Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 9
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
त्वा꣡म꣢ग्ने꣣ पु꣡ष्क꣢रा꣣द꣡ध्यथ꣢꣯र्वा꣣ नि꣡र꣢मन्थत । मू꣣र्ध्नो꣡ विश्व꣢꣯स्य वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । अ꣣ग्ने । पु꣡ष्क꣢꣯रात् । अ꣡धि꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯र्वा । निः । अ꣣मन्थत । मूर्ध्नः꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । अग्ने । पुष्करात् । अधि । अथर्वा । निः । अमन्थत । मूर्ध्नः । विश्वस्य । वाघतः ॥९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 9
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में योगीजन परमात्मा को मस्तिष्क-पुण्डरीक में प्रकट करते हैं, यह विषय है।
पदार्थ
हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) चलायमान न होनेवाला स्थितप्रज्ञ योगी (त्वाम्) आपको (विश्वस्य) सकल ज्ञानों के (वाहकात्) वाहक (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) कमलाकार मस्तिष्क में (निरमन्थत) मथकर प्रकट करता है। परमात्मा रूप अग्नि को मथकर प्रकट करने की प्रक्रिया बताते हुए श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है—अपने आत्मा को निचली अरणी बनाकर और ओंकार को उपरली अरणी बनाकर ध्यान-रूप मन्थन के अभ्यास से छिपे हुए परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करे (श्वेता० २।१४)। कमल के पत्ते (पुष्करपर्ण) के ऊपर अग्नि उत्पन्न हुआ था, यह कथा इसी मन्त्र के आधार पर रच ली गयी है ॥९॥
भावार्थ
जैसे अरणियों के मन्थन से यज्ञवेदि-रूप कमलपत्र के ऊपर यज्ञाग्नि उत्पन्न की जाती है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ योगियों को ध्यान-रूप मन्थन से कमलाकार मस्तिष्क में परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करना चाहिए ॥९॥१ विवरणकार माधव ने इस मन्त्र के भाष्य में यह इतिहास लिखा है—सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था, तब मातरिश्वा वायु को आकाश में सूक्ष्म अग्नि दिखाई दी। उसने और अथर्वा ऋषि ने उस अग्नि को मथकर प्रकट किया। उसका किया हुआ मन्त्रार्थ साररूप में इस प्रकार है— (अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा ऋषि ने (त्वाम्) तुझे (मूर्ध्नः) प्रधानभूत (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (विश्वस्य वाघतः) सब ऋत्विज् यजमानों के लिए (निरमन्थत) अतिशरूप से मथकर निकाला। वस्तुतः विवरणकार- प्रदत्त कथानक सृष्ट्युत्पत्ति-प्रक्रिया में अग्नि के जन्म का इतिहास समझना चाहिए। आकाश के बाद वायु और वायु के बाद अग्नि, यह उत्पत्ति का क्रम है। उत्पन्न हो जाने के बाद आकाश में सूक्ष्म रूप से अग्नि भी विद्यमान था, उसे अथर्वा परमेश्वर ने पूर्वोत्पन्न वायु के साहचर्य से मथकर प्रकट किया, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। भरतस्वामी के भाष्य का यह आशय है—अथर्वा ने (मूर्ध्नः) धारक, (विश्वस्य वाघतः) सबके निर्वाहक (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से या कमलपत्र से, अग्नि को मथकर निकाला। सायण का अर्थ है—(अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा नाम के ऋषि ने (मूर्ध्नः) मूर्धा के समान धारक (विश्वस्य) सब जगत् के (वाघतः) वाहक (पुष्करात् अधि) पुष्करपर्ण अर्थात् कमलपत्र के ऊपर (त्वाम्) तुझे (निरमन्थत) अरणियों में से उत्पन्न किया। यहाँ भी पुष्करपर्ण सचमुच का कमलपत्र नहीं है, किन्तु यज्ञवेदि का आकाश है और अथर्वा है स्थिर चित्त से यज्ञ करनेवाला यजमान, जो यज्ञकुण्ड में अरणियों से अग्नि उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य जानना चाहिए। उवट ने य० ११।