अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
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दु॒र्हार्दः॒ संघो॑रं॒ चक्षुः॑ पाप॒कृत्वा॑न॒माग॑मम्। तांस्त्वं स॑हस्रचक्षो प्रतीबो॒धेन॑ नाशय परि॒पाणो॑ऽसि जङ्गि॒डः ॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽहार्दः॑। सम्ऽघो॑रम्। चक्षुः॑। पा॒प॒ऽकृत्वा॑नम्। आ। अ॒ग॒म॒म्। तान्। त्वम्। स॒ह॒स्र॒च॒क्षो॒ इति॑ सहस्रऽचक्षो। प्र॒ति॒ऽबो॒धेन॑। ना॒श॒य॒। प॒रि॒ऽपानः॑। अ॒सि॒। ज॒ङ्गि॒डः ॥३५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दुर्हार्दः संघोरं चक्षुः पापकृत्वानमागमम्। तांस्त्वं सहस्रचक्षो प्रतीबोधेन नाशय परिपाणोऽसि जङ्गिडः ॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽहार्दः। सम्ऽघोरम्। चक्षुः। पापऽकृत्वानम्। आ। अगमम्। तान्। त्वम्। सहस्रचक्षो इति सहस्रऽचक्षो। प्रतिऽबोधेन। नाशय। परिऽपानः। असि। जङ्गिडः ॥३५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(दुर्हार्दः) कठोर हृदयवालों को, (संघोरम्) बड़े भयानक (चक्षुः) नेत्र को, और (पापकृत्वानम्) पाप करनेवाले पुरुष को (आ अगमम्) मैंने पाया है। (सहस्रचक्षो) हे सहस्र प्रकार से देखे गये ! (त्वम्) तू (तान्) उनको (प्रतिबोधेन) सावधानी से (नाशय) नाश कर, तू (परिपाणः) महारक्षक (जङ्गिडः) जङ्गिड [संचार करनेवाला औषध] (असि) है ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य जङ्गिड का सेवन करते हैं, वे महाबली होकर शत्रुओं का नाश करते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(दुर्हार्दः) दुष्टहृदयान् (संघोरम्) अतिभयानकम् (चक्षुः) दर्शनम् (पापकृत्वानम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ०४।११४। पाप+करोतेः-क्वनिप्। पापकर्तारम् (आगमम्) अहं प्राप्तवानस्मि (तान्) (त्वम्) (सहस्रचक्षो) भृमृशीङ्०। उ०१।७। चक्षिङ् दर्शने-उ प्रत्ययः सहस्रप्रकारेण दर्शनं यस्मिन् तत् सम्बुद्धौ (प्रतिबोधेन) सावधानत्वेन। चैतन्येन (नाशय) (परिपाणः) सर्वतो रक्षकः (असि) (जङ्गिडः) संचारशील औषधविशेषः ॥
विषय
सुहार्द, नकि दुर्हार्द्
पदार्थ
१. (दुर्हार्दः) = दुष्टहृदयवाले पुरुष की (घोरं चक्षुः) = क्रूरतापूर्ण आँख को तथा (पापकृत्वानम्) = पाप को-हिंसादि कर्मों को करनेवाले को (सम् आगमम्) = मैं प्राप्त हुआ हूँ, अर्थात् मेरौ वृत्ति क्रूरता व पापवाली बन गई है। २.हे (सहस्त्रचक्षो) = हज़ारों प्रकार से मेरा ध्यान करनेवाले [to look after] वीर्यमणे! (त्वम्) = तू (तान्) = उन अशुभवृत्तियोंवालों को (प्रतीबोधेन) = जगाने के द्वारा-ज्ञान प्राप्त कराने के द्वारा-नाशय-नष्ट कर दे। तु उन्हें ज्ञान के द्वारा 'सुहाई व पुण्यकृत्' बना दे। तू (परिपाण: असि) = सब ओर से रक्षित करनेवाला है। (जङ्गिड:) = [जयति गिरति] पापवृत्तियों को पराजित करनेवाला व इन अशुभ वृत्तियों को खा जानेवाला है।
भावार्थ
सुरक्षित वीर्य हमें नीरोग बनाने के साथ शुभवृत्तियोंवाला भी बनाता है। हम दर्द से सुहार्द बन जाते हैं, पापकृत्वा से पुण्यकृत् ।
भाषार्थ
(दुर्हार्दः) दुःखप्रद हृदयरोगों को, (संघोरम्) अतिघोर (चक्षुः१) आंख या दृष्टि को, (आगमं पापकृत्वानम्) प्राप्त हुए पापी या भयङ्कररोगजनक क्रिमि अर्थात् कीटाणु को, (तान्) उन सबको (सहस्रचक्षो) हे हजारों रोगों का प्रत्याख्यान करनेवाले जङ्गिड! (प्रतीबोधेन) चिकित्सकों द्वारा रोगियों को रोगोपचार के बोध द्वारा (नाशय) विनष्ट कर। (परिपाणः) पूर्णतया रोगों से रक्षा करनेवाली (जङ्गिडः असि) तू जङ्गिड औषध है।
टिप्पणी
[१. अर्थात् आंख के अतिघोर रोग को, जिससे दृष्टि का विनाश सम्भव हो। घोरम्=हन्तेः(उणा० ५.६४)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Jangida Mani
Meaning
The evil hearted, cruel, evil eyed, evil doer, whoever such is risen and come, all these, O thousand¬ eyed Jangida, destroy with knowledge and awakenment. You are the saviour, the protector.
Translation
The cruel eye of the enemy, and the would-be-murderer that has come to us - O thousand-eyed one, may you destroy them carefully; O jangida, you are a sure defence.
Translation
As a treasurer preserves the wealth so let guard that Jangida which learned men who are the masters of the vedic knowledge make all-round protective and disease-quelling.
Translation
O Jangida, if I ever come across the furious-eyed wicked-hearted mischief-monger, destroy all of them, O wide-awake one, by your constant vigilance. You are the all-round guardian of the people.
Footnote
This sukta may also be aptly applied Jangida, the Arjun tree which is called ‘Indra’ and ‘Sahasra-Chakshu’ in books of Ayurveda. It is not a charm or an amulet that is meant by ‘Jangida,’
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(दुर्हार्दः) दुष्टहृदयान् (संघोरम्) अतिभयानकम् (चक्षुः) दर्शनम् (पापकृत्वानम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ०४।११४। पाप+करोतेः-क्वनिप्। पापकर्तारम् (आगमम्) अहं प्राप्तवानस्मि (तान्) (त्वम्) (सहस्रचक्षो) भृमृशीङ्०। उ०१।७। चक्षिङ् दर्शने-उ प्रत्ययः सहस्रप्रकारेण दर्शनं यस्मिन् तत् सम्बुद्धौ (प्रतिबोधेन) सावधानत्वेन। चैतन्येन (नाशय) (परिपाणः) सर्वतो रक्षकः (असि) (जङ्गिडः) संचारशील औषधविशेषः ॥
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