Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 21

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 61
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिग् विकृतिः स्वरः - मध्यमः
    3

    त्वाम॒द्यऽऋ॑षऽआर्षेयऽऋषीणां नपादवृणीता॒यं यज॑मानो ब॒हुभ्य॒ऽआ सङ्ग॑तेभ्यऽए॒ष मे॑ दे॒वेषु॒ वसु॒ वार्याय॑क्ष्यत॒ऽइति॒ ता या दे॒वा दे॑व॒ दाना॒न्यदु॒स्तान्य॑स्मा॒ऽआ च॒ शास्स्वा च॑ गुरस्वेषि॒तश्च॑ होत॒रसि॑ भद्र॒वाच्या॑य॒ प्रेषि॑तो॒ मानु॑षः सू॒क्तवा॒काय॑ सू॒क्ता ब्रू॑हि॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒। आ॒र्षे॒य॒। ऋ॒षी॒णा॒म्। न॒पा॒त्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒य॒म्। यज॑मानः। ब॒हुभ्य॒ इति॑ ब॒हुऽभ्यः॑। आ। सङ्ग॑तेभ्यः॒ इति स्ऽग॑तेभ्यः। ए॒षः। मे॒। दे॒वेषु॑। वसु॑। वारि॑। आ। य॒क्ष्य॒ते॑। इति॑। ता। या। दे॒वाः। दे॒व॒। दाना॑नि। अदुः॑। तानि॑। अ॒स्मै॒। आ। च॒। शास्व॑। आ। च॒। गु॒र॒स्व॒। इ॒षि॒तः। च॒। होतः॑ असि॑। भ॒द्र॒वाच्यायेति॑ भद्र॒ऽवाच्या॑य। प्रेषि॑त॒ इति॒ प्रऽइ॑षितः। मानु॑षः। सू॒क्त॒वा॒का॒येति॑ सूक्तऽवा॒काय॑। सू॒क्तेति॑ सुऽउ॒क्ता। ब्रू॒हि॒ ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामद्यऽऋषऽआर्षेयऽऋषीणान्नपादवृणीतायँयजमानो बहुभ्यऽआ सङ्गतेभ्यऽएष मे देवेषु वसु वार्यायक्ष्यतऽइति ता या देवा देव दानान्यदुस्तान्यस्माऽआ च शास्स्वा च गुरस्वेषितश्च होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अद्य। ऋषे। आर्षेय। ऋषीणाम्। नपात्। अवृणीत। अयम्। यजमानः। बहुभ्य इति बहुऽभ्यः। आ। सङ्गतेभ्यः इति स्ऽगतेभ्यः। एषः। मे। देवेषु। वसु। वारि। आ। यक्ष्यते। इति। ता। या। देवाः। देव। दानानि। अदुः। तानि। अस्मै। आ। च। शास्व। आ। च। गुरस्व। इषितः। च। होतः असि। भद्रवाच्यायेति भद्रऽवाच्याय। प्रेषित इति प्रऽइषितः। मानुषः। सूक्तवाकायेति सूक्तऽवाकाय। सूक्तेति सुऽउक्ता। ब्रूहि॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 61
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥

    अन्वयः

    हे ऋषे आर्षेय! ऋषीणां नपाद् यजमानोऽयमद्य बहुभ्यः संगतेभ्यस्त्वामावृणीतैष देवेषु मे वसु वारि चावृणीत। हे देव! य आयक्ष्यते देवा या यानि दानान्यदुस्तानि चास्मै आशास्स्व प्रेषितः सन्नागुरस्व च। हे होतरिषितो मानुषो भद्रवाच्याय सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहीति ता प्राप्तवांश्चासि॥६१॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (अद्य) (ऋषे) मन्त्रार्थवित् (आर्षेय) ऋषिषु साधुस्तत्संबुद्धौ। अत्र छान्दसो ढक्। (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् (नपात्) अपत्यम् (अवृणीत) वृणोतु (अयम्) (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (बहुभ्यः) (आ) (संगतेभ्यः) योगेभ्यः (एषः) (मे) मम (देवेषु) विद्वत्सु (वसु) धनम् (वारि) जलम् (आ) (यक्ष्यते) (इति) (ता) तानि (या) यानि (देवाः) विद्वांसः (देव) विद्वन् (दानानि) दातव्यानि (अदुः) ददति (तानि) (अस्मै) (आ) (च) (शास्स्व) शिक्ष (आ) (च) (गुरस्व) उद्यमस्व (इषितः) इष्टः (च) (होतः) (असि) भव (भद्रवाच्याय) भद्रं वाच्यं यस्मै तस्मै (प्रेषितः) प्रेरितः (मानुषः) मनुष्यः (सूक्तवाकाय) सूक्तानि वाकेषु यस्य तस्मै (सूक्ता) सुष्ठु वक्तव्यानि (ब्रूहि)॥