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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 98
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    2

    प्र꣡ होत्रे꣢꣯ पू꣣र्व्यं꣢꣫ वचो꣣ऽग्न꣡ये꣢ भरता बृ꣣ह꣢त् । वि꣣पां꣡ ज्योती꣢꣯ꣳषि꣣ बि꣡भ्र꣢ते꣣ न꣢ वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । हो꣡त्रे꣢꣯ । पू꣣र्व्य꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । भ꣣रत । बृह꣢त् । वि꣣पा꣢म् । ज्यो꣡तीँ꣢꣯षि꣣ । बि꣡भ्र꣢꣯ते । न । वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र होत्रे पूर्व्यं वचोऽग्नये भरता बृहत् । विपां ज्योतीꣳषि बिभ्रते न वेधसे ॥९८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । होत्रे । पूर्व्यम् । वचः । अग्नये । भरत । बृहत् । विपाम् । ज्योतीँषि । बिभ्रते । न । वेधसे ॥९८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 98
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमेश्वर की आराधना करने की प्रेरणा दी गयी है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (विपाम्) मेधावी छात्रों के (ज्योतींषि) विद्या-तेजों को (बिभ्रते) परिपुष्ट करनेवाले, (वेधसे न) द्विज बनाने के लिए द्वितीय जन्म देनेवाले आचार्य के लिए जैसे स्तुति-वचन उच्चारण किये जाते हैं, वैसे ही (विपाम्) व्याप्त सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र आदि के (ज्योतींषि) तेजों को (बिभ्रते) परिपुष्ट करनेवाले (वेधसे) जगद्-विधाता, (होत्रे) सुख-समृद्धि-प्रदाता (अग्नये) तेजस्वी परमेश्वर के लिए (बृहत्) महान् (पूर्व्यम्) श्रेष्ठ (वचः) वेद के स्तोत्र को (प्र भरत) प्रकृष्ट रूप से उच्चारण करो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे कोई विद्वान् शिक्षक अपने उपदेश और शिक्षा से बुद्धिमान् विद्यार्थियों को विद्या-तेज प्रदान करता है, वैसे ही जो परमेश्वर सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र, बिजली आदिकों को ज्योति देता है, उस परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर में सबको श्रद्धा करनी चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (न) अब*13 (विपाम्) मेधावी विद्वानों की (ज्योतींषि) ज्योतियों—ज्ञानरश्मियों के (बिभ्रते) धारक पोषक—(वेधसे) विधाता—(होत्रे) दाता-मोक्षदाता—(अग्नये) ज्ञानप्रकाशक परमात्मा के लिये (पूर्व्यं वचः) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ—पूर्णश्रेष्ठ मन्त्रवचनों में नामों से भी श्रेष्ठ स्तुतिवचन—ओ३म् को (बृहत् प्रभरत) हे उपासको! बहुत-बहुत भेंट करो।

    भावार्थ

    विधाता ज्ञानप्रकाशक परमात्मा विद्वानों—आरम्भकालीन या सृष्टि के प्रारम्भ में होने वाले ऋषियों के लिये ज्ञानरश्मियाँ धारण करता है और प्रदान करता है वह ही बड़े बड़े ज्ञानियों का ज्ञानदाता गुरु है, जैसे कहा है “पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” [योग॰ १.२६] उस ऐसे महान् परम गुरु की श्रेष्ठसद्भाव से स्तुति स्तवन और श्रेष्ठ नाम ओ३म् का जप करना चाहिये॥२॥

    टिप्पणी

    [*13. वक्तव्य— “न वेधसे” में ‘न’ यह शब्द ‘वेधसे’ की उपमा नहीं हैं क्योंकि उपमावाचक शब्द अपने से पूर्व की उपमा देता है जैसे ‘इव’ शब्द ‘गौरिव गवयः’ गौ की भाँति नील गौ।‘सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान’ (ऋ॰ १०.१७८.३) “गा इव तस्थिमे॰” (ऋ॰ ९.११२.६) ऐसे ही ‘न’ शब्द उपमार्थ अपने से पूर्व की उपमा देता है यास्क निरुक्तकार ने कहा भी है “उपरिष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते” (नि॰ १.४) अर्थात् ‘न’ उपमार्थ आगे प्रयुक्त होता है जिससे उपमा दी जाती है, जैसे— “मृगो न भीमः” (ऋ॰ १.१५४.२, १०.१८०.२) इस पर “मृग इव भीमः” (निरु॰ १.२०) मृग के समान भयङ्कर “स्वपनमेतन्माध्यमिकं ज्योतिरनित्यदर्शनं तदिवाविदज्जाज्वल्यमानम्” (निरु॰ ५.३) “मृगमिव व्रा मृगयन्ते” (ऋ॰ ८.२.६) इस पर “मृगमिव व्रात्याः प्रैषाः” (निरु॰ ५.४) तथा “समुद्रं न संवरणान्यगमन्” (ऋ॰ ९.१०७.९) “शूरो न मित्रावरुणा” (ऋ॰ ५.६३.५) “मनो न येषु हवनेषु” (ऋ॰ १०.६१.३) “अग्निं मित्रं न दर्शितम्” (ऋ॰ १.३८.१३) इस प्रकार उपमार्थ ‘न’ शब्द जिसकी उपमा देता है उसके आगे प्रयुक्त होता है। अतः “न वेधसे” (सा॰ १.११.२) में ‘वेधसे’ की उपमा में नहीं है। तब यहाँ सामवेद के उपासनापरक होने से “वेधसे” की उपमा न होकर आध्यात्मिक विधान के सम्प्रति प्रदर्शनार्थ है जैसे वेद में अन्यत्र भी अध्यात्म विधान के सम्प्रति प्रदर्शनार्थ प्रयुक्त है— “भागं न दीधिम” (ऋ॰ ८.९९.३) इस पर “वयं भागमनुध्यायाम” (निरु॰ ६.८) यहाँ यास्क ने ‘न’ को अनु— अब फिर अर्थ में देखा है।]

