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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 887
ऋषिः - अकृष्टा माषाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
उ꣣भय꣢तः꣣ प꣡व꣢मानस्य र꣣श्म꣡यो꣢ ध्रु꣣व꣡स्य꣢ स꣣तः꣡ परि꣢꣯ यन्ति के꣣त꣡वः꣢ । य꣡दी꣢ प꣣वि꣢त्रे꣣ अ꣡धि꣢ मृ꣣ज्य꣢ते꣣ ह꣡रिः꣢ स꣢त्ता꣣ नि꣡ योनौ꣢꣯ क꣣ल꣡शे꣢षु सीदति ॥८८७॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣भय꣡तः꣢ । प꣡व꣢꣯मानस्य । र꣣श्म꣡यः꣢ । ध्रु꣣व꣡स्य꣢ । स꣣तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । य꣣न्ति । केत꣡वः꣢ । य꣡दि꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । मृ꣣ज्य꣡ते꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡त्ता꣢꣯ । नि । यो꣡नौ꣢꣯ । क꣣ल꣡शे꣢षु । सी꣣दति ॥८८७॥
स्वर रहित मन्त्र
उभयतः पवमानस्य रश्मयो ध्रुवस्य सतः परि यन्ति केतवः । यदी पवित्रे अधि मृज्यते हरिः सत्ता नि योनौ कलशेषु सीदति ॥८८७॥
स्वर रहित पद पाठ
उभयतः । पवमानस्य । रश्मयः । ध्रुवस्य । सतः । परि । यन्ति । केतवः । यदि । पवित्रे । अधि । मृज्यते । हरिः । सत्ता । नि । योनौ । कलशेषु । सीदति ॥८८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 887
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा तथा उससे रचित सूर्य का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (ध्रुवस्य सतः) आकाश में स्थिर रूप से विद्यमान (पवमानस्य) पवित्रकर्ता सूर्य की (केतवः) प्रकाशक (रश्मयः) किरणें (उभयतः) भूगोल के दोनों गोलार्धों में परियन्ति) पहुँचती हैं। (यदि) जब (हरिः) रसों को हरनेवाला किरण-समूह (पवित्रे अधि) अन्तरिक्ष में (मृज्यते) भेजा जाता है, तब (योनौ सत्ता) अन्तरिक्ष में स्थित वह (कलशेषु) मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रह-रूप कलशों में (नि षीदति) पहुँचता है और पहुँचकर उन्हें प्रकाशित करता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (ध्रुवस्य सतः) स्थिर, अजर, अमर, सनातन (पवमानस्य) पवित्रकर्ता परमात्मा की (केतवः) प्रज्ञापक (रश्मयः) दिव्य प्रकाश-किरणें (उभयतः) प्रातः-सायं दोनों कालों में, संध्या-वन्दन के समय (परि यन्ति) उपासक को प्राप्त होती हैं। (यदि) जब (हरिः) दोषों का हर्ता परमात्मा (पवित्रे अधि) पवित्र हृदय के अन्दर (मृज्यते) भक्तिभावरूप अलङ्कारों से अलङ्कृत होता है, तब (योनौ सत्ता) हृदयरूप घर में स्थित वह (कलशेषु) अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि कोशों में (निषीदति) स्थिति-लाभ करता है, और वहाँ स्थित होता हुआ आत्मा, मन, बुद्धि आदि सबको प्रभावित करता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
जैसे सोमरस दशापवित्र नामक छन्नी के मार्ग से होता हुआ द्रोणकलशों में स्थित होता है और जैसे सूर्य-रश्मि अन्तरिक्ष-मार्ग से ग्रहोपग्रहों में स्थित होती है, वैसे ही परमेश्वर हृदय-मार्ग से देहस्थ पञ्च कोशों में स्थित होता है ॥२॥
पदार्थ
(ध्रुवस्य सतः पवमानस्य) एकरस वर्तमान आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा के (रश्मयः केतवः) व्यापनशील प्रज्ञान—गुण*16 (उभयतः परियन्ति) जड़ जङ्गम संसार में परिप्राप्त हो रहे हैं (यदि ‘यत्-इ’) जब ही (हरिः पवित्रे-अधि मृज्यते) दुःखापहरणकर्ता सुखाहरणकर्ता परमात्मा प्राप्तिस्थान पवित्र उपासक के अन्दर प्राप्त किया जाता है—साक्षात् किया जाता है (सत्ता योनौ कलशेषु नि-सीदति) बैठने वाला यह मिलन के स्थान हृदय में और उसके समस्त कलास्थानों मन इन्द्रियों में*17 बस जाता है—उसका हृदय में ध्यान, मन में मनन, कानों में श्रवण, वाणी में स्तवन आदि होता रहता है॥२॥