६१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या बहूनां विदुषां सकाशाद् विद्वांसं वृत्वा वेदादिविद्या अधीत्य महर्षयो भवेयुस्तेऽन्यानध्यापयितुं शक्नुयुः। ये च दातार उद्यमिनः स्युस्ते विद्यां वृत्वा अविदुषामुपरि दयां कृत्वा विद्याग्रहणाय रोषेण संताड्यैतान् सुसभ्यान् कुर्युस्तेऽत्र सत्कर्त्तव्याः स्युरिति॥६१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे अपना वर्ताव वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (ऋषे) मन्त्रों के अर्थ जानने वाले वा हे (आर्षेय) मन्त्रार्थ जानने वालों में श्रेष्ठ पुरुष! (ऋषीणाम्) मन्त्रों के अर्थ जानने वालों के (नपात्) सन्तान (यजमानः) यज्ञ करने वाला (अयम्) यह (अद्य) आज (बहुभ्यः) बहुत (संगतेभ्यः) योग्य पुरुषों से (त्वाम्) तुझको (आ, अवृणीत) स्वीकार करे (एषः) यह (देवेषु) विद्वानों में (मे) मेरे (वसु) धन (च) और (वारि) जल को स्वीकार करे। हे (देव) विद्वन्! जो (आयक्ष्यते) सब ओर से संगत किया जाता (च) और (देवाः) विद्वान् जन (या) जिन (दानानि) देने योग्य पदार्थों को (अदुः) देते हैं (तानि) उन सबों को (अस्मै) इस यज्ञ करने वाले के लिए (आ, शास्व) अच्छे प्रकार कहो और (प्रेषितः) पढ़ाया हुआ तू (आ, गुरस्व) अच्छे प्रकार उद्यम कर (च) और हे (होतः) देने हारे! (इषितः) सब का चाहा हुआ (मानुषः) तू (भद्रवाच्याय) जिस के लिए अच्छा कहना होता और (सूक्तवाकाय) जिस के वचनों में अच्छे कथन अच्छे व्याख्यान हैं, उस भद्रपुरुष के लिए (सूक्ता) अच्छी बोलचाल (ब्रूहि) बोलो (इति) इस कारण कि उक्त प्रकार से (ता) उन उत्तम पदार्थों को पाये हुए (असि) होते हो॥६१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य बहुत विद्वानों से अति उत्तम विद्वान् को स्वीकार कर वेदादि शास्त्रों की विद्या को पढ़कर महर्षि होवें, वे दूसरों को पढ़ा सकें और जो देनेवाले उद्यमी होवें, वे विद्या को स्वीकार कर जो अविद्वान् हैं, उन पर दया कर विद्याग्रहण के लिए रोष से उन मूर्खों को ताड़ना दें और उन्हें अच्छे सभ्य करें, वे इस संसार में सत्कार करने योग्य हैं॥६१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वृत विद्वानों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (ऋषे) विद्वन् ! मन्त्रार्थों को देने वाले ! (आर्षेय) ऋषि मन्त्रार्थ द्रष्टाओं में उत्तम विद्वन् ! हे ( ऋषीणां नपात्) मन्त्रार्थद्रप्स ऋषियों के पुत्र ! उनके सिद्धान्तों को न गिरने देने हारे ! (अयं यजमानः ) यह यजमान, वेतन, पुरस्कार आदि देने वाला राजा, गृहपति, (बहुभ्यः) बहुत से ( संगतेभ्यः) एकत्र हुए विद्वानों में से ( अद्य ) आज (स्वाम् आ अवृणीत) तुझे वरण करता है । क्योंकि