३२ के भाष्य में जल ही पुष्कर है, प्राण अथर्वा है श० ४।२।२।२ यह शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देकर मन्त्रार्थ किया है—तुझे हे अग्नि, (पुष्करात्) जल में से (अथर्वा) सतत गतिमान् प्राण ने (निरमन्थत) मथकर पैदा किया। यही अर्थ महीधर को भी अभिप्रेत है। यहाँ प्राण से प्राणवान् परमेश्वर या विद्वान् मनुष्य, जल से बादल में स्थित जल और अग्नि से विद्युत् जानने चाहिए। अथवा शरीरस्थ प्राण खाये-पिये हुए रसों से जीवनाग्नि को उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य समझना चाहिए। महीधर ने दूसरा वैकल्पिक अर्थ पुष्करपर्ण (कमलपत्र) के ऊपर अग्नि को मथने परक ही किया है। भाष्यकारों ने तात्पर्य प्रकाशित किये बिना ही कथाएँ लिख दी हैं, जो भ्रम की उत्पत्ति का कारण बनी हैं। वस्तुतः अथर्वा नामक किसी ऋषि का इतिहास इस मन्त्र में नहीं है, क्योंकि वेदमन्त्र ईश्वरप्रोक्त हैं तथा सृष्टि के आदि में प्रादूर्भूत हुए थे और पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों के कार्यकलाप का पूर्ववर्ती वेद में वर्णन नहीं हो सकता ॥९॥
टिपण्णी
१. ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदभाष्य और यजुर्वेदभाष्य में इस मन्त्र की व्याख्या सूर्य आदि से बिजली ग्रहण करने के पक्ष में की है। यथा, ६।१६।१३ के भाष्य में भावार्थ है—हे विद्वान् जनो ! जैसे पदार्थविद्या के जाननेवाले जन सूर्य आदि के समीप से बिजली को ग्रहण करके कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग भी सिद्ध करो। य० १५।२२ के भाष्य का भावार्थ है— मनुष्यों को चाहिए कि विद्वानों के समान आकाश तथा पृथिवी के सकाश से बिजुली का ग्रहण कर आश्चर्य-रूप कर्मों को सिद्ध करें।
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वाम्) तुझे (अथर्वा) स्थिर वृत्ति वाला ध्यानीजन “अथर्वा-थर्वतिश्चरति कर्मा तत्प्रतिषेधः” [निरु॰ ११.१९] (विश्वस्य मूर्ध्नः—वाघतः) समस्त प्राणीमात्र के मूर्धारूप तथा वहन करने वाले वाहक—निर्वाहक—“वाघतो वोढारः-वाघत्-वोढा” [निरु॰ ११.१६] (पुष्करात्-अधि) पुष्कर—वपुष्कर—शरीर निर्माण करने वाले “पुष्करं वपुष्करम्” [निरु॰ ५.१४] हृदयकमल में “पुष्करं पुण्डरीकम्” [तां॰ १८.९.६] “पुण्डरीकं नव द्वारम्” [अथर्व॰ १०.८.४३] “हृदयपुण्डरीके” [योग॰ १.३६ व्यासः] (निरमन्थत) निर्मन्थित करता है—साक्षात् करता है।
भावार्थ
हाँ हे मेरे परमात्मन्! मैं समझ गया, तेरे समागम का अवमसधस्थ मेरे शरीर में हृदय सदन है जो देह का निर्माण करने वाला एवं रक्त और प्राणों का प्रमुख वाहक है। यहाँ पर ही अभ्यास और वैराग्य के सम्मिश्रण से या सगुण और निर्गुण स्तुतियों के निर्मन्थन से स्थिरध्यानीजन तुझे प्रकाशित करता है—साक्षात् करता है जैसे दो काष्ठों के अनुलोम प्रतिलोम मन्थन से या खनिज वस्तुओं के संघर्षण से अग्नि को प्रकाशित करते हैं। उस तुझ परमेश्वर का साक्षात् कर मैं भी अपने को कृतकृत्य करूँ॥९॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन ज्ञान बल को अपने अन्दर धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
