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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
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    नी॒चैः ख॑न॒न्त्यसु॑रा अरु॒स्राण॑मि॒दं म॒हत्। तदा॑स्रा॒वस्य॑ भेष॒जं तदु॒ रोग॑मनीनशत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नी॒चै: । ख॒न॒न्ति॒ । असु॑रा: । अ॒रु॒:ऽस्राण॑म् ।इ॒दम् । म॒हत् । तत् । आ॒ऽस्रा॒वस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ।३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नीचैः खनन्त्यसुरा अरुस्राणमिदं महत्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नीचै: । खनन्ति । असुरा: । अरु:ऽस्राणम् ।इदम् । महत् । तत् । आऽस्रावस्य । भेषजम् । तत् । ऊं इति । रोगम् । अनीनशत् ।३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शारीरिक और मानसिक रोग की निवृत्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (असुराः) बुद्धिमान् पुरुष (इदम्) इस (अरुस्राणम्) व्रण [स्फोर=फोड़े] को पकाकर भर देनेवाली, (महत्) उत्तम औषध को (नीचैः) नीचे-नीचे (खनन्ति) खोदते जाते हैं। (तत्) वही विस्तृत ब्रह्म (आस्रावस्य) बड़े क्लेश की (भेषजम्) औषध है, (तत्) उसने (उ) ही (रोगम्) रोग को (अनीनशत्) नाश कर दिया है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे सद्वैद्य बड़े-बड़े परिश्रम और परीक्षा करके उत्तम औषधों को लाकर रोगों की निवृत्ति करके प्राणियों को स्वस्थ करते हैं, वैसे ही विज्ञानियों ने निर्णय किया है कि उस परमेश्वर ने आदि सृष्टि में ही मानसिक और शारीरिक रोगों की ओषधि उत्पन्न कर दी है ॥३॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–सायणभाष्य में (अनीनशत्) के स्थान में [अशीशमत्] पाठ है ॥ ३–नीचैः। नौ दीर्घश्च उ० ५।१३। इति नि+चि चयने–डैसि, नेर्दीर्घत्वं च। अधोऽधः। अन्तरन्तः। खनन्ति। खनु अवदारणे। अवदारयन्ति, उन्मूलयन्ति। अन्वेषणेन प्राप्नुवन्ति। असुराः। अ० १०।१।१। असेरुरन्। उ० १।४२। इति असु क्षेपणे, यद्वा, अस गतिदीप्त्यादानेषु–उरन्। यद्वा, असुः, प्राणः, रो मत्वर्थीयः। ज्ञानवन्तः। दीप्यमानाः। प्रज्ञावन्तः–निरु० १०।३४। प्राणवन्तः पुरुषाः। अरुस्राणम्। अरुः–स्राणम्। अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति ऋ गतौ, हिंसायां वा–उसि। इति अरुः, व्रणः। स्रै पाके–ल्युट्। अरुषो व्रणस्य पाककरम्। महत्। अ० १।१०।४। विपुलम्। आस्रावस्य। अ० १।२।४। महाक्लेशस्य। रोगम्। पदरुजविशस्पृशो घञ्। पा० ३।३।१६। रुजो भङ्गे–घञ्। व्याधिम्। उपतापम्। अनीनशत्। इति णश अदर्शने, नाशे च–ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। नाशयति स्म ॥

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    विषय

    'अरुस्त्राण' औषध

    पदार्थ

    १. (असुरा:) = [अस्यन्ति] रोगों को दूर फेंकनेवाले वैद्य लोग (इदम) = इस महत-अत्यधिक अरुस्त्राणम् [स्नै पाके] फोड़े को पकाकर मल को पृथक् करनेवाली औषध को (नीचैः) = नीचे पर्वतों की तराई के प्रदेशों में खनन्ति-खोदते हैं। पर्वतों से बहकर आते हुए जल से उत्पन्न हई-हुई यह भूमिगत औषध फोड़े को पकाकर उसके मल को दूर करने की शक्ति रखती है। २. इसप्रकार यह औषध (आस्त्रावस्य) = मल को क्षरित करने की (भेषजम्) = उत्तम औषध है। (तत् उ)  वह निश्चय से (रोगम) = रोग को (अनीनशत्) = नष्ट कर देती है।

    भावार्थ

    पर्वत के निचले प्रदेशों में उत्पन्न होनेवाली यह औषध फोड़ों के मलों को क्षरित करके रोगों को शान्त करती है।

