण । ऋषि । सान । वेधसः ॥८८६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 886
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वर तथा उसके उपासक का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (पवमान) पवित्रकर्ता परमात्मन् ! (ते) आपकी (आश्विनीः) व्याप्त, (दिव्याः) आकाश में स्थित, (धेनवः) तृप्ति प्रदान करनेवाली मेघरूप गौएँ (पयसा) वर्षाजलरूप दूध से (धरीमणि) भूमि पर (प्र असृग्रन्) छूटकर आती हैं। वैसे ही, हे (ऋषिषाण) ऋषियों से सेवनीय परमेश ! (ये) जो (वेधसः) स्तुतियों के विधाता आपके उपासक (त्वा) आपको (मृजन्ति) स्तुतियों से अलङ्कृत करते हैं (ते) वे (अन्तरिक्षात्) हृदयाकाश से (स्थाविरीः) समृद्ध भक्तिधाराओं को (प्र असृक्षत) आपके प्रति प्रकृष्ट रूप से छोड़ते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर वर्षा-धाराओं को हमारे प्रति छोड़ता है, वैसे ही उसके प्रति हमें भक्ति-धाराएँ छोड़नी चाहिएँ ॥१॥

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    पदार्थ

    (ऋषिषाण पवमान) हे ऋषियों के सम्भजनयोग्य आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मन्! (ते) तेरी (आश्विनीः) श्रोत्रों कानों से सम्बद्ध एवं व्यापन धर्म वाली*12 (दिव्याः) अमानुषी—दिव्यविषयक (धेनवः) स्तुतिवाणियाँ*13 (धरीमणि) धरा—धरती पर (पयसा प्रासृग्रन्) अपने आनन्दरस प्राप्ति के हेतु*14 तूने छोड़ी—रची—प्रचारित करी हैं (अन्तरिक्षात्) हृदयावकाश में*15 (स्थाविरीः) स्थिर होने वाली (ते) तेरी उन वाणियों को (प्रासृक्षत) प्रकृष्टरूप से बिठा लेते हैं (ये वेधसः-त्वा मृजन्ति) जो आदिसृष्टि के मेधावी विधाता ऋषि तुझे प्राप्त होते हैं—साक्षात् करते हैं॥१॥

    टिप्पणी

    [*11. “प्राणा उ वा ऋषयः” [श॰ ८.४.१.५]।] [*12. “श्रोत्रे अश्विनौ” [श॰ १२.९.१.१३]।] [*13. “धेनुः-वाङ्नाम” [निघं॰ १.११]।] [*14. “रसो वै पयः” [श॰ ४.४.४.८]।] [*15. विभक्तिव्यत्ययः।]

    विशेष

    ऋषिः—ऋषिगणाः ‘सायणमते’ (ऋषियों—प्राणों इन्द्रियों*11 को संख्यात ज्ञात रखने वाले संयमी उपासक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>

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    विषय

    संयमी व उपासक

    पदार्थ

    हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपकी १. (आश्विनी:) = व्यापक, सब सत्यविद्याओं की प्रापक, २. (दिव्याः) = अलौकिक – दिव्य-गुणों को जन्म देनेवाली, प्रकाशमय, ३. (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध का पान करानेवाली वेदवाणीरूप धेनुएँ (पयसा) = आप्यायन के हेतु से (धरीमणि) = सोम को धारण करनेवाले पुरुष में (प्र असृग्रन्) = उत्कृष्टरूप में सृष्ट होती हैं, अर्थात् वे वेद, जिसमें सत्यविद्याओं के बीज निहित हैं, जो दिव्य - प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं, सोम की रक्षा करनेवाले पुरुषों में प्रकाशित होते हैं ।

    हे (ऋषिषाण) = तत्त्वद्रष्टाओं से सेवित प्रभो ! (ते) = आपकी ये (स्थाविरी:) = स्थिर, अविनश्वर वेदवाणियाँ (अन्तरिक्षात्) = उन लोगों के हृदयान्तरिक्ष में (प्र असृक्षत) = प्रकृष्टतया प्रकट होती है, ये (वेधसः) = जो ज्ञानी लोग (त्वा मृजन्ति) = आपका गवेषण करते हैं, अर्थात् जो तत्त्वद्रष्टा लोग प्रभु की उपासना में लीन होते हैं— उसके गवेषण में तत्पर होते हैं, ये वेदवाणियाँ जो स्थिर व अविनश्वर हैं, उनके हृदयों में प्रकाशित होती हैं ।

    प्रस्तुत मन्त्र में ऋषि 'अकृष्टा-माषा: ' हैं, जो खान-पान की वस्तुओं की छीना-झपटी में ही नहीं उलझे रहते। ऐसे व्यक्ति ही संयमी [धरीमन्] तथा प्रभु के उपासक [ऋषिषाण, त्वा मृजन्ति ] बनकर वेद के तत्त्वों को देख पाते हैं ।

