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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 909
ऋषिः - सुतंभर आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ के꣣तुं꣡ प्र꣢थ꣣मं꣢ पु꣣रो꣡हि꣢तम꣣ग्निं꣡ न꣢꣯रस्त्रिषध꣣स्थे꣡ समि꣢꣯न्धते । इ꣡न्द्रे꣢ण दे꣣वैः꣢ स꣣र꣢थ꣣ꣳस꣢ ब꣣र्हि꣢षि꣣ सी꣢द꣣न्नि꣡ होता꣢꣯ य꣣ज꣡था꣢य सु꣣क्र꣡तुः꣢ ॥९०९॥
स्वर सहित पद पाठय꣡ज्ञ꣢स्य । के꣣तु꣢म् । प्रथ꣣म꣢म् । पु꣣रो꣡हि꣢तम् । पु꣣रः꣢ । हि꣣तम् । अग्नि꣢म् । न꣡रः꣢꣯ । त्रि꣣षधस्थे꣢ । त्रि꣣ । सधस्थे꣢ । सम् । इ꣡न्धते । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । दे꣣वैः꣢ । स꣣र꣡थ꣢म् । स꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । सः । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । सी꣡द꣢꣯त् । नि । हो꣡ता꣢꣯ । य꣣ज꣡था꣢य । सु꣣क्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्रतुः ॥९०९॥१
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समिन्धते । इन्द्रेण देवैः सरथꣳस बर्हिषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रतुः ॥९०९॥
स्वर रहित पद पाठ
यज्ञस्य । केतुम् । प्रथमम् । पुरोहितम् । पुरः । हितम् । अग्निम् । नरः । त्रिषधस्थे । त्रि । सधस्थे । सम् । इन्धते । इन्द्रेण । देवैः । सरथम् । स । रथम् । सः । बर्हिषि । सीदत् । नि । होता । यजथाय । सुक्रतुः । सु । क्रतुः ॥९०९॥१
सामवेद - मन्त्र संख्या : 909
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर परमात्मा का ही विषय वर्णित है।
पदार्थ
(यज्ञस्य) अध्यात्म यज्ञ के (केतुम्) ध्वज के समान स्थित अथवा प्रज्ञापक, (प्रथमम्) मुख्य, (पुरोहितम्) सम्मुख निहित (अग्निम्) तेजस्वी परमेश्वर को (नरः) उपासक मनुष्य (त्रिषधस्थे) ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीनों जहाँ एक साथ स्थित होते हैं, उस जीवात्मा में (समिन्धते) भली-भाँति प्रदीप्त करते हैं। (इन्द्रेण) जीवात्मा तथा (देवैः) मन, बुद्धि, प्राण एवं इन्द्रिय रूप देवों के साथ (सरथम्) शरीररूप समान रथ में स्थित, अथवा (इन्द्रेण) सूर्य तथा (देवैः) वायु, जल, पृथिवी,मङ्गल, बुध, चन्द्र नक्षत्र आदि देवों के साथ (सरथम्) ब्रह्माण्डरूप समान रथ में स्थित (सः) वह (होता) सुख आदि का दाता, (सुक्रतुः) शुभ प्रज्ञावाला तथा शुभ कर्मोंवाला अग्नि नामक परमेश्वर (यजथाय) देह में सब इन्द्रिय आदि में और बाहर सब सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि में सामञ्जस्य करने के लिए (बर्हिषि) शरीर-यज्ञ वा ब्रह्माण्ड-यज्ञ में (निषीदत्) बैठा हुआ है ॥३॥
भावार्थ
अपने अन्तरात्मा में महान् परमात्मा-रूप अग्नि को भली-भाँति प्रदीप्त करके उपासना-यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए ॥३॥
पदार्थ
(नरः) मुमुक्षु उपासकजन*53 (यज्ञस्य केतुम्) अध्यात्मयज्ञ के प्रज्ञापक—साधनाधार (प्रथमं पुरोहितम्-अग्निम्) प्रमुख पुरोहितरूप—प्रथम से धारण करने वाले ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा को (त्रिषधस्थे समिन्धते) तीन सहयोग—समागम-स्थान—विषयप्रसङ्ग स्तुति प्रार्थना उपासना में सम्यक् प्रदीप्त करते हैं (इन्द्रेण देवैः) आत्मा और इन्द्रियों के साथ आत्मा द्वारा समर्पण, मन से मनन, इन्द्रियों से श्रवण, स्तवन आदि करके (यजथाय) अध्यात्मयज्ञ करने के लिए (सुक्रतुः-होता सः) यथार्थ यजन क्रिया करने वाला ऋत्विक् बना वह परमात्मा (सरथं बर्हिषि निषीदत्) समान रमणस्थान*54 हृदयावकाश*55 में बैठ जाता है॥३॥