प्रभु दर्शनार्थ दो बातें
पदार्थ
इस संसार में अस्थिर चित्तवृत्तिवाले पुरुष को प्रभु का दर्शन नहीं होता। उस प्रभु का मन्थन व ज्ञान तो अथर्वा ही कर पाता है। इसी से मन्त्र में कहते हैं कि (अग्ने)= हे प्रभो! त्(वाम्)=आपको (अथर्वा)= निश्चल चित्तवृत्तिवाला पुरुष (पुष्करात् अधि)= इस हृदयदेश में (निरमन्थत)= अवगाहन कर जान पाता है, अर्थात् आपका दर्शन निरुद्ध चित्तवृत्तिवाले योगी को ही हृदय में हुआ करता है, परन्तु क्या यह योगी केवल हृदय के इस विकास व नैर्मल्य से ही प्रभु-दर्शन कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मन्त्र में कहा है कि उस प्रभु के ज्ञान का मन्थन (मूर्ध्नः) = मस्तिष्क से होगा। कौन से मस्तिष्क से ? (विश्वस्य) - सारे ब्रह्माण्ड के ज्ञान को (वाघतः) = धारण करनेवाले मेधावी के मस्तिष्क से।
एवं, यह स्पष्ट है कि प्रभु का दर्शन केवल पवित्र हृदय से न होकर मेधावी के ज्ञानपरिपूर्ण मस्तिष्क से होता है। हृदय व मस्तिष्क दोनों का ही विकास आवश्यक है। जैसे दो अरणियों को रगड़कर अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार उस प्रभुरूप अग्नि को प्रकट
करने के लिए हृदय व मस्तिष्करूपी दोनों अरणियों की आवश्यकता है। ‘वज्’ धातु ज्ञान व गमन की वाचक है। उस प्रभु के ज्ञान और उस प्रभु की ओर जाने की भावना से भरा हुआ व्यक्ति इस मन्त्र का ऋषि ‘भरद्वाज' कहलाता है।
भावार्थ
प्रभु-दर्शन के लिए उत्तम गुणों का पोषण करनेवाले [पुष्कर] हृदय, व विश्व के ज्ञान से परिपूर्ण मस्तिष्क दोनों की ही आवश्यकता है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे अग्ने प्रकाशस्वरूप ! ( त्वाम् ) = तुझे ( अथर्वा१ ) = अहिंसक, प्रजापति, ज्ञानी विद्वान् ( विश्वस्य वाघतः ) = समस्त ब्रह्माण्ड को वहन करने वाले ( मूर्ध्नः ) = मूर्धास्थान, सर्वोच्च ( पुष्कराद् अधि) = पुष्कर अर्थात् सबको पुष्ट करने वाले तेरे शक्तिमान् विराट् स्वरूप से ही ( निर्-अमन्थत ) = अरणियों से अग्नि के समान, मथन करके तुझे प्रकट करता है, तेरा ज्ञान करता है ।
टिप्पणी
१ "१ - ?"
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
छन्दः - गायत्री
संस्कृत (1)
विषयः
योगिनः परमात्मानं मूर्धपुण्डरीके प्रकटयन्तीत्युच्यते।
पदार्थः
हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) न थर्वति चलति यः सः, स्थितप्रज्ञो योगीत्यर्थः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः निरु० ११।१९। (त्वाम्) भवन्तम् (विश्वस्य) सकलस्य ज्ञानस्य (वाघतः) वाहकात् वाहके इति यावत्। वह प्रापणे इति णिजन्ताच्छतरि हस्य घत्वं छान्दसम्। (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) पुण्डरीकतुल्ये मस्तिष्के। पुष्करम् अन्तरिक्षं, पोषति भूतानि... इदमपि इतरत् पुष्करमेतस्मादेव, पुष्करं वपुष्कारं वपुष्करं वा। निरु० ५।१३। अधियोगे पञ्चमी। (निरमन्थत) मथित्वा जनयति। उक्तं च श्वेताश्वतरे—“स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत् ॥” श्वेता० २।१४। इति। ‘पुष्करपर्णाश्रयेण हि अग्निरुत्पन्नः’ इत्यस्याः कथाया अयमेव मन्त्रो मूलम्। यथोच्यते—त्वामग्ने पुष्करादधीत्याह पुष्करपर्णे ह्येनमुपश्रितमन्वविन्दत्।’ तै० सं० ५।१।४।४। इति ॥९॥२
