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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 905
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢मान रु꣣चा꣡रु꣢चा꣣ दे꣡व꣢ दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सु꣣तः꣢ । वि꣢श्वा꣣ व꣢सू꣣न्या꣡ वि꣢श ॥९०५॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मान । रु꣣चा꣡रु꣢चा । रु꣣चा꣢ । रु꣣चा । दे꣡व꣢꣯ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । सु꣣तः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । व꣡सू꣢꣯नि । आ । वि꣣श ॥९०५॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान रुचारुचा देव देवेभ्यः सुतः । विश्वा वसून्या विश ॥९०५॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमान । रुचारुचा । रुचा । रुचा । देव । देवेभ्यः । सुतः । विश्वा । वसूनि । आ । विश ॥९०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 905
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
पदार्थ
हे (पवमान) चित्त को शुद्ध करनेवाले (देव) आनन्ददायक सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (देवेभ्यः)प्रकाशक, ज्ञान के साधन मन, बुद्धि, आँख, कान, नासिका, त्वचा और जिह्वा के लिए अर्थात् उन्हें प्रकाशनशक्ति देने के लिए (सुतः) प्रवृत्त आप (रुचारुचा) अधिकाधिकप्रकाशन-शक्ति से (विश्वा वसूनि) उन सब निवासक मन, बुद्धि आदियों में (आ विश) प्रविष्ट होवो। भाव यह है कि आपके द्वारा दी गयी ज्ञान-प्रदान-शक्ति से पुनः-पुनः अनुप्राणित ये मन, बुद्धि आदि सदा ही ज्ञान अर्जन करने में जीवात्मा के साधन बने रहें ॥२॥
भावार्थ
जैसे सूर्य के प्रकाश से सब ग्रहोपग्रह प्रकाशित होते हैं, वैसे ही परमेश्वर के द्वारा प्रकाशित मन, बुद्धि, चक्षु आदि ज्ञान के ग्राहक होते हैं ॥२॥
पदार्थ
(पवमान देव) हे धारारूप में प्राप्त होने वाले परमात्मदेव! तू (देवेभ्यः) देवों मुमुक्षुजनों के अन्दर*46 (सुतः) साक्षात् हुआ (रुचा रुचा) अपनी प्रत्येक दीप्त धारा या प्रत्येक रुचिर धारा से या अमृत धारा से*47 (विश्वा वसूनि-आविश) मुक्त उपासक के समस्त वासस्थानों के हृदय मन इन्द्रियों को आविष्ट हो जा, इनमें तेरा आधान ध्यान चर्चा भान हो॥२॥
टिप्पणी
[*46. विभक्तिव्यत्ययः।] [*47. “अमृतं वै रुक्” [श॰ ७.४.२.२१]।]
विशेष
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विषय
विश्व वसुओं की प्राप्ति
पदार्थ
प्रभु मन्त्र के ऋषि भृगु से कहते हैं कि - हे (पवमान) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले ! हे (देव) = दिव्य गुणोंवाले ! तू (देवेभ्यः सुतः) = दिव्य गुणों को प्राप्त करने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। तेरे जीवन का लक्ष्य दिव्य गुणों की प्राप्ति ही होना चाहिए। तू (रुचा रुचा) = एक-एक दीप्ति से, अर्थात् एक-एक ज्योति को प्राप्त करके (विश्वा) = सब (वसूनि) = शम-दम आदि उत्तम धनों को आविश= प्राप्त हो । इन वसुओं में तेरा प्रवेश हो । तू सब वसुओं को प्राप्त करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ–एक-एक करके हम सब वसुओं को प्राप्त करनेवाले हों ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमात्मविषय उच्यते।
पदार्थः
हे (पवमान) चित्तं शोधयन् (देव) मोददायक सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (देवेभ्यः) प्रकाशकेभ्यः ज्ञानसाधनेभ्यः मनोबुद्धिचक्षुःश्रोत्रघ्राण-त्वग्रसनाभ्यः, तेभ्यः प्रकाशनशक्तिं दातुमित्यर्थः(सुतः) प्रवृत्तः त्वम् (रुचारुचा) अधिकाधिकया प्रकाशनशक्त्या (विश्वा वसूनि) सर्वाणि निवासकानि तानि मनोबुद्ध्यादीनि (आ विश) प्रविश। त्वत्प्रदत्तया ज्ञानप्रदानशक्त्या भूयो भूयोऽनुप्राणितान्येतानि मनोबुद्ध्यादीनि सदैव ज्ञानार्जने जीवात्मनः साधनतां प्रयान्त्वित्यभिप्रायः ॥२॥
भावार्थः
यथा सूर्यप्रकाशेन सर्वे ग्रहोपग्रहाः प्रकाशिता जायन्ते तथैव परमेश्वरेण प्रकाशितानि मनोबुद्धिनेत्रादीनि ज्ञानग्राहकाणि भवन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६५।२, ‘दे॒वो दे॒वेभ्य॒स्परि॑’ इति द्वितीयः पादः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Refulgent, Purifying God, worshipped by the sages, grant us, with Thy full power, all sorts of riches !
Meaning
May the self-refulgent lord supreme over all divinities of nature and humanity, pure and purifying, by his divine beauty and glory bring us all wealth, honour and excellence of the world and bless our heart and soul. (Rg. 9-65-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पवमान देव) હે ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મદેવ ! તું (देवेभ्यः) દેવો-મુમુક્ષુજનોની અંદર (सुतः) સાક્ષાત્ થઈને (रुचा रुचा) પોતાની પ્રત્યેક દીપ્તધારા અથવા પ્રત્યેક રુચિર ધારાથી અથવા અમૃતધારાથી (विश्वा वसूनि आविश) મુક્ત ઉપાસકનાં સમસ્ત વાસસ્થાનોના હૃદય, મન, ઇન્દ્રિયોને આવિષ્ટ થઈ જા-એમાં તારું આધાન, ધ્યાન, ચર્ચા, ભાન થાય. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे सूर्य प्रकाशाने सर्व ग्रहोपग्रह प्रकाशित होतात, तसेच परमेश्वराद्वारे प्रकाशित होणारे मन, बुद्धी, चक्षू इत्यादी ज्ञानाचे ग्राहक असतात. ॥२॥
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