यह जानता है ( एष: ) यह आप ( मे ) मुझ यजमान को (देवेषु) विद्वानों और राजाओं के बीच (वसु ) धनैश्वर्य, (वारि) और वरण करने योग्य सकल पदार्थ (आयक्ष्यते) प्राप्त करा देंगे (इति) इसलिये वह आप को वरता है । हे (देव) विद्वन् !' (देवा:) विद्वान् पुरुष या दानशील राजागण, धनाढ्य पुरुष (या) जो-जो (ता) वे नाना प्रकार के ( दानानि ) दान करने योग्य पदार्थों को (अदुः) प्रदान करते हैं (तानि) वे सब प्रकार के पदार्थ (अस्मै) इसके लिये भी (आशास्व च ) आशा कर । ( इषितः च) इस प्रकार प्रार्थना किया गया तू (आगुरस्व च ) उद्यम कर । हे (होतः ) होतः ! विद्वन् ! उपदेष्टः ! ज्ञान प्रदान करने हारे ! तू (भद्रवाच्याय) सुख और कल्याण करने वाले हितकारी कार्यों के उपदेश के लिये (प्रेरितः असि) प्रार्थना किया जाता है । हे विद्वन् ! तू (मानुषः) विचारवान् पुरुष होकर (सूक्तवाकाय ) उत्तम सुवचनों के उपदेश के करने के लिये (सूक्ता ब्रूहि) उत्तम - उत्तम वचनोः और वेद के सूक्तों का उपदेश कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भुरिग् विकृतिः । मध्यमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भद्रा वाणी

    पदार्थ

    १. संसार में मनुष्य को 'शतायु पुत्र-पौत्रों का, भूमि के महान् आयतन विस्तृत क्षेत्र का, अन्य दुर्लभ काम्य पदार्थों का, पशु-हस्ति हिरण्य व अश्वों का व दीर्घ जीवन' का प्रभोलन भी कभी-कभी प्राप्त हो जाता है, परन्तु यज्ञशील पुरुष इनके प्रलोभन में न पड़कर आत्मा का ही वरण करता है। यहाँ मन्त्र में कहते हैं कि अद्य आज (अयं यजमानः) = यह यज्ञशील पुरुष (बहुभ्यः) = बहुत-सी (आसङ्गतेभ्यः) = चारों ओर से एकत्र हुई हुई इन प्रेयमार्ग की वस्तुओं से ऊपर उठकर हे (ऋषे) = सर्वज्ञ, (आर्षेय) = ऋषियों को लिए हितकर, (ऋषीणां नपात्) = ऋषियों के न गिरने देनेवाले प्रभो ! (त्वाम्) = आपको ही (अवृणीत) = वरता है, क्योंकि वह समझता है कि (एषः) = यह आप ही मे मुझे देवेषु सब देवों में होनेवाले (वारि) = वरणीय (वसु) = निवास के लिए आवश्यक वस्तु का (आयक्ष्यते) = सर्वथा दान करेंगे। २. (इति) = अतः हे (देव) = सब कुछ देनेवाले प्रभो! (या) = जिन दानानि दानों को (देवाः अदुः) = देवलोग देते हैं (तानि) = उन दानों को (अस्मै) = इस आपका वरण करनेवाले के लिए आप (आशास्स्व) = इच्छा कीजिए (च) = और (आगुरस्व) = देने के लिए उद्योग कीजिए, हाथ ऊपर उठाइए। ३. इस प्रार्थना पर प्रभु कहते हैं कि हे (होत:) = यज्ञशील पुरुष ! तू (इषितः असि) = प्रेरणा दिया गया है कि (मानुषः) = मनुष्य इस संसार में (भद्रवाच्याय) = कल्याणकर, सुखात्मक वाणी के लिए (प्रेषित:) = भेजा गया है, (सूक्तवाकाय) = सुन्दर कथनवाले वाक्यों के लिए भेजा गया है, अतः तू (सूक्ता ब्रूहि) = उत्तम वचनों को ही बोलनेवाला हो। वास्तव में यह भद्रवाणी ही उसे देवों से प्राप्य उत्तम वस्तुओं को प्राप्त कराएगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रेय व श्रेय में से श्रेय का वरण करते हुए परमात्मा का ही वरण