अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः
छन्दः - त्रिपात्स्वराडुपरिष्टान्महाबृहती
सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
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शं नो॑ भवन्त्वा॒प ओष॑धयः शि॒वाः। इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॒ अप॑ हन्तु र॒क्षस॑ आ॒राद्विसृ॑ष्टा॒ इष॑वः पतन्तु र॒क्षसा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठशम् । न॒: । भ॒व॒न्तु॒ । आ॒प: । ओष॑धय: । शि॒वा: । इन्द्र॑स्य । वज्र॑: । अप॑ । ह॒न्तु॒ । र॒क्षस॑: । आ॒रात् । विऽसृ॑ष्टा: । इष॑व: । प॒त॒न्तु॒ । र॒क्षसा॑म् ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नो भवन्त्वाप ओषधयः शिवाः। इन्द्रस्य वज्रो अप हन्तु रक्षस आराद्विसृष्टा इषवः पतन्तु रक्षसाम् ॥
स्वर रहित पद पाठशम् । न: । भवन्तु । आप: । ओषधय: । शिवा: । इन्द्रस्य । वज्र: । अप । हन्तु । रक्षस: । आरात् । विऽसृष्टा: । इषव: । पतन्तु । रक्षसाम् ॥३.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शारीरिक और मानसिक रोग की निवृत्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(आपः) जल और (ओषधयः) उष्णता धारण करनेवाली वा ताप नाश करनेवाली अन्नादि ओषधें (नः) हमारे लिये (शम्) शान्तिकारक और (शिवाः) मङ्गलदायक (भवन्तु) होवें। (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवाले पुरुष का (वज्रः) (रक्षसः) राक्षस का (अपहन्तु) हनन कर डाले, (रक्षसाम्) राक्षसों के (विसृष्टाः) छोड़े हुए (इषवः) वाण (आरात्) दूर (पतन्तु) गिरें ॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर के अनुग्रह से हम पुरुषार्थ करते रहें, जिससे जल, अन्न आदि सब पदार्थ शुद्ध रहकर प्रजा में आरोग्यता बढ़ावें और जैसे राजा चोर, डाकू आदि दुष्टों को दण्ड देता है कि प्रजागण कष्ट न पावें और सदा आनन्द भोगें, ऐसे ही हम अपने दोषों का नाश करके आनन्द भोगें ॥६॥
टिप्पणी
टिप्पणी–अजमेर के पुस्तक और सायणभाष्य की संहिता में (अपः) पाठ है और सायणभाष्य और पं० सेवकलाल मुद्रापित पुस्तक में (आपः) पाठ है, हमने भी (आपः) ही लिया है ॥ ६–शम्। अ० १।३।१। शमनाय। शान्तिप्रदाः। आपः। अ० १।५।३। जलानि। ओषधयः। अ० १।२३।१। ओष–डुधाञ् धारणपोषणयोः–कि। अन्नादिबलप्रदपदार्थाः। शिवाः। अ० १।६।४। सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति शीङ् शयने–वन्। शीङो ह्रस्वत्वम्। शिवम्=सुखम्–निघ० ३।६। ततो अर्शआद्यच्। सुखकारिण्यः। इन्द्रस्य। अ० १।२।३। परमैश्वर्यवतः पुरुषस्य। वज्रः। अ० १।७।७। कुलिशः। कुठारः। अपहन्तु। अपहननं विनाशं करोतु। रक्षसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति रक्ष पालने–अपादाने असुन्। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्–निरु० ४।१८। कर्मणि षष्ठी। राक्षस्य। दुष्टस्य। आरात्। दूरदेशे। वि–सृष्टाः। वि+सृज त्यागे–क्त। त्यक्ताः। प्रेषिताः। प्रयुक्ताः। इषवः। अ० १।१३।५। शत्रुहिंसका वाणाः। पतन्तु। अधोगच्छन्तु। रक्षसाम्। दुराचारिणां पुरुषाणाम् ॥
विषय
जल व ओषधियाँ कल्याणकर हों
पदार्थ