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र तथा सब जिसके मित्र हों ऐसा उपासक)॥<br>

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    विषय

    उसी का जप

    पदार्थ

    इस मन्त्र का मुख्य वाक्य यह है कि उसी के लिए (वचः)=स्तुतिवचन का प्(र-भरत)=प्रकर्षेण सम्पादन करो। यह स्तुतिवचन ही (पूर्व्यम्) - पूरण तथा पालन करनेवाला होगा [पृ पालनपूरणयोः] तथा बृहत्-तुम्हारी वृद्धि का कारण बनेगा [बृहि वृद्धौ]। जब मनुष्य प्रभु के गुणों का गान करता है तो उन गुणों में प्रीति होकर वह अपने भक्तिभाजन के अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है। यह प्रभु का स्मरण उसे अशुभ बातों की ओर जाने से बचाकर उसका पालन भी करता है। प्रभु के नाम का स्मरण वासना का विनाश करता है। यह नाम स्मरण अहंकार आदि सभी भावनाओं को समाप्त करने के कारण पूर्व्यम् है। यह हमें आत्मस्वरूप का स्मरण करा उत्थान की ओर ले चलने के कारण 'बृहत्' भी है।

    ‘हम उस प्रभु का किस रूप में स्मरण करें?' इसका उत्तर मन्त्र में (‘होत्रे'), ('अग्नये'),( ‘विपां ज्योतींषि बिभ्रते न') तथा ('वेधसे') = इन शब्दो के द्वारा दिया गया है। वे प्रभु होता हैं [हु दाने] देनेवाले हैं। जैसे माता अपने लिए कुछ भी न बचाती हुई सब कुछ बच्चों को देकर प्रसन्न होती है, उसी प्रकार यह जगयननी वस्तुतः होत्री है। अपने लिए कुछ न रखकर सब-कुछ जीव के लिए दे रही है। हमें भी अपने उस महान् सखा का अनुकरण करते हुए होता बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

    'अग्नये' शब्द आगे ले चलने की भावना को व्यक्त करता है। प्रभु हमें उन्नत करते-करते मोक्ष स्थान तक पहुँचाएँगे।

    [विपां न ] =मेधावियों- जैसे लोगों के लिए (ज्योतींषि)=प्रकाश को (बिभ्रते) = धारण करते हुए प्रभु के लिए हम स्तुतिवचनों का उच्चरण करें। वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि मेधावियों को वेद का ज्ञान प्राप्त कराते हैं और उनके द्वारा गुरु-शिष्य परम्परा से हमें भी ज्ञान देते हैं। अब भी जब हम अपनी बुद्धि को परिष्कृत करते हैं तो उस हृदयस्थ प्रभु से प्रकाश पाते हैं। हमें भी प्रकाश प्राप्त कर औरों को प्रकाश देने का प्रयत्न करना चाहिए ।

    (वेधसे)=वे प्रभु (वेधा)= विधाता हैं, प्राणिमात्र का विशेषरूप से धारण कर रहे हैं। हमें भी यथासम्भव इस दिशा में प्रयत्न करना ही चाहिए।
    इस प्रकार प्रभु के लिए विशेषरूप से स्तुति - वचनों को धारण करनेवाला व्यक्ति ‘गाथिनः' कहलाता है, यह सदा उसी का गायन करता हैं। यह प्राणिमात्र में प्रभु का ध्यान करता हुआ सभी का मित्र ‘विश्वामित्र' होता है। इसका सभी के साथ स्नेह ही स्नेह होता है, यह द्वेष को अपने अन्दर नहीं आने देता।