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    भाषार्थ

    (असुराः) प्राणप्रदाता या प्राणशक्तिसम्पन्न खनक, (इदम् महत्) इस महान् ( अरुस्राणम् ) घाव को बहा देनेवाले [उदक को प्राप्ति के लिए] (नीचैः) नीचे की ओर (खनन्ति) भूमि को खोदते हैं। ( तत्) वह उदक (आस्रावस्य) आस्राव का (भेषजम्) औषध है, ( तत् उ ) वह निश्चय से (रोगम्, अनीनशत् ) रोग को नष्ट कर देता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में कूपखनन का वर्णन है, महौषध उदक की प्राप्ति के लिए। नीचैः = इसीलिए कूप को "अवतः" कहते हैं (निघं० ३।२३)। अवतः= अव (नीचे की ओर)+तः ("ततः" ताना हुआ, विस्तृत हुआ, फैला हुआ), तनु विस्तारे (तनादिः)। असुरा: = असु: प्राण:,१ तद्-वन्तः रः मत्वर्थीयः)] [१. अनवत्त्वम् (निरुक्त १०।३।२४) , अन प्राणने (अदादिः)। उपजीका अर्थात् दीमकें प्राणवान् हैं, यतः ये काष्ठ को भी खाकर, उसे मिट्टी में परिवर्तित कर देती हैं।]

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    विषय

    आस्राव रोग का उपचार ।

    भावार्थ

    ( असुराः ) प्राणशक्ति वाले (नीचैः) नम्र होकर ( अरुत्राणम् ) मर्मभूत वस्तु को पकाने वाली (इदम् महत्त्) इस महान् ब्रह्मौषध को (खनन्ति) बड़े परिश्रम से प्राप्त करते हैं ( तद् ) वह ब्रह्म ( आस्त्रावस्य ) बहने की ( भेषजम् ) औषध है ( तत् ) वह निश्चय से (रोगम्) रोग का ( अनीनशत् ) नाश कर देती है ।

    टिप्पणी

    वीर्यस्त्राव काम का परिणाम है। विषय इस काम के उत्तेजक है। वीर्यस्राव का रोग तभी शान्त हो सकता है जबकि मनुष्य विषयों से मनको हटाकर उसे ब्रह्म की ओर लगाये। वीर्यस्राव के रोकने की सम्भवतः सैकड़ों औषध हों, परन्तु जबतक मन विषयों में लिप्त रहता है तबतक वे औषध कार्य साधक नहीं होतीं। विषयों से हटकर मन जब ही ब्रह्म की शरण चला जाता है तब काम के शिथिल हो जानेपर वीर्यस्त्राव स्वयमेव रुकजाता है अतः इस सम्बन्ध में ब्रह्म महौषध है। वीर्य भी मर्मभूत वस्तु है। इसी पर शरीर यात्रा निर्भर है। इसका पक जाना और पकने से पूर्व न गिर जाना तभी सम्भव है जब कि ब्रह्मौषध का आश्रय लिया जाय ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। भैषज्यायुर्धन्वन्तरिर्देवता। १-५ अनुष्टुभः। ६ त्रिपात् स्वराट् उपरिष्टान्महाबृहती। षडर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Healing

    Meaning

    Efficient physicians dig out the herbal medicine from the valleys down. The herb stops the flow and fills up this morbid wound. This is the sure cure for the ailment, this destroys the disease.

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    Translation

    Out of deep earth, the vitality-givers (asuras) dig it up, which is a great wound-healer. This is the remedy for morbid flux and this has driven the disease away.

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    Translation

    The physicians dig out this Brahma medicine from the down ward place. This is a healing balm of high quality. This medicine of flow or bodily pain and dispels the disease.

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    Translation

    The wise, through humility attain to this Mighty God, the ripener of vital semen. He is the medicine to stop the flow of semen. He cures all ailments physical and mental. [1]