१.(न:) = हमारे लिए (अपः) = जल (शं भवन्तु) = शान्ति देनेवाले हों। (ओषधयः शिवा:) = औषधियाँ कल्याणकर हों। शरीर में जब किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाए तो जल व ओषधियों का समुचित प्रयोग हमारे लिए शान्ति व कल्याणकारक हो। २. परन्तु इससे भी अच्छा तो यह है कि (इन्द्रस्य) = इन्द्र का (वन:) = बन (रक्षस:) = राक्षसों को (अपहन्तु) = हमसे सुदूर विनष्ट करे। 'इन्द्र' शब्द जितेन्द्रिय पुरुष का वाचक है और वज्र' का भाव क्रियाशीलता से है। जितेन्द्रिय पुरुष की क्रियाशीलता राक्षसों को-रोगकमियों को पनपने ही नहीं देती। रोगकृमि राक्षस हैं-अपने रमण के लिए हमारा क्षय करनेवाले हैं। इन (रक्षसाम्) = रोगकृमियों के (विसृष्टाः इषवः) = छोड़े हुए अब हिताय काण्डम् बाण (आरात् पतन्तु) = हमसे दूर ही गिरें। इन रोगकृमियों के कारण उत्पन्न होनेवाले विविध विकार ही इनसे छोड़े गये इषु हैं। ये इषु हमसे दूर ही रहें। इन रोगकृमियों के कारण हममें विकार उत्पन्न न हों। इसके लिए आवश्यक है कि जलों व ओषधियों का प्रयोग ठीक हो।
भावार्थ
जलों व ओषधियों का प्रयोग हमारे लिए शान्ति व कल्याण देनेवाला हो। हम क्रियाशील बने रहें, जिससे विकार उत्पन्न ही न हों।
विशेष
इस सूक्त में मुख्यरूप से पर्वत से बहनेवाले जल के उत्तम औषध होने का उल्लेख है [१]। इस जल से उत्पन्न औषध फोड़े को पकाकर उसके मल के आस्त्राव से रोग को शान्त करनेवाली है। जलों व औषधों का ठीक प्रयोग कल्याणकर है, परन्तु क्रियाशीलता सर्वाधिक कल्याण करनेवाली है [६]। अगले सूक्त का ऋषि अथवा'-डांवाडोल न होनेवाला है। यह जङ्गिडमणि के धारण से दीर्घायुत्व को प्राप्त करता है। जमति-जो हमें खा जानेवाला रोग है, उसे 'गिरति' यह निगल लेता है, इससे इसे 'जङ्गिड़' कहा है। शरीर में सर्वोत्तम धातु होने से इसे मणि का नाम दिया गया है, अत: यह 'जङ्गिड़मणि' वीर्य ही है। इसे 'अथर्वा' धारण करता है।
भाषार्थ
(अपः आपः) जलरूप (ओषधयः) ओषधियाँ (नः) हमारे लिए (शिवाः) कल्याणकारी, तथा (शम्) रोगशामक हों। (इन्द्रस्य वचः) मेघस्थ विद्युत् का वज्र (रक्षसः) रोगरूपी राक्षस का (अपहन्तु) अपहनन करे, (रक्षसाम्) रोगकीटाणुओं के (विसृष्टाः) प्रयुक्त (इपब:) रोगरूपी इषु (आराद्) हमसे दूर (पतन्तु) गिरें, हम पर प्रहार न करें ।
टिप्पणी
[इन्द्रस्य वज्र:= मेघस्थ विद्युत्। अतः अपः= आप: को ओषधियाँ कहा है। आप: स्त्रीलिङ्गी बहुवचनान्त है ओषधयः भी स्त्रीलिङ्गी बहुवचनान्त है। आप: को सर्वौषध कहने के अभिप्राय से मन्त्र में आप: का पुनः कथन हुआ है (मन्त्र १)।]
विषय
आस्राव रोग का उपचार ।
भावार्थ
(अपः ओषधयः शिवाः) जल की तरह शान्त तथा कल्याणकर ब्रह्मरूप औषध ( नः ) हमें (शं भवन्तु) शांतिदायक हो । ( इन्द्रस्य ) आत्मा का ( वज्रः ) आत्मिक बलरूप वज्र ( रक्षसः ) राक्षस भावों का ( अपहन्तु ) हनन करे (रक्षसाम्) इन राक्षस भावों द्वारा ( विसृष्टाः ) छोड़े गये (इषवः) वाण (आरात्) हमसे दूर ( पतन्ताम् ) गिरें ।
टिप्पणी
‘शंनो भवन्त्वपः’ इति पाठः शङ्करपाण्डुरंगसम्मतः । ‘शंनो भवन्त्वापः’ इति सायणाभिमतः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। भैषज्यायुर्धन्वन्तरिर्देवता। १-५ अनुष्टुभः। ६ त्रिपात् स्वराट् उपरिष्टान्महाबृहती। षडर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Health and Healing
Meaning
May the waters be full of peace and well being of health for us. May the herbs be good and efficacious for us. Let the thunderbolt of Indra, electric force, destroy the demons of diseases and epidemics. May the arrow like rays of the sun shot from the far off solar distances fall upon the germs and destroy the rogues.
Translation
May the waters be to our weal. May the herbs be propitious to us. May the thunder-bolt of the resplendent Lord smite off the demoniac tendencies. May the arrows, hurled by evil-minded persons, fall far away from us.