    भावार्थ

    प्रभु के नाम का जप मनुष्य का पालन, पूरण व वृद्धि करनेवाला होता है।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे मनुष्यो ! ( होत्राय ) = होता, समस्त संसार को अपने महान् जठरानल में प्रलय काल के अवसर पर आहुति करलेने वाले, ( विपां ) = विद्वानों के ( ज्योतींषि ) = ज्ञान और ब्रह्मचर्यादि तपोयुक्त  गुणों और सूर्य, अग्नि, विद्युद् आदि प्रकाशों को ( बिभ्रते ) = धारण करनेहार ( वेधसे न१   ) = सब के विधाता के समान सब के उत्पादक ( अग्नये ) = उस ईश्वररूप अग्नि के लिये ( बृहत् वचः ) = विशाल, ज्ञानसम्पन्न व्यक्त वाणी, वेद को ( भरत ) = प्राप्त करो, उसका उपदेश कर औरों तक पहुंचाओ , अध्ययन करो, कराओ । 

    टिप्पणी

    १. वेधा जगद्विधाता परमेश्वरः आदित्यादीनि ज्योतींषि करोति इति सा० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्र: ।

    छन्दः - उष्णिक् । 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जनाः परमेश्वराराधनाय प्रेर्यन्ते।

    पदार्थः

    हे जनाः ! यूयम् (विपाम्) मेधाविनां छात्राणाम्। विपः इति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। (ज्योतींषि) विद्यातेजांसि (बिभ्रते) पुष्णते (वेधसे न२) द्विजत्वसम्पादनार्थं द्वितीयजन्मविधात्रे आचार्याय इव, यथा आचार्याय स्तुतिवचांसि उच्चार्यन्ते तथेत्यर्थः। स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीरमेव तु मातापितरौ जनयतः। आप० ध० सू० १।१।१।१६-१८ इत्यापस्तम्बस्मरणाद् आचार्यादेव द्वितीयं जन्म प्राप्य स्नातको द्विजो जायते। (विपाम्३) व्याप्तानां सूर्यचन्द्रनक्षत्रादीनाम् (ज्योतींषि) तेजांसि (बिभ्रते) पुष्णते (वेधसे) जगद्विधात्रे, (होत्रे) सुखसमृद्धिप्रदात्रे (अग्नये) तेजस्विने परमेश्वराय (बृहत्) महत् (पूर्व्यम्) श्रेष्ठम् अत्र पादार्घाभ्यां च।’ अ० ५।४।२५ इति सूत्रे परिगणितेषु स्वार्थयत्प्रत्ययीयशब्देषु पूर्वशब्दस्यापि पाठात् स्वार्थे यत् प्रत्ययः। (वचः) वेदस्तोत्रम् (प्र भरत) प्रकृष्टतया उच्चारयत। भृञ् भरणे, भौवादिकः। संहितायाम् ऋचि तुनुघमक्षु०। अ० ६।३।१३३ इति दीर्घः ॥२॥४ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा कश्चिद् विद्वान् शिक्षकः स्वोपदेशेन शिक्षया च मेधाविभ्यश्छात्रेभ्यो विद्यातेजांसि प्रयच्छति तथैव यः परमेश्वरः सूर्यचन्द्रनक्षत्रविद्युदादिभ्यो ज्योतींषि परिददाति, तस्मिन् परमैश्वर्यशालिनि जगदीश्वरे सर्वैः श्रद्धातव्यम् ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।१०।५ २. अत्र वेधसे इत्यतः पुरस्तात् प्रयुक्तोऽपि नकार उपमार्थीयो बोध्यः, बिभ्रते इति पदस्य वेधसे इत्यस्य विशेषणत्वात्। नकारः पादपूरणः—इति वि०। नेति सम्प्रत्यर्थे—इति भ०। नेत्ययं पादपूरणः अन्वयाभावात्, यद्वा वेधसे न यथा वेधाः जगद्विधाता परमेश्वरः आदित्यादीनि ज्योतींषि करोति तद्वत्—इति सा०। ३. विपां व्यातॄणाम्—इति वि०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतम् अध्यापकविद्वत्कृत्यविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O men, preach to humanity, the immemorial lofty Vedic speech, for glorifying God^ the Engulfer of the world at the time of its dissolution, the Guardian of the Knowledge, celibacy and austerity of the learned, and the Creator of all.