टिप्पणी
[*53. “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९]।] [*54. सप्तमीस्थाने द्वितीया व्यत्ययेन।] [*55. “बर्हिः-अन्तरिक्षम्” [निघं॰ १.३]।]
विशेष
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विषय
त्रिपुटी में प्रभु का ध्यान
पदार्थ
(नरः) = [नृ नये] अपने को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले लोग (त्रिषधस्थे) = [त्रि+सधस्थ] तीन प्राणों के एकत्र होने के प्रदेश त्रिपुटी में अथवा इडा, पिंगला व सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियों के सहस्थान में उस प्रभु को (सन्धिते) = दीप्त करते हैं जो १. (यज्ञस्य केतुम्) = यज्ञों के प्रज्ञापक हैं, जिन्होंने वेदवाणी में सब यज्ञों का प्रतिपादन किया है, २. (प्रथमं पुरोहितम्) = सर्वश्रेष्ठ हित के आधायक हैं [पुर: हितं] अथवा सर्वमुख्य यज्ञ के संस्थापक हैं, सृष्टियज्ञ के रचनेवाले प्रभु ही तो हैं, (अग्निम्) = अग्रणी हैं । यहाँ त्रिषधस्थे का अर्थ 'जीव और परमात्मा के इकट्ठे बैठने के तीन स्थान' भी लिया जा 'वाणी' नामजपन सकता है। उनमें १. 'ब्रह्मरन्ध्र' ध्यान के लिए, २. 'हृदय' उपासना के लिए और ३. के लिए है।
(सः) = वह प्रभु जब इन त्रिषधस्थों में समिद्ध होते हैं तब (इन्द्रेण) = जीवात्मा के साथ (देवैः) = दिव्य गुणों के द्वारा (सरथम्) = शरीररूप समान रथ में (बर्हिषि) = जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है उस पवित्र बर्हि नामक हृदय में (नि सदत्) = निषण्ण होते हैं, अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र, हृदय व वाणी में प्रभु के साथ जब जीव एक स्थान में स्थित होता है तब वह जितेन्द्रिय बनता है [इन्द्र], वह दिव्य गुणोंवाला होता है, [देवै:] और उसके हृदय में प्रभु आसीन होते हैं।
ये प्रभु ही वस्तुत: इस सुतम्भर के (होता) = यज्ञों को चलानेवाले होते हैं और वे प्रभु ही (यजथाय) = सब उत्तम यज्ञों के (सुक्रतुः) = उत्तम प्रज्ञान, कर्म व सङ्कल्पों को प्राप्त करानेवाले होते हैं । एवं, सुतम्भर से किये जाते हुए सब यज्ञ वस्तुतः उस प्रभु से सम्पादित हो रहे होते हैं ।
भावार्थ
'प्रभु ही होता है, हम सब तो प्रभु की क्रीड़ा में निमित्तमात्र हो जाते हैं, इस भावना को जगाना ही सच्चा सुतम्भर बनना है ।
विषय
missing
भावार्थ
(नरः) विद्वान् लोग (यज्ञस्य) देवपूजा एवं संगति आदि धर्मकार्य के (केतुं) बतलाने वाले, (प्रथमं पुरोहितं) सब से प्रथम, साक्षीरूप से स्थित परमेश्वर को (त्रि-सधस्थे) तीन प्राणों के एकत्र होने के प्रदेश त्रिपुटी में (समिन्धते) प्रज्वलित करते हैं। (सः) वह (बर्हिषे) इस जीवन यज्ञसे सम्पन्न, बराबर वृद्धि को प्राप्त, ज्ञान और जीवन रूप यज्ञ में (इन्द्रेण) इस आत्मा और (देवैः) इन्द्रियों के साथ (होता) सबको अपनी ओर बुलालेने हारा, सब सुखों का दाता (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञान और कर्म करने हारा, सबका रचयिता परमात्मा (यजथाय) यज्ञ सम्पादन या आनन्द प्रदान करने के लिये (सरथं) समान रूप से रमण करने योग्य हृदय-देश में (नि सीदन्) विराजमान होता है। आधिदैविक पक्ष में—इन्द्र=महान् विद्युत् और देव=अन्य पंचभूत और बर्हिः=अन्तरिक्ष, यजथ=ब्रह्माण्ड रूप यज्ञ।
टिप्पणी
‘समीधिरे’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमात्मविषयो वर्ण्यते।
पदार्थः