करें। इस वरण से सब देवों से प्राप्य दान तो हमें प्राप्त होंगे ही और भद्रवाणी को बोलते हुए हम इस संसार को स्वर्ग बना पाएँगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे अत्यंत विद्वानांमधून उत्तम विद्वानांचा स्वीकार करून वेद इत्यादी शास्रांचे अध्ययन करून महानऋषी बनतात ते इतरांना शिकवू शकतात. उद्यमी लोकांनी अविद्वानांवर दया करून विद्याग्रहण करण्यासाठी क्रोधपूर्वक त्यांना ताडना देऊन का होईना विद्या प्राप्त करावयास लावावी व सभ्य बनवावे. असे लोक या जगात सत्कार करण्यायोग्य असतात.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनुष्यांनी आपले वर्तन कसे ठेवावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (ऋषे) मंत्राचा अर्थ जाणणाऱ्या विद्वान अथवा हे (आर्षेय) मंत्रज्ञाता विद्वानांत श्रेष्ठ असलेल्या मनुष्या, (ऋषीणाम्‌) मंत्रार्थ माता विद्वानांची (नपात्‌) संतान असलेला हा (यजमानः) यज्ञकर्ता (युवक वा युवती) (अद्य) आज (बहुभ्यः) अनेकांच्या (संगतेभ्यः) (वा त्यांच्यासह) (त्वाम्‌) तुला (आ वृणीत) स्वीकार करो (मंत्रार्थ जाणण्याची इच्छा असलेल्या अनेकांनी मंत्रार्थज्ञाता ऋषीजवळ वा श्रेष्ठ ऋषीकडे जावे) तसेच (एषः) हे (देवेषु) विद्वानांसाठी (मे) मी देत असलेले (वसु) धन आणि (वारि) जल (त्या विद्वानांनी) ग्रहण करावे. हे (देव) विद्वान, जो दातव्य वा देण्यास व योग्य पदार्थ (आयक्ष्यते) सर्व दिशांतून संग्रहीत केला जातो (च) आणि (देवाः) विद्वज्जन (या) जे (दानानि) दातव्य पदार्थ (याचक वा गरजवंतांना) देतात (तावि) ते ते सर्व पदार्थ (अस्मै) या यज्ञ करणाऱ्याला (आ, शास्व) देण्याविषयी सांगा. याशिवाय (प्रेषितः) (ऋषीकडून मंत्रार्थ प्राप्त ) केलेल्या हे जिज्ञासू विद्यार्थी, तू (आ, गुरस्व) चांगल्याप्रकारे उद्यम-व्यवसाय कर (मंत्रार्थाप्रमाणे आचरण करून उत्तम धन अर्जित कर) (च) या शिवाय, हे (होतः) दानी (इषितः) सर्वंप्रिय वा सर्ववांछित (मानुषः) मनुष्या, तू (भद्रवाच्याय) ज्याच्यावषियी चांगले बोलावे आणि (सूक्तवाकाय) ज्याच्या कथनात उत्तमोत्तम वचनें असतात, अशा भद्रपुरुषासाठी (सूक्त) चांगली वचनें (मधुर भाषा) (ब्रहि) बोल (दात्याने प्रशंसनीय भद्र पुरुषाला दान द्यावे व देतांना भद्र वचनें बोलावीत गर्व करू नये) (इति) हे असे सांगणे यासाठी की तुम्ही (ता) ते उत्तम पदार्थ प्राप्त केले (असि) आहात. (त्यामुळे इतरांना तुमच्याप्रमाणे ज्ञान आणि धन मिळू द्या) ॥61॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक अनेक विद्वानांपैकी महाविद्वान असलेल्या विद्वानांकडे जाऊन वेदादी शास्त्रांच्या विद्येचे अध्ययन करून महर्षी होतात (त्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी) इतरांना शिकवावे. तसेच जे उद्यमशील (व्यावसायिक) असतील, त्यांनी आपल्या उद्योग-व्यवसायाचे गहन ज्ञान अविद्वान (वा त्या उद्यमात नवखे असलेल्या) लोकांना सांगावे. तसेच विद्वानांनी अज्ञानीजनांवर दया करण्यासाठी त्यांना विद्याग्रहणासाठी प्रवृत्त करावे, प्रसंगी रागावून वा दंडित करून देखील त्यांना विद्यावान अवश्य करावे, त्यांना सभ्य बनवावे. असे करणारी माणसें या जगात सत्काराला पात्र ठरतात. ॥61॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात वरूण, अग्नी, विद्वान, राजा, प्रजा, शिल्प म्हणजे कला वा कलाकौशल्य, वाणी, गृह, अश्विन्‌ या शब्दांचे अर्थ, तसेच ऋतु आणि होता आदी पदार्तांचे गुणवर्णन आहे, त्यामुळे या अध्यायात सांगितलेल्या विषयांची व अर्थाची संगती मागील अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाशी सुसंगत आहे, असे जाणावे.^यजुर्वेदाचा 21 वा अध्याय समाप्त

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Rishi (Seer), foremost amongst the Rishis, descendant of Rishis, this sacrificer hath chosen thee today, of all the learned persons assembled together. He knows thou shalt win for him choice-worthy treasure, and all good serviceable objects, amongst the sages ; hence he chooses thee. O learned person, beloved of all, preach unto this sacrificer all the gifts of knowledge the sages impart, and being well trained remain active. O Hota, thou hast been sent as the man, selected for good speech, and for preaching the vedic doctrines. Preach thou the vedic verses.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    O Rishi, seer blest, child of the Rishis and the tradition of the Rishis: of the many noble sages assembled here to-day, this yajamana opts for you, saying: “This sage among the generous and brilliant ones would gain for us the consecrated shower of wealth and vision. ”Noble sage, give unto us of those gifts which the divinities have granted, pray for us, raise us and keep up the tradition. Hota, man of yajna, you are the man inspired and sent to pronounce the sacred Word and sing the hymns of divinity. Pray, speak the Word, sing the hymns of praise.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O seer, son of a seer, grandson of a seer, today this sacrificer has chosen you for the many, who have assembled, with the idea that this one will win for me the choicest treasures from the bounties of Nature. O shining one, may you desire for us also the gifts, that the enlightened ones have given and make some effort for it. O priest, you are urged hereby. You are a human priest sent for a benign speech and pleasing words. May you make good utterances. (1)

    Notes