भावार्थः
यथा खल्वरणिमन्थनेन यज्ञवेदिपुण्डरीके यज्ञाग्निरुत्पाद्यते, तथैव स्थिरप्रज्ञैर्योगिभिर्ध्यानरूपेण मन्थनेन मूर्धपुण्डरीके परमात्माग्निः प्रकटीकरणीयः ॥९॥ विवरणकारस्त्वाह—“अत्रेतिहासमाचक्षते। सर्वमिदमन्धं तम आसीत्। अथ मातरिश्वा वायुः आकाशे सूक्ष्ममग्निमपश्यत्। स तममथ्नात् अथर्वा च ऋषिरिति”। एष च तन्मन्त्रभाष्यस्य सारः—हे अग्ने, अथर्वा ऋषिः त्वां मूर्ध्नः प्रधानभूतात्, पुष्करात् अन्तरिक्षात्, विश्वस्य सर्वस्य, वाघतः ऋत्विजो यजमानस्य अर्थाय निरमन्थत नितरां मथितवानिति। वस्तुतस्त्वयं सृष्ट्युत्पत्तिप्रक्रियायाम् अग्नेर्जन्मन इतिहासः। आकाशाद् वायुः, वायोरग्निरित्युत्पत्तिक्रमः। आकाशे सूक्ष्मरूपेणाग्निर्विद्यमान आसीत्। तम् अथर्वा परमेश्वरः पूर्वोत्पन्नो वायुश्च तस्मान्निरमन्थत प्रकटीकृतवानित्यभिप्रायो ग्राह्यः। “मूर्ध्नो धारकात् विश्वस्य वाघतः निर्वाहकात्, पुष्कराद् अन्तरिक्षात्, पुष्करपर्णादित्यपरे” इति भरतस्वामिभाष्याशयः। हे अग्ने, अथर्वा एतत्संज्ञ ऋषिः, मूर्ध्नः मूर्धवद् धारकात्, विश्वस्य सर्वस्य जगतः, वाघतः वाहकात्, पुष्कराद् अधि पुष्करे पुष्करपर्णे त्वां निरमन्थत अरण्योः सकाशादजनयदिति सायणीयोऽभिप्रायः। अत्रापि पुष्करपर्णं न कमलपत्रं, किन्तु यज्ञवेद्या आकाशः, अथर्वा च स्थिरचित्तत्वेन यज्ञं कुर्वाणो यजमानः, असौ अरण्योः सकाशादग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। उवटस्तु य० ११।३२ भाष्ये आपो वै पुष्करं प्राणोऽथर्वा। श० ६।४।२।२। इति शातपथीं श्रुतिं प्रमाणीकृत्य त्वां हे अग्ने, पुष्कराद् उदकात् अधि सकाशात् अथर्वा अतनवान् प्राणो निरमन्थत निर्जनितवान् इति व्याचष्टे। तदेव महीधरस्याभिप्रेतम्। तत्र प्राणः प्राणवान् परमेश्वरो विद्वान् वा, उदकानि पर्जन्यस्थानि, अग्निश्च विद्युदिति विज्ञेयम्। यद्वा, शरीरस्थः प्राणो भुक्तपीतेभ्यो रसेभ्यो जीवनाग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। महीधरेण द्वितीयो वैकल्पिकोऽर्थः पुष्करपर्णेऽग्निमन्थनपर एव कृतः। भाष्यकारैस्तात्पर्यप्रकाशनं विनैव कथा लिखिता याः पाठकानां भ्रमोत्पत्तिनिमित्तं संजाताः। वस्तुतस्तु अथर्वनाम्नः कस्यचिद् ऋषेरितिहासोऽस्मिन् मन्त्रे नास्ति, वेदमन्त्राणामीश्वरप्रोक्तत्वात् सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतत्वात् पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनाम् कार्यकलापस्य पूर्ववर्तिनि वेदेऽसंभवत्वाच्च ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।१६।१३। य० १५।२२ (ऋषिः परमेष्ठी)। २. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदभाष्ये यजुर्वेदभाष्ये चायं मन्त्रः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युद्ग्रहणपरो व्याख्यातः। यथा—ऋ० ६।१६।१३ मन्त्रभाष्ये भावार्थः—“हे विद्वांसो, यथा पदार्थविद्याविदो जनाः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युतं गृहीत्वा कार्याणि साध्नुवन्ति तथैव यूयमपि साध्नुत” इति। य० १५।२२ मन्त्रभाष्ये च भावार्थः—“मनुष्यैर्विद्वदनुकरणेनाकाशात् पृथिव्याश्च विद्युतं संगृह्याश्चर्य्याणि कर्माणि साधनीयानि।” इति।
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, a non-violent learned person realises Thee, the Driver of all through meditation in his heart like fire through churning.