टिप्पणी
[*16. “केतुः प्रज्ञानम्” [निघं॰ ३.९]।] [*17. “कलशः कस्मात् कला अस्मिञ्छेरते” [निरु॰ ११.१२]।]
विशेष
<br>
विषय
मैं प्रभु में, प्रभु मुझमें
पदार्थ
१. (पवमानस्य) = अपने जीवन को पवित्र बनानेवाले के (उभयतः) = दोनों ओर (रश्मयः) = लगामें [प्रग्रह] होती हैं। वह प्राकृतिक जीवन में 'ऋत' की लगाम पहनकर चलता है— प्रत्येक कार्य को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति ठीक समय पर करता है और आध्यात्म जीवन में 'सत्य' रूप प्रग्रहवाला होता है । ऋत और सत्य की लगामों के कारण इसका जीवन-रथ धर्म के मार्ग से किञ्चित् भी विचलित नहीं होता। २. (ध्रुवस्य सतः) = इस प्रकार धर्म के मार्ग पर ध्रुव = स्थिर होते हुए इसके जीवन में (केतवः) = ज्ञान के प्रकाश (परियन्ति) = सर्वतः प्राप्त होते हैं । जब मनुष्य संयत जीवन के द्वारा धर्म के मार्ग पर ध्रुवता से चलता है, तब इसके जीवन में चारों ओर प्रकाश - ही - प्रकाश हो जाता है ।
३. (यत् ई) = जब निश्चय से (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (हरिः) = सब वासनाओं का हरण करनेवाला प्रभु (अधिमृज्यते) = शोधित किया जाता है, अर्थात् जब पवित्र हृदय में प्रभु का चिन्तन होता है तब ४. (सत्ता) = सब वासनाओं का विशरण [षद् - विशरण – विनाश] करनेवाला प्रभु (कलशेषु) = अपने को षोडश कलाओं का निवास स्थान बनानेवाले जीवों में (निषीदति) = निषण्ण होता है और (सत्ता) = वासनाओं का विनाश करके [विशरण] प्रभु के समीप बैठनेवाला [सद्-सीदति- बैठता है] वह पवमान जीव (योनौ) = सारे ब्रह्माण्ड के मूल उत्पत्तिस्थान प्रभु में (निषीदति) = निश्चय से स्थित होता है। चौथे चरण में श्लेष से यह कहा गया है कि प्रभु जीव में स्थित होता है और जीव प्रभु में स्थित होता है, परन्तु कब ? जब १. जीव 'ऋत व सत्य' की लगामवाला होता है, २. धर्म के मार्ग पर स्थिरता के कारण उसका जीवन प्रकाशमय होता है, ३. जब हृदय में प्रभु का अन्वेषण करता है और ४. वासनाओं का विनाश करनेवाला बनता है।
भावार्थ
जीवन की लगाम को कसकर हम धर्म के मार्ग पर चलें | हृदयों में प्रभु - चिन्तन से वासनाओं को दूर रक्खें, हम प्रभु में हों, प्रभु हममें हों ।
विषय
missing
भावार्थ
(पवमानस्य) समस्त संसार में व्यापक, सब को गति देने हारे, परमेश्वर के (केतवः) ज्ञान कराने वाले (रश्मयः) किरण (ध्रुवस्य सतः) सत्स्वरूप उस कूटस्थ ब्रह्म के (उभयतः) जड़ और जंगम दोनों प्रकार के संसार के प्रति (परियन्ति) व्याप्त होरहे हैं। (यदई) जब भी (हरिः) समस्त संसार को गति देने और समस्त दुखों को हरने हारा ईश्वर (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (अधिसृज्यते) विवेक द्वारा साक्षात् किया जाता तब (सत्ता) हृदयों में सत्यस्वरूप होकर विराजमान वह (कलशेषु) सब शरीरों में भी विद्यमान (योनौ) उनके मूल आश्रय, अन्तरात्मा में घुसकर (सीदति) विराजमान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनस्तद्रचितस्य सूर्यस्य च विषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—सूर्यपक्षे। (ध्रुवस्य सतः) दिवि स्थिररूपेण विद्यमानस्य (पवमानस्य) शोधकस्य सूर्यस्य (केतवः) प्रकाशकाः (रश्मयः) किरणाः (उभयतः) भूगोलस्य उभयोः गोलार्धयोः (परि यन्ति) परिगच्छन्ति। (यदा) यदा (हरिः) रसानां हर्ता किरणसमूहः (पवित्रे अधि) अन्तरिक्षे। [अन्तरिक्षं वै पवित्रम्। काठ सं० २६।