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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 910
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    अ꣣यं꣡ वां꣢ मित्रावरुणा सु꣣तः꣡ सोम꣢꣯ ऋतावृधा । म꣢꣫मेदि꣣ह꣡ श्रु꣢त꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥९१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣य꣢म् । वा꣣म् । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । सुतः꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । ऋ꣣तावृधा । ऋत । वृधा । म꣡म꣢꣯ । इत् । इ꣣ह꣢ । श्रु꣣तम् ह꣡व꣢꣯म् ॥९१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा । ममेदिह श्रुतꣳ हवम् ॥९१०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । वाम् । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । सुतः । सोमः । ऋतावृधा । ऋत । वृधा । मम । इत् । इह । श्रुतम् हवम् ॥९१०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 910
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा में आत्मा और मन तथा राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री का विषय कहते हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—आत्मा और मन के पक्ष में। हे (ऋतावृधा) सत्य को बढ़ानेवाले (मित्रावरुणा) आत्मा और मन ! (वाम्) तुम दोनों के लिए (अयम्) यह (सोमः) ज्ञान एवं कर्म का रस (सुतः) अभिषुत है। तुम दोनों (इह) यहाँ (मम) मेरे (हवम्) उद्बोधन को (श्रुतम्) सुनो ॥ द्वितीय—राजा और प्रधानमन्त्री के पक्ष में। हे (ऋतावृधा) न्याय को बढ़ानेवाले (मित्रावरुणा) राजा और प्रधानमन्त्री ! (वाम्) तुम दोनों के लिए (अयम्) यह (सोमः) राजकर (सुतः) अर्पित है। तुम दोनों (इह) इस राष्ट्र में (मम) मेरे (हवम्) राष्ट्रोन्नति के आह्वान को (श्रुतम्) सुनो ॥१॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि अपने आत्मा और मन को उद्बोधन देकर सब प्रकार का उत्कर्ष सिद्ध करें। इसीप्रकार राजा और प्रधानमन्त्री का कर्तव्य है कि वे प्रजाओं से राजकर लेकर प्रजा के हित के लिए उसे व्यय करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (ऋतावृधा मित्रावरुणा) हे मेरे अन्दर सच्चा सुख और अमृत के वर्धक संसार में प्रेरक और मोक्ष में वरणकर्ता दोनों धर्मयुक्त परमात्मन्! (वाम्) तुम्हारे—तेरे लिए (अयं सोमः सुतः) यह उपासनारस तैयार है (इह) इस अध्यात्मयज्ञ में (मम हवम्) मेरी भेंट—उपासनारस को (इत्-श्रुतम्) अवश्य सुनो—स्वीकार करो—करते हो॥१॥

    टिप्पणी

    [*56. “गृत्समदो गृत्समदनः, गृत्स इति मेधाविनाम गृणातेः स्तुतिकर्मणः” [निरु॰ ९.५]।]

    विशेष

    ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी हर्षालु या स्तोता हर्षालु*56)॥ देवता—मित्रावरुणौ (प्रेरक एवं वरणकर्ता परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    पति-पत्नी

    पदार्थ

    घर में पति-पत्नी, शरीर में मित्रावरुण के समान ही हैं । आचार्य [ऋ० ७.४३.५] मित्रावरुणौ का अर्थ ‘प्राणोदानौ इव स्त्रीपुरुषौ' करते हैं । यद्यपि ‘प्राणवायु सबसे मुख्य है और घर में पति की प्रधानता है, तथापि ‘उदानः कण्ठदेशे स्यात्' उदानवायु का स्थान कण्ठ है और घर के कण्ठ में पत्नी स्थित है, उसके बिना घर-घर ही नहीं रह जाता ।' प्रभु इन मित्रावरुणौ से - पति-पत्नी से कहते हैं कि

    हे (ऋतावृधा) = ऋत=नियमितता के द्वारा अपने जीवन में वृद्धि करनेवाले (मित्रावरुणा) = पतिपत्नि ! (अयं सोमः) = यह सोम-वीर्यशक्ति (वाम्) = तुम्हारे लिए ही (सुतः) = उत्पन्न की गयी है । तुम्हें इसके द्वारा अपने जीवन को बड़ा सुन्दर बनाना है । तुम दोनों (इत्) = निश्चय ही (इह) = अपने इस जीवन में (मम हवम्) = मेरी पुकार को–वेद में दिये गये मेरे आदेश को=(श्रुतम्) = सुनो । अपने जीवन को वेद में दिये गये आदेशों के अनुसार बनाओ ।