Translator Comment
Just as fire is kindled by rubbing together two wooden sticks, so is God realised by the soul through deep and intense meditation. Griffith translates Atharvan as the sage who was the first to obtain fire, to institute sacrifice, and to offer up prayer and libations of Soma. This Interpretation is inadmissible, as there if no history in the Vedas, Pt. Jaidev Vidyalankar has rightly translated the word to mean 4 non-violent'.
Meaning
Agni, light of life, the wise scholar and devotee, Atharva, dedicated to love and non-violence, discovers and churns you out without violence from the highest sphere above the skies which supports and sustains the entire universe. (Rg. 6-16-13)
Translation
O God, a non-violent yogi (seer) with illumined intellect, deep thinking and meditation, realises Thy Divine Glory in the deepest recess of his heart.
Translation
O fire-divine, after deep meditation and attrition, the resolute seeker has discovered you out from the lotus-leaf-like interspace, which is the head and the support of universe. (Cf. Rv VI.16.13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (त्वाम्) તને (अथर्वा) સ્થિર ચિત્તવૃત્તિવાળા ધ્યાનીજન (विश्वस्य मूर्ध्नः वाघतः) સમસ્ત પ્રાણી માત્રના મૂર્ધારૂપ તથા વહન કરનાર વાહક-નિર્વાહક (पुष्करात् अधि )પુષ્કર-વપુષ્કર - શરીર નિર્માણ કરનાર હૃદય કમળમાં (निरमन्थत) મંથન કરે છે - સાક્ષાત્ કરે છે. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હાં, હે મારા પરમાત્મન્ ! હું સમજી ગયો, તારું અવમ સધસ્થ મારા શરીરમાં હૃદય : ગૃહ-ગુહા છે, જે દેહનું નિર્માણ કરનાર અને રક્ત તથા પ્રાણોનું મુખ્ય વાહક છે. આ સ્થાન પર જ અભ્યાસ અને વૈરાગ્ય દ્વારા અથવા સગુણ અને નિર્ગુણ સ્તુતિઓના સારી રીતે મંથન દ્વારા સ્થિર ધ્યાનીયોગી તને પ્રકાશિત કરે છે - તારો સાક્ષાત્ કરે છે.
જેમ અરણીના બે લાકડાના અનુલોમ અને પ્રતિલોમ મંથન કે રગડવાથી અથવા ખનિજ પદાર્થોને પરસ્પર રગડવાથી અગ્નિને પ્રકાશિત કરવામાં આવે છે. તેમ તારો-પરમાત્માનો સાક્ષાત્ કરીને હું પણ સ્વયંને કૃતકૃત્ય કર્યું. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہردیہ میں بھگوان کے درشن
Lafzi Maana