    Footnote

    [1] One can control and stop the flow of his semen through the meditation of God alone.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी–सायणभाष्य में (अनीनशत्) के स्थान में [अशीशमत्] पाठ है ॥ ३–नीचैः। नौ दीर्घश्च उ० ५।१३। इति नि+चि चयने–डैसि, नेर्दीर्घत्वं च। अधोऽधः। अन्तरन्तः। खनन्ति। खनु अवदारणे। अवदारयन्ति, उन्मूलयन्ति। अन्वेषणेन प्राप्नुवन्ति। असुराः। अ० १०।१।१। असेरुरन्। उ० १।४२। इति असु क्षेपणे, यद्वा, अस गतिदीप्त्यादानेषु–उरन्। यद्वा, असुः, प्राणः, रो मत्वर्थीयः। ज्ञानवन्तः। दीप्यमानाः। प्रज्ञावन्तः–निरु० १०।३४। प्राणवन्तः पुरुषाः। अरुस्राणम्। अरुः–स्राणम्। अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति ऋ गतौ, हिंसायां वा–उसि। इति अरुः, व्रणः। स्रै पाके–ल्युट्। अरुषो व्रणस्य पाककरम्। महत्। अ० १।१०।४। विपुलम्। आस्रावस्य। अ० १।२।४। महाक्लेशस्य। रोगम्। पदरुजविशस्पृशो घञ्। पा० ३।३।१६। रुजो भङ्गे–घञ्। व्याधिम्। उपतापम्। अनीनशत्। इति णश अदर्शने, नाशे च–ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। नाशयति स्म ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অসুরাঃ) বুদ্ধিমান পুরুষ (ইদং) এই (অরুপ্রাণং) ব্রণের আরোগ্য কর (মহৎ) উত্তম ঔষধকে (নীচৈঃ) নীচে নীচে (খনন্তি) খনন করিয়া যান (তৎ) সেই ব্রহ্ম (আর্দ্রাবস্য) উৎকট ক্লেশের (ভেষজং) ঔষধ (তৎ উ) তিনিই (রোগং) রোগকে (অণীনশৎ) নাশ করেন।।

    भावार्थ

    বুদ্ধিমান বৈদ্য ব্রণনাশক উত্তম ঔষধকে বহু পরিশ্রমে সংগ্রহ করিয়া থাকেন। সেই ব্রহ্মই মহা ক্লেশের ঔষধ স্বরূপ। ঔষধের মধ্যে তিনিই রোগ নাশক গুণকে রাখিয়াছেন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    নীচৈঃ খনন্ত্যসুরা অরুপ্রাণমিদং মহৎ। তদাস্রাবস্য ভেষজং তদু রোগমনীনশৎ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অঙ্গিরাঃ। (আস্রাব) ভেষজম্। অনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (অসুরাঃ) প্রাণপ্রদাতা বা প্রাণশক্তিসম্পন্ন খনক (ইদম্ মহৎ) এই মহান্ (অরুস্রাণম্) ক্ষত বাহিতকারী [উদকের প্রাপ্তির জন্য] (নীচে) নীচের দিকে (খনন্তি) ভূমি খনন করে। (তৎ) সেই উদক (আস্রাবস্য) আস্রাবের (ভেষজম্) ঔষধ, (ত্য উ) তা নিশ্চিতরূপে (রোগম্, অনীনশৎ) রোগ বিনষ্ট করে।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে কূপখনন এর বর্ণনা আছে, মহৌষধ উদকের প্রাপ্তির জন্য। নীচৈঃ= এইজন্য কূপকে "অবতঃ" বলা হয় (নিঘং০ ৩।২৩)। অবতঃ= অব (নীচের দিকে)+তঃ ("ততঃ" বিস্তৃত হওয়া), তনু বিস্তারে (তনাদিঃ)। অসুরাঃ= অসুঃ প্রাণ;১ তদ্-বন্তঃ; রঃ মত্বর্থীয়)।] [১. অনবত্ত্বম্ (নিরুক্ত ১০।৩।২৪), অন প্রাণনে (অদাদিঃ)। উই একরকম প্রাণী, ইহা কাষ্ঠকেও খেয়ে, তা মাটিতে পরিবর্তিত করে দেয়।]

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    मन्त्र विषय

    শারীরিকমানসিকরোগনাশোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অসুরাঃ) বুদ্ধিমান্ পুরুষ (ইদম্) এই (অরুস্রাণম্) ব্রণ [স্ফোর=ফোঁড়া]কে পক্ক করে পূরণকারী, (মহৎ) উত্তম ঔষধিকে (নীচৈঃ) নীচে-নীচে (খনন্তি) খনন করতে থাকে। (তৎ) সেই বিস্তৃত ব্রহ্ম (আস্রাবস্য) বিপুল ক্লেশের (ভেষজম্) ঔষধ, (তৎ) তিনি (উ)(রোগম্) রোগ (অনীনশৎ) নাশ করে দিয়েছেন/করেছেন॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন সদ্বৈদ্য অনেক পরিশ্রম ও পরীক্ষা করে উত্তম ঔষধি নিয়ে এসে রোগ-সমূহের নিবৃত্তি করে প্রাণীদের সুস্থ করে, সেভাবেই বিজ্ঞানীরা নির্ণয় করেছে, সেই পরমেশ্বর আদি সৃষ্টিতেই মানসিক ও শারীরিক রোগের ঔষধি উৎপন্ন করে দিয়েছিলেন/করেছেন ॥৩॥ সায়ণভাষ্যে (অনীনশৎ) এর স্থানে (অশীশমৎ) পাঠ আছে।

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