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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 97
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
पु꣣रु꣡ त्वा꣢ दाशि꣣वा꣡ꣳ वो꣢चे꣣ऽरि꣡र꣢ग्ने꣣ त꣡व꣢ स्वि꣣दा꣢ । तो꣣द꣡स्ये꣢व शर꣣ण꣢꣫ आ म꣣ह꣡स्य꣢ ॥९७॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रु꣢ । त्वा꣣ । दाशिवा꣢न् । वो꣣चे । अरिः꣢ । अ꣣ग्ने । त꣡व꣢꣯ । स्वि꣣त् । आ꣢ । तो꣣द꣡स्य꣢ । इ꣣व शरणे꣢ । आ । म꣣ह꣡स्य꣢ ॥९७॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरु त्वा दाशिवाꣳ वोचेऽरिरग्ने तव स्विदा । तोदस्येव शरण आ महस्य ॥९७॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरु । त्वा । दाशिवान् । वोचे । अरिः । अग्ने । तव । स्वित् । आ । तोदस्य । इव शरणे । आ । महस्य ॥९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 97
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में मनुष्य परमात्मा को आत्म-समर्पण करता हुआ उसकी स्तुति कर रहा है।
पदार्थ
(दाशिवान्) आत्म-समर्पण किये हुए मैं (त्वा) आप परमात्मा की (पुरु) बहुत (वोचे) स्तुति करता हूँ। (अग्ने) हे तेजस्वी जगदीश्वर ! आप (अरिः) समर्थ हैं। मैं (तव स्वित्) आपका ही हूँ, अतः मेरे समीप (आ) आइए। (तोदस्य इव) अमृत-जल से परिपूर्ण कुएँ के समान (महस्य) महिमाशाली आपकी (शरणे) शरण में, मैं (आ) आया हूँ ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
हे जगत्पति ! हे परमपिता ! मैं आपका ही हूँ। आपको छोड़कर अन्यत्र कहाँ जाऊँ ! आपके ही गुण गाता हूँ, आपको ही स्वयं को समर्पित करता हूँ। स्वच्छ जल से भरे हुए कुएँ के सदृश आप अमृतमय आनन्द-रस से परिपूर्ण हैं। उस आनन्द-रस से कुछ रस की बूँदें मेरे भी हृदय में छिड़क-कर मुझे रस-सिक्त कर दीजिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥१॥
पदार्थ
(अग्ने) हे जीवन प्रगतिदाता परमात्मन्! (पुरुदाशिवान्) मैं बहुत प्रकार से अपने आत्मा का दानी—स्वात्मसमर्पी (त्वा-आ वोचे) तुझ से ही समन्तरूप से प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि (अरिः) तू ही स्वामी है “ईश्वरोऽप्यरिः” [निरु॰ ५.८] (तोदस्य-इव तव महस्य शरणे स्वित्-आ) तुझ महान् प्रेरक—आज्ञादाता गृहस्वामी के शरण में—आश्रय में भृत्य की भाँति आ पहुँचूँ, ऐसा सङ्कल्प है।
भावार्थ
हे परमात्मन्! मैं तेरे प्रति आत्मसमर्पण कर निरन्तर प्रार्थना करता हूँ कि तुझ महान् गृहस्वामी की शरण में भृत्य की भाँति मैं आजाऊँ तेरा कृपापात्र बन जाऊँ॥१॥
विशेष
छन्दः—उष्णिक् । स्वरः—ऋषभः। ऋषिः—दीर्घतमाः (आयु को चाहनेवाला—मुक्ति के जीवन को चाहनेवाला उपासक)॥ <br>
विषय
उसी की ओर
पदार्थ
गत् मन्त्र में कहा गया था कि वसु आदि में परमेश्वर का वास होता है। हम भी उन सात श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में आ सकें, इसके लिए साधनरूप तीन बातों का उल्लेख इस मन्त्र में किया गया है
१. (दाशिवान्) = [दाश् दाने] हे प्रभो! आपके प्रति समर्पण करनेवाला मैं (त्वा) = आपकी (पुरु) = बहुत (वोचे) = स्तुति करता हूँ। मैं सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते सदा आके नाम का जप करता हूँ। सदा प्रभु का स्मरण करनेवाला व्यक्ति उस शक्ति के स्रोत प्रभु को न भूलने से कर्मों का अहंकार नहीं करताल के लिए कभी व्याकुल नहीं होता उसका जीवन शान्ति से चलता है। यह दाशिवान् प्रभु का प्रिय होता है।
२. यह दाशिवान् कहता है- हे (अग्ने)-आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! तव स्(वित्) = तेरा ही (आ) = सब प्रकार से (अरि:)- मैं भक्त बनता हूँ [अरि:=moving towards; devoted to]। मैं प्रत्येक कार्य इसी दृष्टिकोण से करता हूँ कि वह मुझे तेरी ओर लानेवाला बने । संसार में सब सन्त ‘लोकहित में लगे दीखते हैं'। वस्तुतः यही तेरी ओर आने का मार्ग है। मैं अपनी आवश्यकताओं को न्यून करता हुआ अपने को परार्थ साधन के योग्य बनाता हूँ और इस प्रकार आपकी ओर बढ़ता हूँ। अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाना प्रकृति की ओर बढ़ना और आपसे दूर हटना है।
३. मैं इस मार्ग पर न जाकर (महस्य) = आदरणीय (तोदस्य इव) = प्रेरक के समान जो आप हैं, उन्हीं की (शरणे)=शरण में आता हूँ। प्रभु अपनी प्रेरणा में सदा मधुर व शान्त हैं। वे अनन्त धैर्य के साथ सदा हृदयस्थ हो जीव को उत्तम कर्मों के लिए उत्साह तथा अशुभ कर्मों के लिए चेतावनी दे रहे हैं। उन्होंने अपना सब कुछ जीव को देकर उसके लिए महान् त्याग भी किया है। इसीलिए भी वे महनीय (तोद) = त्यागवाले [sacrificer] हैं। मैं तो आपकी ही शरण में आता हूँ।
जिस दिन जीव प्राकृतिक भोगों में सुख के भ्रान्त विचार को छोड़कर प्रभु की ओर चलेगा, उसी दिन वह अपनी भ्रान्ति को भगा देने के कारण इस मन्त्र का ऋषि 'दीर्घतमा '= अन्धकार का विदारण करनेवाला' बनेगा।
भावार्थ
हम प्रभु के नाम का सतत जप करें, उसी की ओर चलें और उसी की शरण में पहुँचें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे अग्ने ! तू ( दाशिवान् ) = नाना प्रकार के पदार्थों को देने हारा ( अरि:१ ) = ईश्वर है । अतः मैं ( तव स्वित् ) = तेरी ही ( पुरु आ वोचे ) = बहुत अधिक स्तुति करता हूं। और ( महस्य ) = बड़े ( तोदस्य इव२ ) = गृहस्थ के आश्रय में सेवक के समान तेरे ही ( शरणे आ ) = शरण में आता हूं ।
टिप्पणी
९७–‘दाश्वान्' इति ऋ० ।
१. अरिरमित्र ऋच्छतेः । ईश्वरोप्यरिरेतस्मादेव निरु० ( ५ । २ । २ । ) अरिरीश्वर इति मा० वि० । सेवकः इति सा०।
२. तोद : गृहस्थ : इति मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - दीर्घतमा:।
छन्दः - उष्णिक् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्वितीयः प्रपाठकः तत्राद्ये मन्त्रे मनुष्यः परमात्मने स्वात्मानं समर्पयन् तं स्तौति।
पदार्थः
(दाशिवान्) आत्मसमर्पणं कृतवान्, अहम्। दाशृ दाने धातोर्लिटः क्वसुः। ददाशिवान् इति प्राप्ते द्वित्वाभावश्छान्दसः२। (त्वा) त्वां परमात्मानम् (पुरु) बहु (वोचे३) वच्मि, स्तौमि। हे (अग्ने) तेजोमय जगदीश्वर ! त्वम् (अरिः४) ईश्वरः, समर्थः, असि। निरुक्तमतेन गच्छत्यर्थस्य ऋच्छतेरिदं रूपम्। निरु० ५।७।३५। अहम् (तव स्वित्५) तवैव अस्मि, (आ) त्वं मत्समीपे आगच्छ। अहम् (तोदस्य६ इव) अमृतसलिलेन परिपूर्णस्य कूपस्य इव। तुद व्यथने। तुद्यते खन्यते इति तोदः कूपः। (महस्य) महिमान्वितस्य तव (शरणे) आश्रये (आ) आगतोऽस्मि। उभयत्र आ इत्यत्र उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। सेयं वैदिकी शैली ॥७ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याचष्टे—तोदः तुद्यतेः। बहु दाश्वांस्त्वाम् अभिह्वयामि। अरिः अमित्रम् ऋच्छतेः, ईश्वरोऽप्यरिरेतस्मादेव। यदन्यदेवत्या अग्नावाहुतयो हूयन्त इत्येतद् दृष्ट्वैवम् अवक्ष्यत् तोदस्येव शरण आ महस्य, तुदस्येव शरणेऽधि महतः। निरु० ५।७।३५ इति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
हे जगत्पते ! हे परमपितः ! अहं तवैवास्मि। त्वां विहाय क्वान्यत्र गच्छेयम्। तवैव गुणान् गायामि, तुभ्यमेवात्मानं समर्पये। स्वच्छसलिलेन पूर्णः कूप इव त्वम् अमृतमयेनान्दरसेन परिपूर्णोऽसि। तस्मादानन्दरसात् कतिपयान् रसबिन्दून् ममापि हृदये प्रोक्ष्य मां रससिक्तं कुरु। अहं तव शरणागतोऽस्मि ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।१५०।१, दाशिवाँ इत्यत्र दाश्वान् इति पाठः। २. चतुर्ष्वपि वेदेषु केवलमत्रैव दाशिवान् इति रूपं प्रयुक्तम्। अन्यत्र ‘दाश्वान् साह्वान् मीढ्वाँश्च।’ अ० ६।१।१२ इति निपातनात् सिद्धं दाश्वान् इत्येव रूपं प्राप्यते। ३. वच परिभाषणे धातोः वच उम्।’ अ० ७।४।२० इति अङि परतः कृत उमादेशः छन्दस्यन्यत्रापि भवति। तेन वोचे, वोचति, वोचतु, वोचेत्, वोचेय, वोचेम इत्यीदीनि रूपाणि प्रयुक्तानि दृश्यन्ते। ४. अरिः ईश्वरः—इति वि०। अर्तेः अरिः, गच्छन् अन्या देवताः, अन्यदेवताभ्य आहुतीः प्रयच्छन्—इति भ०। अरिः तवैव अर्ता सेवकोऽहम्—इति सा०। अरिः ईश्वरः—इति निरु० ५।७ भाष्ये एतन्मन्त्रव्याख्याने दुर्गस्कन्दौ। ५. स्वित् एवार्थे। तवैव दाशिवान् भवतीत्यर्थः—इति भ०। ६. तोदो गृहस्थ इति निघण्टुटीकायां देवराजयज्वा। तोदस्येव—तुन्नस्येव विदीर्णस्य कस्यचित् श्वभ्रस्य कूपस्योपरि—इति दुर्गः। तुद्यति भृत्यजनान् तैर्वा तोदमात्मन इच्छतीति गृहस्थोऽत्र तोदोऽभिप्रेतः—इति स्कन्दः। तोदशब्देनात्र गृहस्थ उच्यते। गृहस्थस्येव महस्य महतः स्वभूते शरणे गृहे यावत् किञ्चित् सर्वस्वं भवति तद्वदहमपि तव स्वभूतः—इति वि०। तोदो गृहस्थः तुद्यते परिजनैरिति, यद्वा तुदति दधाति धनानि इति। तस्य इव—महतो दातुर्गृ हे आगतो धनार्थी यथात्र स्तौति तद्वत् त्वां वोचे—इति भ०। तोदस्य शिक्षकस्य स्वामिनः—इति सा०। तोदस्येव व्यथकस्येव—इति ऋग्भाष्ये द०। ७. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Bounteous God, I highly extol Thee, as a servant serves his great master.
Meaning
Faithful and dedicated, giving in homage, I sing profusely in honour and celebration of you, and come in to you for shelter and protection, Agni, lord of light as the sun, great and glorious. (Rg. 1-150-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) જીવન પ્રગતિદાતા પરમાત્મન્ ! (पुरुदाशिवान्) હું અનેક પ્રકારથી મારા આત્માનો દાની-સ્વાત્મસમર્પી (त्वा आ वोचे) તને સમગ્ર રૂપથી પ્રાર્થના કરું છું , કારણ કે (अरिः) તું જ સ્વામી છે (तोदस्य इव तव महस्य शरणे स्वित् आ) તું મહાન પ્રેરક , આજ્ઞાદાતા , ગૃહસ્વામીના શરણમાં-આશ્રયમાં સેવકની સમાન આવી પહોંચું , એવો સંકલ્પ છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! હું તારા પ્રત્યે આત્મ સમર્પણ કરીને નિરંતર પ્રાર્થના કરું છું કે , તારા મહાન ગૃહસ્વામીનાં શરણમાં સેવકની સમાન હું આવી જાઉં , તારો કૃપાપાત્ર બની જાઉં. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
شرن تیری میں آیا
Lafzi Maana
(اگنے) سب سے آگے رہنے والے پربھُو! (داشی وان) آپ سب کے داتا ہیں (تو اُپرُو آودچے) آپ کے لئے میں سیوک بہت پرکار کے پرارتھنا وچن عرض معرُوض کہہ رہا ہوں (اری) آپ سرو آدھیش ہیں (توسِود) مین آپ کا ہی ہُوں (مہیسہ شرنے آ) آپ مہان کی شرن میں آیا ہُوں (اِوتودسیہ) جیسے سوامی کی شرن میں سیوک آتا ہے۔
Tashree
جس طرح شاگرد اپنے گورو کی اور گھر کا سیوک اپنے مالک گرہستھ خانہ دار کی آگیا میں رہتے ہیں۔ اُسی طرح بھگوان کے حُکم کو بسر و چشم ماننا چاہیے اور اُن کے گُن گان بھی کرنے چاہئیں۔
جیسے رہتا بڑے گھروں میں سیوک اور شِشیہ گوُرو چرنوں میں،
سدا رہُوں بھگوان کے گھر میں اُس کی آگیا میں وِچروں میں۔
मराठी (2)
भावार्थ
हे जगत्पती! हे परमपिता! मी तुझाच आहे. तुला सोडून इतरत्र कुठे जाऊ! तुझेच गुण गातो, तुलाच मी स्वत:ला समर्पित करतो. स्वच्छ जलाने भरलेल्या विहिरीप्रमाणे तू अमृतमय आनंद रसाने परिपूर्ण आहेस. त्या आनंद रसातून काही रसाचे थेंब माझ्या हृदयात सिंचित करून मला रस-सिक्त कर. मी तुला शरण आलेलो आहे. ॥१॥
विषय
या दशतीच्या प्रथम मंत्रात, मनुष्य वा उपासक परमेश्वराला आपल्या आत्म्याचे समर्पण करीत त्याची स्तुती करीत आहे -
शब्दार्थ
(दाशिवान्) तुझ्यापुढे आत्म समर्पण करणारा मी तुझा उपासक (त्वा) तुझी (पुरु) (वोन) अत्यंत स्तुती करीत आहे. (अग्ने) हे जगदीश्वरा, तू (अरिः) सर्व समर्थ आहेस. मी (तव स्वित्) तुझाच आहे म्हणून तू (आ) माझ्याजवळ ये (तो दस्य इव) अमृत रूप जलाने परिपूर्ण अशा विहिरीप्रमआणे (महस्य) महिमाशाली असलेल्या तुझ्या (सरणे) शरणी (आ) मी आलो आहे. (प्रभो, मला आश्रमात घे)।।१।। या मंत्रात उपमा अलंकार आहे (वोदस्य इव)
भावार्थ
हे जगत्पती, हे परमपिता, मी तुझाच आहे. तुला सोडून मी अन्यत्र कुठे जाऊ. मी कुझेच गुणगान करीत आहे. स्वतःला तुझ्याचरणी समर्पित करीत आहे. तू निर्मळ पाण्याने भरलेल्या पूपाप्रमाणे अमृतमय आननंद रूसाने परिपूर्ण आहेस. त्या आनंदरसाची काही थेंब माझ्या हृदयावर शिंपडून मलादेखील रससिक्त (आनंदमय) कर. हा मी तुझ्या शरणी येत आहे, आलेलो आहे.।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
மகத்தான சிட்சகனான சுவாமிக்கு சரணமடைபவன் போல் அக்னியே! சிரத்தையுடனான உன் சேவகனான நான் வெகுகொடைகளுடன் ஈசனான உன்னை அழைக்கிறேன்.
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