(اگنے) ہے پرکاش سوُروپ پرمیشور! (اتھروا) سِتھر اور شانت چِت والے آپ کے شردھالو بھگت نے (پُشپکرات ادھی) شریر کے زندگی بخش ہردیہ (دل) میں (امنتھت) منتھن کر کے (نِر) آپ کو پرگٹ کیا ہے اور وِشوسیہ (واگھت) سارے جسمانی وجود کو چلانے والے (مُوردھنا) مستشک (دماغ) سے بھی منتھن (ولوڑ) کہ آپ کو پرگٹ کیا ہے۔
Tashree
پرماتما کا پیارا ُپاسک اُس کو پانے کے لئے شانت چِت ہو کر یکسُوئی سے جب دوارنیوں کی طرح (ایک قسم کی لکڑی کے دو ٹکڑے جن کو نیچے اور رکھ کر متھنے ارتھات رگڑنے سے آگ پیدا ہو جاتی ہے) اپنے شریر کو نچلی اور پربُھو کے پیارے اصلی نام اوم کو اوپر کی ارنی بنا کر دونوں کو لگاتار دھیان اور ابھیاس (مشق) سے بار بار رگڑتا جاتا ہے تو تب اُس پرم اگنی ایشور کا پرکاش (نُورِ تجّلی) کو دل اور دماغ میں پرگٹ کر لیتا ہے
मराठी (2)
भावार्थ
जसे अरणीच्या मंथनाने यज्ञवेदी-रूपी कमलपत्रावर यज्ञाग्नी उत्पन्न केला जातो, तसेच स्थितप्रज्ञ योग्यांना ध्यानरूपी मंथनाने कमलाकार मस्तकामध्ये परमात्मरूपी अग्नी प्रकट केला पाहिजे ॥९॥ विवरणकार माधवने या मंत्राच्या भाष्यात हा इतिहास लिहिलेला आहे - सर्वत्र भयंकर अंधकार पसरलेला होता, तेव्हा मातरिश्वा वायुला आकाशात सूक्ष्म अग्नी दिसला, त्याने व अथर्वा ऋषीने त्या अग्नीला मंथन करून प्रकट केले. त्याने केलेला मंत्रार्थ - साररूपाने या प्रकारे आहे - (अग्ने) हे अग्नि: । (अथर्वा) अर्थवा ऋषीने (त्वाम्) तुला (मूर्ध्न:) प्रधानभूत (पुष्कारात्) अंतरिक्षातून (विश्वस्य वाघत:) सर्व ऋत्विज् यजमानासाठी (निरमन्थत) अतिशरूपाने मंथन करून काढले. वास्तविक विवरणकार - प्रदत्त कथानक सृष्ट्युत्पत्ति प्रक्रियेत अग्नीच्या जन्माचा इतिहास समजला पाहिजे. आकाशानंतर वायु व वायुनंतर अग्नी हा उत्पत्ती क्रम आहे. आकाश उत्पन्न झाल्यावर आकाशात सूक्ष्मरूपाने अग्नी ही विद्यमान होता, त्याला अथर्वा परमेश्वराने पूर्वोत्पन्न वायुच्या साह्याने मंथन करून प्रकट केले. हा अभिप्राय ग्रहण केला पाहिजे.
टिप्पणी
भरतस्वामीच्या भाष्याचा हा आशय आहे - अथर्वाने (मूर्ध्न:) धारक, (विश्वस्य वाघत:) सर्वांचा निर्वाहक (पुष्करात्) अंतरिक्षाद्वारे अथवा कमलपत्राद्वारे अग्नीला मंथन करून काढले.
सायणचा अर्थ - (अग्ने) हे अग्ने) हे अग्नी! (अथर्वा) अथर्वा नावाच्या ऋषीने (मूर्ध्न:) मूर्धाप्रमाणे धारक (विश्वस्य) सर्व जगाचा (वाघत:) वाहक (पुष्करात अधि) पुष्करपर्ण अर्थात् कमलपत्रावर (त्वाम्) तुझे (निरमन्थत) अरणीतून उत्पन्न केले. येथेही पुष्करपर्ण खरोखर कमलपत्र नाही, तर यज्ञवेदीचे आकाश आहे व अथर्वा स्थिर चित्ताने यज्ञ करणारा यजमान आहे जो यज्ञकुंडात अरणीनी अग्नी उत्पन्न करतो, हे तात्पर्य जाणावे. उव्वटने य. ११/३२ च्या भाष्यात जलच पुष्कर आहे.