(यज्ञस्य) अध्यात्मयज्ञस्य (केतुम्) ध्वजवत् स्थितम् प्रज्ञापकं वा, (प्रथमम्) मुख्यम्, (पुरोहितम्) सम्मुखे निहितम् (अग्निम्) तेजस्विनं परमेश्वरम् (नरः) उपासकाः मनुष्याः (त्रिषधस्थे) त्रीणि ज्ञानकर्मोपासनानि सह तिष्ठन्ति यत्र तस्मिन् जीवात्मनि (समिन्धते) सम्यक् प्रदीपयन्ति। (इन्द्रेण) जीवात्मना (देवैः) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियैः सह (सरथम्) समाने देहरथे स्थितः, यद्वा (इन्द्रेण) सूर्येण (देवैः) वायुजलपृथिवीमङ्गलबुधचन्द्रनक्षत्रादिभिः सह(सरथम्) एकस्मिन् ब्रह्माण्डरथे स्थितः (सः) असौ (होता) सुखादीनां दाता, (सुक्रतुः) सुप्रज्ञः सुकर्मा वा अग्निः परमेश्वरः (यजथाय) देहे सर्वेषामिन्द्रियादीनां बहिश्च सर्वेषां सूर्यचन्द्रपृथिव्यादीनां सङ्गमनाय (बर्हिषि) देहयज्ञे ब्रह्माण्डयज्ञे वा (निषीदत्) निषीदति ॥३॥२
भावार्थः
स्वान्तरात्मनि महान्तं परमात्माग्निं सम्यक् प्रदीप्योपासनायज्ञोऽनुष्ठातव्यः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।११।२, ‘समिन्धते’ इत्यत्र ‘समी॑धिरे’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वद्विषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
The learned enkindle in His threefold seat God, the Preacher of sacrifice and Foremost Existent. He, the Bestower of all pleasures, Creator of all, manifests Himself in our life’s sacrifice in the heart along with soul and organs.
Translator Comment
Threefold seat may mean Ida, Pingla, Sushumna, the three arteries, or Jagrit, Swapan, Sushupti states of the soul.
Meaning
Agni is the leader, mark of the science of yajna, first high priest in the process, which the leading lights among people kindle and establish in three stages of life in three departments of the acquisition of knowledge, observance of Dharma and performance of karma, in three regions of earth, sky and the solar sphere. And Agni takes the prime seat on the grass on the vedi with Indra, power, devas, divine givers of nature, as it comes with its chariot which carries it with fragrance to all regions. It is the sanctifier for yajnic initiation, conduct and congregation, and it is the very light, beauty and grace of the holy project. (Rg. 5-11-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (नरः) મુમુક્ષુ ઉપાસકજન ! (यज्ञस्य केतुम्) અધ્યાત્મયજ્ઞના પ્રજ્ઞાપક-સાધનાધાર (प्रथमं पुरोहितम् अग्निम्) પ્રથમ પુરોહિત રૂપ-પ્રથમથી ધારણ કરનાર જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્માને (त्रिषधस्थे समिन्धते) ત્રણ સહયોગ-સમાગમ-સ્થાન-વિષય પ્રસંગ સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનામાં સમ્યક્ પ્રદીપ્ત કરે છે. (इन्द्रेण देवैः) આત્મા અને ઇન્દ્રિયોની સાથે આત્મા દ્વારા સમર્પણ, મનથી મનન, ઇન્દ્રિયોથી શ્રવણ, સ્તવન આદિ કરીને (यजथाय) અધ્યાત્મયજ્ઞ કરવાને માટે (सुक्रतुः होता सः) યથાર્થ યજન ક્રિયા કરનાર ઋત્વિક બનેલ તે પરમાત્મા (सरथं बर्हिषि निषीदत्) સમાન રમણસ્થાન હૃદયાવકાશમાં બેસી જાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
आपल्या अंतरात्म्यात महान परमात्म-रूपी अग्नीला चांगल्या प्रकारे प्रदीप्त करून उपासना-यज्ञाचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥३॥
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