    भावार्थ

    हम केवल खाने-पीने से ऊपर उठें, संयमी बने, प्रभु-प्रार्थी हों, जिससे वेदतत्त्व को देखने में समर्थ हो सकें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (पवमान) परमपावन व्यापक परमात्मन् ! (ते) तेरी (आश्विनीः) सर्वत्र व्यापक, (दिव्याः) दिव्यगुणयुक्त, (स्थाविरीः) निरन्तर स्थिर रहने वाली, (धेनवः) सबको आनन्दरस का पान कराकर तृप्त करने वाली शक्तियां (पयसा) ज्ञान और बल और आनन्दरस एवं जल के द्वारा (धरीमणि) धारण करने हारे आत्मा या अन्तरिक्ष में (प्र असृग्रन्) उत्तम रूप से प्रकट होती हैं। हे (ऋषिषाण) ऋषियों, मन्त्रदृष्टा ज्ञानी पुरुषों द्वारा भजन करने योग्य आत्मन् परमात्मन् ! (ये) जो (वेधसः) विद्वान् पुरुष (त्वा मृजन्ति) तर शुद्ध रूप को साक्षात् करते हैं (ते) वे (स्थाविरीः) स्थिर कूटस्थ धारारूप धारणाओं को (अन्तरिक्षात्) अपने अन्तःकरण रूप भीतरी साक्षात् करने वाले साधन मन या अन्तः करण से (प्र असृक्षत) तेरा ज्ञान सम्पादन करते, तेरी साधना करते हैं, निदिध्यासन करते हैं। आत्मपक्ष में—ऋषि=इन्द्रियगण।

    टिप्पणी

    ‘पवमान धीजूवो’, ,प्रान्तऋषय स्थावरीसृक्षत’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमेश्वरस्य तदुपासकस्य च विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे (पवमान) पवित्रकर्तः परमात्मन् ! (ते) तव (आश्विनीः२) व्याप्ताः, (दिव्याः) दिवि आकाशे भवाः (धेनवः) प्रीणयित्र्यो मेघरूपाः गावः (पयसा) वृष्टिजलरूपेण दुग्धेन (धरीमणि३) धरण्याम् (प्र असृग्रन्) प्र गच्छन्ति। तथैव, हे (ऋषिषाण) ऋषिभिः संभजनीय परमेश ! [ऋषिभिः सन्यते सेव्यते इति ऋषिषाणः, षण सम्भक्तौ।] ये (वेधसः) स्तुतीनां विधातारः तवोपासकाः (त्वा) त्वाम् (मृजन्ति) स्तुतिभिः अलङ्कुर्वन्ति। [मृजू शौचालङ्कारयोः चुरादिः, विकरणव्यत्ययः।] (ते) उपासकाः (अन्तरिक्षात्) हृदयाकाशात् (स्थाविरीः४) समृद्धाः भक्तिधाराः (प्र असृक्षत) त्वां प्रति प्रकर्षेण विसृजन्ति ॥१॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरो वृष्टिधारा अस्मान् प्रति विसृजति तथैवास्माभिस्तं प्रति भक्तिधारा विस्रष्टव्याः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।४, प्रथमे पादे ‘धेनवो’ इत्यत्र ‘धी॒जुवो॑’ इति पाठः। ‘प्रान्तर्ऋष॑यः॒ स्थावि॑रीरसृक्षत॒’ इति च तृतीयः पादः। २. आश्विनीः व्याप्ताः, अशू व्याप्तौ, तस्मादौणादिको विनिः, ततोऽण्, व्यत्ययेनाद्युदात्तः—इति सा०। ३. धृञ् धारणे धातोः ‘हृभृधृसृस्तृशृभ्य ईमनिन्’ उ० ४।१४९ इति ईमनिन् प्रत्ययः। सूत्रे क्वचित्तु ‘इमनिच्’ इत्यपि पाठो दृश्यते। ४. स्थाविरीः स्थविराः धाराः—इति सा०। स्थिराः स्थूला वा स्थविरीर्वा गावः रश्मयः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Holy God, Thy universal, divine, firm forces, manifest themselves Through knowledge in the recipient soul. O God, Thou art worshipped by the ages who being learned, realise Thy pure nature, and contemplate upon Thee, perceiving in their heart the unchanging, steady abstractions of the mind !

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    Meaning

    O pure and purifying Soma, your divine showers of joy streaming fast at the speed of thought flow on with the milk of grace into the heart cave of the soul, they are the showers of fulfilment in the heart core of the soul within, which the wise sages, realised souls of knowledge, create and exalt in the heart. (Rg. 9-86-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ऋषिषाण पवमान) હે ઋષિઓનાં સમ્યક્ ભજનયોગ્ય આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મન્ ! (ते) તારી (आश्विनीः) શ્રોત્રો-કાનોથી સંબંધિત અને વ્યાપન ધર્મવાળી (दिव्याः) અમાનુષી-દિવ્ય વિષયક (धेनवः) સ્તુતિવાણીઓ (धरीमणि) ધરા-ધરતી પર (पयसा प्रासृग्रन्) પોતાના આનંદરસની પ્રાપ્તિને માટે તે છોડીરચી-પ્રચારિત કરી છે. (अन्तरिक्षात्) હૃદયાવકાશમાં (स्थाविरीः) સ્થિર થનારી (ते) તારી તે વાણીઓને (प्रासृक्षत) પ્રકૃષ્ટરૂપમાં બેસાડી લઈએ છીએ (ये वेधसः त्वा मृजन्ति) જે આદિ સૃષ્ટિના મેધાવી વિધાતા ઋષિઓ તને પ્રાપ્ત થાય છે-સાક્ષાત્ કરે છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर आमच्यासाठी वृष्टिधारांची वृष्टी करतो तसेच आम्हालाही त्याच्यासाठी भक्तिधारांची वृष्टी केली पाहिजे. ॥१॥

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