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    Meaning

    O wise saints and scholars, just as you offer fragrant oblations to Agni, lord ordainer of the world who wields the wide spaces and bears the lights of brilliant stars inspired with the spirit of divinity, so offer the gift of the supreme eternal voice of Divinity to the yajamana performer who bears in faith the lights of inspired sages. (Rg. 3-10-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (न) હવે (विपाम्) મેધાવી વિદ્વાનોની (ज्योतींषि) જ્ઞાન રશ્મિઓને (बिभ्रते) ધારક , પોષક (वेधसे) વિધાતા , (होत्रे) દાતા - મોક્ષદાતા , (अग्नये) જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્માને માટે (पूर्व्यंवचः) શ્રેષ્ઠોમાં શ્રેષ્ઠ , પૂર્ણ શ્રેષ્ઠ , મંત્ર વચનોમાં નામોથી પણ શ્રેષ્ઠ સ્તુતિ વચન - ઓમ્ ને (बृहत् प्रभरत) હે ઉપાસકો ! અધિકાધિક ભેટ ધરો. (૨)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : વિધાતા , જ્ઞાનપ્રકાશક પરમાત્મા વિદ્વાનો આરંભકાલીન અર્થાત્ સૃષ્ટિના પ્રારંભમાં ઉત્પન્ન ઋષિઓને માટે જ્ઞાન રશ્મિઓ ધારણ કરે છે અને પ્રદાન કરે છે , તે જ મોટા-મોટા જ્ઞાનીઓના જ્ઞાનદાતા ગુરુ છે , ("पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्" - યોગ૦ ૧.૨૬) તે એવા મહાન પરમ ગુરુની શ્રેષ્ઠ સદ્ભાવથી સ્તુતિ સ્તવન અને શ્રેષ્ઠ નામ ઓમ્'નો જપ કરવો જોઈએ. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ویدبانی کے واکیہ بھگوان کی بھینٹ کریں

    Lafzi Maana

    ہے منُشیو! (ہوترے) سب کے داتا اور (ویدھسے) جگت کے قانوُن کو بنانے والے (اگنے) پرمیشور کے لئے (پوُرویّم) سدا سے انادی کال سے آ رہے (پربھرت) سدا بھینٹ کیا کرو، (نہ) جیسے کہ (وِپام جیوتینشی) وید بانی کی جیوتیوں کو (ببھرتے وچہ) دھارن کرنے والے مہا ودوان کے لئے تعظیمی کلمات کہے جاتے ہیں، پیش کئے جاتے ہیں۔
     

    Tashree

    خوب رجھاؤ سریشٹھ پُراتن ویدبانی سے اِیشور کو،
    دُنیا کے قانوُن کا والی دیتا ہے ہر در گھر کو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा एखादा विद्वान शिक्षक आपल्या उपदेशाने व शिक्षणाने बुद्धिमान विद्यार्थ्यांना विद्या-तेज प्रदान करतो. तसेच जो परमेश्वर सूर्य-चंद्र, नक्षत्र, विद्युत इत्यादींना ज्योती देतो, त्या परमैश्वर्यवान जगदीश्वरावर सर्वांनी श्रद्धा ठेवावी ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात लोकांना परमेश्वराची आराधना करण्यासाठी प्रेरित केले आहे.

    शब्दार्थ

    हे मनुष्यहो (विपाम्) मे धावी छात्रांच्या (ज्योतींषि) विद्या तेजाला (बिभुते) परिपुष्ट करणाऱ्या आणि (वेधसेन) द्विज करणाऱ्या म्हणजे विद्यारूप दुसरा जन्म देणाऱ्या आचार्यास व्याप्त सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदींच्या (जोतिषि) तेजाला (बिभुते) परिपुष्ट करणाऱ्या (वेधसे) जगद्विधावा (होत्रक्षे) सुख-समृद्धिदाता (अग्न्ये) तेजस्वी परमेश्वरासाठी (बृहत्) महान (पूर्व्यम्) श्रेष्ठ (वचः) वेदांचे स्त्रोत (पु. भारत) प्रकृष्ट रूपाने उच्चारित करीत जा. ।। २।।

    भावार्थ

    जसे एक विद्वान शिक्षक आपल्या उपदेशाने आणि विद्या दानाने बुद्धिमान विद्यार्थ्यांना विद्यारूप तेज प्रदान करतो, त्याचप्रमाणे परमेश्वर सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, विघत आदींना ज्योती देतो. अशा त्या परमैश्वर्यवान जगदीश्वराविषयी सर्वांनी श्रद्धाभाव ठेवला पाहिजे. ।। २।।

    विशेष

    या मंत्रात शिलष्टोपमा अलंकार आहे. (विपाम्, ज्योतींषि, बिभुते वेधसे या शब्दांचे विश्लेषाद्वारे दोन अर्थ निघतात. म्हणून रिलष्टोमा।।२।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மேதாவிக்கு தேஜசுகளை செய்துகொண்டு சகத்தை நிலைக்கச்செய்பவனான ஹோதாவான அக்னிக்கு மேன்மையான பழைய மொழிகளை அளிக்கவும்.

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