प्राण अथर्वा आहे श. ४/२/२/२ हे शतपथ ब्राह्मणाचे प्रमाण दर्शवून मंत्रार्थ केलेला आहे. - हे अग्नी तुला (पुष्करात्) जलातून (अथर्वा) सतत गतिमान प्राणाने (निरमन्थत) मंथन करून उत्पन्न केलेले आहे, हाच अर्थ महीधरला अभिप्रेत आहे. येथे प्राण अर्थात् प्राणवान मनुष्य जल अर्थात मेघात स्थित असलेले जल व अग्नी अर्थात् विद्युत हे जाणले पाहिजे किंवा शरीरस्थ प्राण खान-पान झाल्यानंतर रसांद्वारे जीवनाग्नी उत्पन्न करतो, हे तात्पर्य समजले पाहिजे. महीधरने दुसरा वैकल्पिक अर्थ पुष्करपर्ण (कमलपत्र) च्या वर अग्नीचे मंथन असेच केलेले आहे. भाष्यकारांनी तात्पर्य प्रकाशित केल्याशिवायच या कथा लिहिलेल्या आहेत, ज्यामुळे भ्रम पसरलेला आहे. वास्तविक अथर्वा नावाच्या कुण्या ऋषीचा इतिहास या मंत्रात नाही. कारण वेदमंत्र ईश्वरप्रोक्त आहेत व सृष्टीच्या आरंभी प्रादुर्भूत झालेले आहेत. नंतरच्या ऋषी इत्यादींच्या कार्यकलापाचे पूर्ववर्ती वेदात वर्णन असू शकत नाही ॥९॥
विषय
योगीजन परमेश्वराला आपल्या मस्तिष्क पुंडरीकात प्रकट करतात, पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे.
शब्दार्थ
हे (अग्ने) तेज: स्वरूप परमात्मन् (अथर्वा) चलायमान न होणारा स्थितप्रज्ञ योगी (त्वाम्) आपणास (विश्वस्य) समस्त ज्ञानांचे (वाहकात) वाहक असलेल्या (पुष्करात मूर्ध्न अधि) कमलाकार मस्तिष्कामध्ये (निरमन्थत) मंथन करून प्रकट करतो. (अनुभवतो) ।।९।। परमात्मरूप अग्नीला मंथनाद्वारे प्रकट करण्याची प्रक्रिया सांगताना श्वेताश्वतर उपनिषदात म्हटले आहे - ( योगीजनाने) स्व आत्म्यास खालची अरणी (काष्ठ) करून आणि ओंकारास वरची अरणी (रवीसा ख काष्ठ) करावे. अशाप्रकारे ध्यानरूप मंथनाचा अभ्यास करीत लुप्त वा सुप्त परमात्मरूप अग्नीस प्रकट करावे. (श्वेता. २११४)) कमळपत्रावर (पुष्करपर्णावर) अग्नी उत्पन्न झाला होता, ही कथा याच मंत्राच्या आधारावर रचलेली दिसते. ॥९॥
भावार्थ
जसे अरणीमंथनाद्वारे यज्ञवेदीरूप कमलपत्रावर यज्ञाग्नी उत्पन्न केला जातो, तद्वत स्थितप्रज्ञ योग्यांनी ध्यानरूप मंथनाद्वारे कमलाकार मस्तिष्कामध्ये परमात्मरूप अग्नी प्रकट केला पाहिजे. ।।९।। विवरणकार माधव या भाष्यकाराने आपल्या भाष्यात हा इतिहास दाखविला आहे. सर्वत्र दाट अंधार पसरलेला होता. तेव्हा मातरिश्वा वायूला आकाशात एक सूक्ष्म अग्नी दिसला. त्याने आणि अथर्वा ऋषीने मंथन करून तो अग्नी प्रकट केला. त्याने केलेला मंत्रार्थ साररूपेण असा आहे. - (अग्ने) हे अग्नी (अथर्वा ) अथर्वा ऋषीने (त्वाम्) तुला (मूर्ध्व:) प्रद्यानभूत (पुष्करात्) अंतरिक्षापासून (विश्वस्य वाघतः) सर्व ऋत्विज यजमानांकरीता (निरमन्थत) अत्यंत मंथन करून काढले. वास्तविक पाहता विवरणकार माधवाने जो कथानक सांगितला आहे, ती सृष्टीच्या दृष्टीने उत्पत्ति प्रक्रियेमध्ये