    मन्त्रार्थ से निम्न बातें स्पष्ट हैं – १. पति प्राण है, पत्नी कण्ठदेश में स्थित उदान के समान है दोनों ही घर के निर्माण के लिए आवश्यक हैं । २. इन्हें अपने जीवन में ऋत= 1 =नियमितता को महत्त्व देना है, उसी से घर की वृद्धि होती है । ३. दोनों ने सोम की रक्षा करते हुए चलना है, उसका अपव्यय नहीं करना । सोम जीवन की अमूल्य वस्तु है । ४. इन्हें वेदानुसार जीवन बिताने का प्रयत्न करना है।

    भावार्थ

     पति-पत्नी का जीवन वेद के आदेशों के अनुसार बीते । वेद के मुख्य आदेश तीन हैं – १. गृत्स बनो [गृणाति] = प्रभु-स्तवन करो, २. मद - [माद्यति] सदा प्रसन्न रहो, ३. शौनक [शुन गतौ] गतिशील बनो । प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि का नाम 'गृत्समद शौनक' ही है ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण, प्राण और उदान के समान अध्यापक और शिष्य ! (ऋतावृधौ) सत्य ज्ञान और जीवन को बढ़ाने वाले (वां) आप दोनों के लिये (अयं) यह (सोमः) ओषधियों का रस, या जीवन का रस, या ज्ञान (सुतः) तैयार है। (मम इत्) मेरा ही (हवं) आह्वान, आदेश (श्रुतम्) आप लोग श्रवण करो। जिस प्रकार प्राण और उदान सब रस ग्रहण करके जीवन को बढ़ाते हैं, उसी प्रकार सत्यज्ञान के वर्धक अध्यापक और शिष्य भी ज्ञान का रस लेते हैं। उनके प्रति सब लोग अपना प्रेम प्रकट करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ आत्ममनसोर्नृपतिप्रधानमन्त्रिणोश्च विषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—आत्ममनःपक्षे। हे (ऋतावृधा) सत्यस्य वर्धकौ (मित्रावरुणा) आत्ममनसी। (वाम्) युवाभ्याम् (अयम्) एषः (सोमः) ज्ञानकर्मरसः (सुतः) अभिषुतः अस्ति। युवाम् (इह) अत्र (मम) मदीयम् (हवम्) उद्बोधनम् (श्रुतम्) शृणुतम् [श्रु श्रवणे भ्वादिः। ‘बहुलं छन्दसि’। अ० २।४।७३ इति शपो लुकि ‘श्रुवः शृ च’। अ ३।१।७४ इति न प्रवर्तते] ॥ द्वितीयः—नृपतिप्रधानमन्त्रिपक्षे। हे (ऋतावृधा) न्यायस्य वर्धकौ (मित्रावरुणा) नृपतिप्रधानमन्त्रिणौ२ ! (वाम्) युवाभ्याम् (अयम्) एषः (सोमः) राजकरः (सुतः) अर्पितः अस्ति। युवाम् (इह) राष्ट्रे (मम) मदीयम् (हवम्) राष्ट्रोन्नतेः आह्वानम् (श्रुतम्) शृणुतम् ॥१॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः स्वकीये आत्ममनसी उद्बोध्य सर्वविधः समुत्कर्षः। नृपतिप्रधानामात्ययोश्च कर्तव्यमस्ति यत् तौ प्रजाभ्यो राजकरं गृहीत्वा प्रजाहिताय तस्य व्ययं कुर्याताम् ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० २।४१।४। २. मित्रवरुणा प्राणोदानवद् राजप्रधानामात्यौ इति ऋ० ४।३९।५ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् अध्यापकाध्येतृविषये व्याचष्टे।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye teacher and pupil, advancers of truth, this knowledge is meant for Ye. Hence listen here to my call.

    Translator Comment

    Here means in this world. May refers to a King.

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    Meaning

    O Mitra and Varuna, dear as breath of life and soothing as morning mist, eminent in dedication to truth and law, the soma of life is distilled and prepared for you. Listen to this call and invitation of mine and come here and now. (Rg. 2-41-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ऋतावृधा मित्रावरुणा) હે મારી અંદર સાચું સુખ અને અમૃતના વર્ધક, સંસારમાં પ્રેરક અને મોક્ષમાં વરણકર્તા બન્ને ધર્મયુક્ત પરમાત્મન્ ! (वाम्) તમારા-તારા માટે (अयं सोमः सुतः) એ ઉપાસનારસ તૈયાર છે (इह) એ અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (मम हवम्) મારી ભેટ-ઉપાસનારસને (इत् श्रुतम्) અવશ્ય સાંભળો-સ્વીકાર કરો-કરો છો. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी आपले मन व आत्म्याला उद्बोधन करून सर्व प्रकारचा उत्कर्ष करून घ्यावा. त्याच प्रकारे राजा व प्रधानमंत्री यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी प्रजेकडून कर घेऊन प्रजेच्या हितासाठी त्याचा व्यय करावा. ॥१॥

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