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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 921
ऋषिः - दृढच्युत आगस्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢मान धि꣣या꣢ हि꣣तो꣡३ऽभि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् । ध꣡र्म꣢णा वा꣣यु꣢मारु꣢꣯हः ॥९२१॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मान । धि꣣या꣢ । हि꣣तः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । ध꣡र्म꣢꣯णा । वा꣣यु꣢म् । आ । अ꣣रुहः ॥९२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान धिया हितो३ऽभि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमारुहः ॥९२१॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमान । धिया । हितः । अभि । योनिम् । कनिक्रदत् । धर्मणा । वायुम् । आ । अरुहः ॥९२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 921
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
हे (पवमान) चित्तशोधक आचार्य ! (धिया) प्रज्ञा और कर्म से (हितः) शिष्यों के हितकारी आप (योनिम् अभि) यम-नियम आदियों के आश्रय शिष्यवर्ग के प्रति (कनिक्रदत्) शास्त्रों का उपदेश करते हुए (धर्मणा)धर्म से (वायुम्) प्रगतिशील शिष्यवर्ग को (आरुहः) परम उन्नति की सीढ़ी पर चढ़ा देते हो ॥३॥
भावार्थ
आचार्य विद्या आदि के दान से शिष्यों का बहुत उपकार करते हैं, अतः शिष्यों को चाहिए कि मन, वचन, कर्म से उनका सम्मान करें और दूसरों को विद्या आदि देकर उनका ऋण चुकायें ॥३॥
पदार्थ
(पवमान) हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मन्! (धिया हितः) ध्यान धारणा द्वारा धारा ध्याया हुआ (योनिं कनिक्रदत्) मिलने वाले—मिलने-समागम के पात्र उपासक को क्लयाणप्रवचन करता हुआ*67 (धर्मणा वायुम्-आरुहः) मोक्षधर्म के हेतु आयु को*68 ऊपर आरोपित कर॥३॥
टिप्पणी
[*67. “कनिक्रदत् प्रब्रुवाणः” [निरु॰ ९.३]।] [*68. “आयुर्वा एष यद् वायुः” [ऐ॰ आ॰ २.४.३]।]
विशेष
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विषय
उन्नति के पथ पर
पदार्थ
१. हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम! तू (धिया) = प्रज्ञानों व कर्मों के द्वारा (हितः) = शरीर में स्थापित किया हुआ है। सोम को शरीर में सुरक्षित करने और वासनाओं से बचने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य ज्ञानोपार्जन में लगा रहे तथा कर्मशील बना रहे । २. यह सोम का रक्षक (योनिम्-अभि) = मूलस्थान परमेश्वर को लक्ष्य करके (कनिक्रदत्) = निरन्तर स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है। सोम का रक्षक उस महान् सोम को क्यों न प्राप्त करेगा, ३. हे सोम ! (धर्मणा) = अपनी धारक शक्ति से तू (वायुम्) = इस क्रियाशील आत्मा को (आरुहः) = [आरोहय] उन्नति -पथ पर आरूढ़ कर । सोम का रक्षक अपना धारण तो करता ही है, यह सदा धारणात्मक कर्मों में लगा रहता है ।
भावार्थ
सोम से बुद्धि व कर्मशक्ति बढ़ती है, मनुष्य प्रभु-प्रवण बनता है और धारक कर्मों में प्रवृत्त होकर उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयं वर्णयति।
पदार्थः
हे (पवमान) चित्तशोधक आचार्य ! (धिया) प्रज्ञया कर्मणा च (हितः) शिष्याणां हितकरः (त्वम् योनिम् अभि) यमनियमादीनामाश्रयभूतं शिष्यवर्गं प्रति (कनिक्रदत्) शास्त्राणि उपदिशन् (धर्मणा) धर्मेण (वायुम्) प्रगतिशीलं शिष्यवर्गम् (आरुहः) परमोत्कर्षसोपानम् आरोहयसि। [आङ्पूर्वाद् रुहेर्णिज्गर्भाल्लडर्थे लङि रूपम्] ॥३॥
भावार्थः
आचार्यो विद्यादिदानेन शिष्याणां महदुपकरोतीति स शिष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा च सम्माननीयः, परेभ्यो विद्यादिदानेन च तदीयमृणं प्रतियातनीयम् ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।२५।२, ‘धर्म॑णा वा॒युमा वि॑श’ इति तृतीयः पादः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, with the force of meditation, residing in the basic place, the heart, singing the praise of God, control thy breath with full exertion.
Meaning
O lord of purity and power, let your presence concentrated by senses and mind in awareness, speaking aloud in the heart and soul, abide in the pranic and intelligential vitality of the soul with living consciousness of divine law and virtues of holy life and thus purify and sanctify us. (Rg. 9-25-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पवमान) હે આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મન્ ! (धिया हितः) ધારણા, ધ્યાન દ્વારા ધારેલ, ધ્યાન કરેલ (योनिं कनिक्रदत्) મળનાર-મળવા-સમાગમને પાત્ર ઉપાસકને કલ્યાણ પ્રવચન કરતાં (धर्मणा वायुम् आरुहः) મોક્ષધર્મને માટે આયુને ઉપર આરોપિત કર. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
आचार्य विद्या इत्यादी दानाने शिष्यांवर अत्यंत उपकार करतात. त्यासाठी शिष्यांनी मन, वचन, कर्मांनी त्यांचा सन्मान करावा व इतरांना विद्या देऊन त्यांचे ऋण फेडावे. ॥३॥
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