अग्नीचा जन्म कसा झाला हा इतिहास दर्शवितो. कारण की, सृष्टी उत्पत्तीत आकाशाद्वायुः वायोरग्नि: या प्रमाणे आकाशानंतर वायू आणि वायूनंतर अग्नी हाच क्रम आहे. उत्पत्तिनंतर अग्नी आकाशात सूक्ष्मरूपाने विद्यमान होता. त्याला अथर्वा परमेश्वराने पूर्वी उत्पन्न झालेल्या वायूच्या साहचर्याने मंथन कर मंथनाद्वारे प्रकट केले, असाच अर्थ घेतला पाहिजे. भरतस्वामीच्या भाष्याचा आशय असा अथर्वाने (मूर्ध्न:) धारक (विश्वस्य वाघत:) सर्वांचा जो विवहिक त्या (पुष्करात्) अंतरिक्षापासून अथवा कमलपत्रापासून मंथन करून अग्नी काढला. सामणावार्याने केलेला अर्थ असा (अग्ने) हे अग्नी, (अथर्वा ) अथर्वा नावाच्या ऋषीने (मूर्ध्न:) मूर्धाप्रमाणे धारक आणि (विश्वस्य) सर्व सृष्टीचा वाहक असलेल्या तुला (पुष्करात अधि) पुष्करपर्ण म्हणजे कमलपत्रावर (त्वाम् ) तुला (निरमन्थत) अरणीमधून उत्पन्न केले. इथेही पुष्करपर्णचा अर्थ कमलपत्र नाही अर्थ आहे यज्ञवेदीचा आकाश आणि अथर्वा म्हटले आहे. यज्ञ करणाऱ्या यजमानाला की, जो अरणीद्वारा यज्ञकुंडामध्ये अग्नी उत्पन्न करतो. येथे हे तात्पर्य घेतले पाहिजे. उलट या विद्वानाने आपल्या भाष्यात म्हटले आहे जल हेच पुष्कर आहे. आणि प्राण अथर्वा आहे. । शत ४।२।२।२ शतपथ ब्राह्मणाचे हे प्रमाण उद्धृत करून त्याने मंत्रार्थ केला आहे. हे अग्नी तुला (पुष्करात्) जलातून (अथर्वा ) सतत गतिमान प्राणाने (निरमन्थत) मंथन करून उत्पन्न केले आहे. महीधरलाही हाच अर्थ अभिप्रेत आहे. येथे प्राण श्दाने प्राणवान परमात्मा अथवा विद्वान जन, जल शब्दाचे मेघस्थित जल आणि अग्नी शब्दाने विद्युत अर्थ ग्रहीत केला पाहिजे. किंवा हे तात्पर्यदेखील घेता येते की, शरीरस्य प्राण अन्न पान आदीने उत्पन्न रसांद्वारे जीवनाग्नी उदीप्त करतो. महीधर यानेदेखील पुष्करपर्णा (कमलपत्रा) वर अग्नीमंथनपुरक दुसरा वैकल्पिक अर्थ केला आहे. अनेक भाष्यकारांनी तात्पर्य न समजून अर्थ स्पष्ट न करता कथा रचून घेतल्या आहेत. ज्या वास्तविक अर्थासंबंधी भ्रम उत्पन्न करण्यास कारणीभूत ठरल्या आहेत. वास्तविक पाहता या मंत्रात अथर्वा नावाच्या कोणा ऋषीचा इतिहास मुळीच नाही, कारण असे की वेदमंत्र ईश्वरप्रोक्त आहेत आणि ते सृष्टीच्या प्रारंभी प्रादुर्भुत झाले आहेत. तेव्हा पश्चातवर्ती ऋषी आदींचे कार्यकलापांचे वर्णन पूर्ववर्ती वेदात असणे संभवनीय नाही. ।।९।।
तमिल (1)
Word Meaning
(அக்னியே! ) உன்னை [1] அதர்வன் [2] ஆகாசத்தினின்று தேய்த்து தோற்றுவிக்கிறான். நீ சர்வயக்ஞஞ்செய்பவனின் தலைவனாகும்.
FootNotes
[1] அதர்வன் - அக்னியின் உண்மையை அறிபவன் [2] தியானத்தால் அறிந்து மற்றவர்களுக்கு உன்னை நன்கு விளக்குகிறான். (ஆகாசத்தினின்று தேய்த்து தோற்றுவிக்கிறான்)
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal