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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 995
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣प्सा꣡ इन्द्रा꣢꣯य वा꣣य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । सो꣡मा꣢ अर्षन्तु꣣ वि꣡ष्ण꣢वे ॥९९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣प्साः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भयः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । अ꣣र्षन्तु । वि꣡ष्ण꣢꣯वे ॥९९५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सा इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः । सोमा अर्षन्तु विष्णवे ॥९९५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप्साः । इन्द्राय । वायवे । वरुणाय । मरुद्भयः । सोमाः । अर्षन्तु । विष्णवे ॥९९५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 995
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५०३ क्रमाङ्क पर परमात्मा और वानप्रस्थ के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ प्रकारान्तर से परमात्मा का विषय दर्शाते हैं।

    पदार्थ

    हे (सोम) जगत् के स्रष्टा परमात्मन् ! (योनौ) अन्तरिक्ष में (वनेषु) जलों में (आसीदन्) रहनेवाले, (द्युमत्तमः) देदीप्यमान, (रोरुवत्) गर्जना करते हुए बिजलीरूप अग्नि के समान, (योनौ) घर में और (वनेषु) जंगलों में, सब जगह (आसीदन्) स्थित हुए, (द्युमत्तमः) सब से बढ़कर तेजस्वी (रोरुवत्) कर्तव्य का उपदेश करनेवाले आप (द्रोणानि अभि) आत्मा, मन, बुद्धि आदि द्रोणकलशों के प्रति (अर्ष) आइए ॥१॥ यहाँ श्लेषमूलक वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    घर हो या जंगल हो, पहाड़ हो या गुफा हो, नदियाँ हों या समुद्र हो, भूमि हो या आकाश हो, बिजली हो या अन्तरिक्ष हो, शरीर हो या आत्मा हो, सभी जगह विराजमान भी जगदीश्वर जब तक ध्यान से प्रकाशित न हो जाए, तब तक प्रत्यक्ष नहीं होता ॥१॥

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    पदार्थ

    (अप्साः सोमाः) व्यापक शान्तस्वरूप परमात्मा*68 (इन्द्राय) आत्मा के लिए (वायवे) मन के लिए*69 (वरुणाय) प्राण के लिए*70 (मरुद्भ्यः) ओज वीर्य के लिए*71 (विष्णवे) श्रोत्र के लिए*72 (अर्षन्तु) प्राप्त हो, इन सब के अन्दर शान्ति का प्रवाह चले॥२॥

    टिप्पणी

    [*68. “अप्सो नाम व्यापिनः” [निरु॰ ५.१३] बहुवचनमादरार्थम्।] [*69. “मनो वायुः” [काठ॰ १३.१]।] [*70. “यः प्राणः स वरुणः” [गो॰ २.४.११]।] [*71. “ओजो वै वीर्यं मरुतः” [जै॰ ३.३०९]।] [*72. “यच्छ्रोत्रं स विष्णुः” [गो॰ २.४.१२]।]

    विशेष

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    विषय

    अविनाशक' सोम

    पदार्थ

    रेतस् जलों का ही रूप है । रेतस् ही सोम है, जो रस-रुधिरादि क्रम से शरीर में उत्पन्न होता है। सोम ही ‘अप्सा:' है, क्योंकि ये ‘अपां सारभूतो रस: ' =जलों का सारभूत रस है ।‘अप्साः' का अर्थ ‘नाश न करनेवाले' [not destroying] भी है। ये सोम ही शरीर में धारकतत्त्व है। ये (अप्साः) = अविनाशक व धारक सोमाः-सोम अर्षन्तु शरीर में ही गतिवाले हों – शरीर में ही रुधिर में व्याप्त होकर प्रवाहित हों । किसलिए - 

    १. (इन्द्राय) = इन्द्र के लिए, परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए। मानव शरीर में जो कुछ भी उत्कर्ष प्राप्त करना है, उस सबका मूल इस सोम-वीर्यशक्ति में ही है।

    २. (वायवे) = गतिशीलता के लिए [वा गतौ ] । शरीर की स्फूर्ति सोम पर ही निर्भर करती है । , ३. वरुणाय = वरुण के लिए । 'वरुणो नाम वरः • श्रेष्ठता के लिए । कामादि हीन भावनाओं के निवारण के लिए ।

    ४. (मरुद्भ्यः) = प्राणों के लिए । प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए । सोम ही तो प्राण हैं - इनके अभाव में तो मृत्यु है ।

    ५. (विष्णवे) = [विष् व्याप्तौ] व्यापकता के लिए, मनोवृत्ति को विशाल बनाने के लिए भी सोमरक्षा आवश्यक है ।

    ‘इन्द्र, वायु, वरुण, मरुत् व विष्णु' ये सब नाम उस प्रभु के हैं। उस - उस नाम से प्रभु का स्मरण अमुक-अमुक गुण के धारण के लिए ही है। इन सब गुणों का धारण सोमरक्षा पर ही निर्भर करता है। ये सोम ही 'अप्साः'=अविनाशक व धारक हैं। इन्हीं की रक्षा पर सब अविनाश अवलम्बित हैं ।

    भावार्थ

    सोमरक्षा द्वारा मैं 'इन्द्र' आदि शब्दों से सूचित गुणों को अपने में धारण करूँ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५०३ क्रमाङ्के परमात्मविषये वानप्रस्थविषये च व्याख्याता। अत्र प्रकारान्तरेण परमात्मपक्ष एव प्रदर्श्यते।

    पदार्थः

    हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (योनौ) अन्तरिक्षे (वनेषु) उदकेषु (आसीदन्) तिष्ठन्, (द्युमत्तमः) अतिशयेन द्युतिमान्, (रोरुवत्) गर्जनां कुर्वन् विद्युदग्निरिव (योनौ) गृहे (वनेषु) अरण्येषु च, सर्वत्रैवेत्यर्थः (आसीदन्) आतिष्ठन् (द्युमत्तमः) तेजस्वितमः (रोरुवत्) कर्त्तव्यमुपदिशन् त्वम् (द्रोणानि अभि) आत्ममनोबुद्ध्यादीन् द्रोणकलशान् प्रति (अर्ष) आगच्छ ॥१॥ अत्र श्लेषमूलो वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    गृहे वाऽरण्ये वा, गिरौ वा गह्वरेषु वा, सरित्सु वा समुद्रे वा, भुवि वा दिवि वा, विद्युति वाऽन्तरिक्षे वा, देहे वाऽऽत्मनि वा सर्वत्रैव विराजमानोऽपि जगदीश्वरो यावद् ध्यानेन प्रकाशितो न जायते तावत् प्रत्यक्षतां नो याति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६५।१९, ‘सीदञ्छ्येनो न योनिमा’ इति पाठः। साम० ५०३, ऋषिः भृगुः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let learned persons, the comprehenders of knowledge and action, move about, for the amelioration of soul, for mastering Prana, Apana, and other breaths, and for the realisation of the knowledge of God.

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    Meaning

    Soma, spirit of the innate peace and power of divinity, by its own will and energy, radiates to the heart and soul of the devotee to vest it with the power of cosmic energy (Indra), the speed of winds (Vayu), pioneering spirit of the storm (Maruts), the depth of space (Varuna), and the love of omnipresent divinity (Vishnu). (Rg. 9-65-20)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अप्साः सोमाः) વ્યાપક શાન્ત પરમાત્મા (इन्द्राय) આત્માને માટે (वायवे) મનને માટે (वरुणाय) પ્રાણને માટે (मरुद्भ्यः) ઓજ વીર્યને માટે (विष्णवे) શ્રોત્રને માટે (अर्षन्तु) પ્રાપ્ત થાય, એ બધાની અંદર શાન્તિનો પ્રવાહ ચાલે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा परमात्म्यापासून ब्रह्मानंद-रस आत्म्यात उतरतात. तेव्हा शरीराचे अंग-अंग स्फूर्तियुक्त व पौरुषयुक्त होते. ॥२॥

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