    Ārṣeya, O son of a rsi, seer. Napāt,पौत्र:, grandson. Vāri, best; choicest. Ayakṣyate, आदास्यति, will bring or fetch for me. Āgurasva, make effort for it. Āśāsva,इच्छ, wish for it. Bhadravācyāya preṣitaḥ, you are sent for making benign speech. Sūktavākyāya, for speaking pleasing words.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্য কেমন ব্যবহার করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ঋষে) মন্ত্রজ্ঞাতা অথবা হে (আর্ষেয়) মন্ত্রার্থ জ্ঞাতাদিগের মধ্যে শ্রেষ্ঠ পুরুষ! (ঋষীণাম্) মন্ত্র জ্ঞাতাদিগের (নপাৎ) সন্তান্ (য়জমানঃ) যজ্ঞকারী (অয়ম্) এই (অদ্য) অদ্য (বহুভ্যঃ) বহু (সংগতেভ্যঃ) যোগ্য পুরুষদিগের হইতে (ত্বাম্) তোমাকে (আ, অবৃণীত) স্বীকার করিবে (এষঃ) এই (দেবেষু) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (মে) আমার (বসু) ধন (চ) এবং (বারি) জলকে স্বীকার করিবে । হে (দেব) বিদ্বান্ ! যাহা (আয়ক্ষ্যতে) সব দিক দিয়া সঙ্গত করা হয় (চ) এবং (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (য়া) যেসব (দানানি) দেওয়ার যোগ্য পদার্থগুলিকে (অদুঃ) প্রদান করে (তানি) সেই সমস্ত কে (অস্মৈ) এই যজ্ঞ কারীদের জন্য (আ, শাস্স) উত্তম প্রকার বল এবং (প্রেষিতঃ) পাঠিত তুমি (আ, গুরস্ব) উত্তম প্রকারে উদ্যম কর (চ) এবং হে (হোতঃ) দাতা ! (ইষিতঃ) সকলের আকাঙ্ক্ষিত (মানুষঃ) তুমি (ভদ্রবাচ্যাম্) যাহার জন্য উত্তম বলিতে হয় এবং (সূক্তবাকায়) যাহার বচনে উত্তম কথন, উত্তম ব্যাখ্যান, সেই ভদ্রপুরুষের জন্য (সূক্তা) উত্তম কথাবার্ত্তা (ব্রূহি) বল (ইতি) এই কারণে যে, উক্ত প্রকার দ্বারা (তো) সেই সব উত্তম পদার্থগুলিকে প্রাপ্ত হইয়া (অসি) থাক ॥ ৬১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য বহু বিদ্বান্দিগের হইতে অতি উত্তম বিদ্বান্কে স্বীকার করিয়া বেদাদি শাস্ত্রের বিদ্যা পাঠ করিয়া মহর্ষি হইবে, তাহারা অন্যদেরকে পড়াইতে পারিবে এবং যাহারা দাতা, উদ্যমী হইবে তাহার বিদ্যা স্বীকার করিয়া যাহারা অবিদ্বান্ তাহাদের উপর দয়া করিয়া বিদ্যাগ্রহণ হেতু রোষপূর্বক সেই সব মূর্খদিগকে তাড়না করিবে এবং তাহাদেরকে উত্তম সভ্য করিবে, তাহারা এই সংসারে সৎকার করিবার যোগ্য ॥ ৬১ ॥
    এই অধ্যায়ে বরুণ, অগ্নি, বিদ্বান্, রাজা-প্রজা, শিল্প অর্থাৎ কারীগরী বাণী, ঘর, অশ্বিন্ শব্দের অর্থ ঋতু হোতাদি পদার্থগুলির গুণের বর্ণনা হওয়ায় এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের গত অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ সঙ্গতি আছে, ইহা জানা উচিত ॥
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    য়জুর্বেদভাষ্য একবিংশোऽধ্যায়ঃ সমাপ্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বাম॒দ্যऽঋ॑ষऽআর্ষেয়ऽঋষীণাং নপাদবৃণীতা॒য়ং য়জ॑মানো ব॒হুভ্য॒ऽআ সঙ্গ॑তেভ্যऽএ॒ষ মে॑ দে॒বেষু॒ বসু॒ বার্য়া য়॑ক্ষ্যত॒ऽইতি॒ তা য়া দে॒বা দে॑ব॒ দানা॒ন্যদু॒স্তান্য॑স্মা॒ऽআ চ॒ শাস্স্বাऽऽ চ॑ গুরস্বেষি॒তশ্চ॑ হোত॒রসি॑ ভদ্র॒বাচ্যা॑য়॒ প্রেষি॑তো॒ মানু॑ষঃ সূক্তবা॒কায়॑ সূ॒ক্তা ব্রূ॑হি ॥ ৬১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বামদ্যেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ । ভুরিগ্ বিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top