१०।] (मृज्यते) प्रेष्यते। [मार्ष्टिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] तदा (योनौ सत्ता) अन्तरिक्षे स्थितः सः। [योनिरन्तरिक्षम् इति निरुक्तम् २।८।] (कलशेषु) मङ्गलबुधचन्द्रादिषु ग्रहोपग्रहेषु (निषीदति) निगच्छति, गत्वा च तान् प्रकाशितान् करोति। [षदलृ विशरणगत्यवसादनेषु, भ्वादिः] ॥ द्वितीयः—परमात्मपक्षे। (ध्रुवस्य सतः) स्थिरस्य अजरामरस्य सनातनस्य सतः (पवमानस्य) पवित्रताकरस्य परमात्मनः (केतवः) प्रज्ञापकाः (रश्मयः) दिव्यप्रकाशकिरणाः (उभयतः) उभयोः कालयोः प्रातः सायं च सन्ध्यावन्दनसमये (परि यन्ति) उपासकं परि प्राप्नुवन्ति। (यदि) यदा (हरिः) दोषापहारकः परमात्मा (पवित्रे अधि) पवित्रहृदयाभ्यन्तरे (मृज्यते) भक्तिभावरूपैरलङ्कारैरलङ्क्रियते तदा (योनौ सत्ता) हृदयगृहे स्थितः सः। [योनिरिति गृहनाम निघं० ३।४।] (कलशेषु) अन्नमयप्राणमयमनोमयादिकोशेषु (निषीदति) निषदनं करोति, तत्र निषण्णश्च आत्ममनोबुद्ध्यादीनि सर्वाणि प्रभावयति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
यथा सोमरसो दशापवित्रमार्गेण द्रोणकलशेषु तिष्ठति, यथा वा सूर्यरश्मिरन्तरिक्षमार्गेण ग्रहोपग्रहेषु निषीदति तथैव परमेश्वरो हृदयमार्गेण देहस्थपञ्चकोशेषु तिष्ठति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।८६।६, ‘योनौ’ इत्यत्र ‘योना॑’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The knowledge-bestowing beams of God, are pervading the animate and inanimate creation of the Unchanging Lord. Whenever God is perceived in the mind through discernment, then, being present in the hearts. He residing in all bodies, is found seated in the soul.
Meaning
The rays of the light of Soma, lord existent, immovable, pure and purifying, pervading over both earth and the skies, radiate all round. When it is felt and adored, exalted in the pure heart, then the sanctifier presence settles and abides in the sacred hearts of the celebrants, the real seat of its own love and choice. (Rg. 9-86-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ध्रुवस्य सतः पवमानस्य) એકરસ રહેલ આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માના (रश्मयः केतवः) વ્યાપનશીલ પ્રજ્ઞાન-ગુણ (उभयन्तः परियन्ति) સ્થાવર અને જંગમ સંસાર પરિપ્રાપ્ત થઈ રહ્યા છે (यदि ' यत् इ ') જ્યારે પણ (हरिः पवित्रे अधि मृज्यते) દુઃખાપહરણકર્તા સુખાહરણકર્તા પરમાત્મા પ્રાપ્તિસ્થાન પવિત્ર ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત કરી શકાય છે-સાક્ષાત્ કરી શકાય છે. (सत्ता योनौ कलशेषु नि सीदति) બેસવાનું તે મિલન સ્થાન હૃદયમાં અને તેના સમસ્ત કલાસ્થાનો મન ઇન્દ્રિયોમાં વસી જાય છે-તેના હૃદયમાં ધ્યાન, મનમાં મનન, કાનોમાં શ્રવણ અને વાણીમાં સ્તવન વગેરે થતાં રહે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सोमरस दशापवित्र नावाच्या चाळणीतून चाळला जातो व द्रोणकलशात स्थित होतो व जशा सूर्यरश्मी अन्तरिक्ष मार्गाने ग्रह-उपग्रहात स्थित होतात, तसेच परमेश्वर हृदयमार्गाने देहातील पंचकोशात स्थित होतो. ॥२॥
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