Translation
Let the waters be beneficial to us and be the herbaceous plants or medicines auspicious for us. The lighting which is the weapon of wind destroys. The germs of diseases and may the arrows, the pains caused by these disease germs be away from us.
Translation
May the Calm, Auspicious God, the source of all medicines, bless us. May the spiritual power of the soul quell diabolical sentiments. May the shafts shot by these satanic intentions fall far from us. [1]
Footnote
[1] A man should subdue baser passions through his soul-force, and allow not the carnal desires, which try to attack him approach him. He should remain far from sinful designs
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
टिप्पणी–अजमेर के पुस्तक और सायणभाष्य की संहिता में (अपः) पाठ है और सायणभाष्य और पं० सेवकलाल मुद्रापित पुस्तक में (आपः) पाठ है, हमने भी (आपः) ही लिया है ॥ ६–शम्। अ० १।३।१। शमनाय। शान्तिप्रदाः। आपः। अ० १।५।३। जलानि। ओषधयः। अ० १।२३।१। ओष–डुधाञ् धारणपोषणयोः–कि। अन्नादिबलप्रदपदार्थाः। शिवाः। अ० १।६।४। सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति शीङ् शयने–वन्। शीङो ह्रस्वत्वम्। शिवम्=सुखम्–निघ० ३।६। ततो अर्शआद्यच्। सुखकारिण्यः। इन्द्रस्य। अ० १।२।३। परमैश्वर्यवतः पुरुषस्य। वज्रः। अ० १।७।७। कुलिशः। कुठारः। अपहन्तु। अपहननं विनाशं करोतु। रक्षसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति रक्ष पालने–अपादाने असुन्। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्–निरु० ४।१८। कर्मणि षष्ठी। राक्षस्य। दुष्टस्य। आरात्। दूरदेशे। वि–सृष्टाः। वि+सृज त्यागे–क्त। त्यक्ताः। प्रेषिताः। प्रयुक्ताः। इषवः। अ० १।१३।५। शत्रुहिंसका वाणाः। पतन्तु। अधोगच्छन्तु। रक्षसाम्। दुराचारिणां पुरुषाणाम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(আপঃ) জল ও (ঔষধয়ঃ) ওষধি সমূহ (নঃ) আমাদের জন্য (শং) শান্তিকারক ও (শিবাঃ) মঙ্গল দায়ক (ভবন্তু) হউক। (ইন্দ্ৰস্য) ঐশ্বর্যবান পুরুষের (বজ্রঃ) শক্তি (রক্ষসঃ) রাক্ষসদিগকে (অপহন্তু) হনন করুক। (রক্ষসাং) রাক্ষসদের (বিসৃষ্টাঃ) নিক্ষিপ্ত বাণ (আরাৎ) দূরে (পতন্তু) পতিত হউক।।
भावार्थ
জল ও অন্নাদি ওষধিব্রাহ্মাব্দের নিকট শান্তি কারক ও মঙ্গল দায়ক হউক। ঐশ্বর্যবান পুরুষের শক্তি রাক্ষসদিগকে নাশ করুক। রাক্ষসেরা যে বাণ নিক্ষেপ করে তাহা দূরে পতিত হউক।।
मन्त्र (बांग्ला)
শং নো ভবস্তূপ ওষধয়ঃ শিবাঃ ।ইন্দ্রস্য বজ্রো অপ হন্তু রক্ষস আরাদ্বিসৃষ্টা ইষবঃ পতন্তু রক্ষসাম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অঙ্গিরাঃ। (আত্রাব) ভেষজম্। ত্রিপদা স্বরাডুপরিষ্টান্মহাবৃহতী
भाषार्थ
(অপঃ=আপঃ) জলরূপ (ওষধয়ঃ) ঔষধিসমূহ (নঃ) আমাদের জন্য (শিবাঃ) কল্যাণকারী, এবং (শম্) রোগশামক/ রোগ থেকে শান্তিদাতা হোক। (ইন্দ্রস্য বজ্রঃ) মেঘস্থ বিদ্যুতের বজ্র (রক্ষসঃ) রোগরূপী রাক্ষসের (অপহন্তু) অপহনন করে/করুক, (রক্ষসাম্) রোগজীবাণুর (বিসৃষ্টাঃ) প্রযুক্ত (ইষবঃ) রোগরূপী বাণ (আরাদ্) আমাদের থেকে দূরে (পতন্তু) পতিত হোক, আমাদের প্রতি যেষ প্রহার না করে।
टिप्पणी
[ইন্দ্রস্য বজ্রো=মেঘস্থ বিদ্যুৎ। অতঃ অপঃ=আপঃ কে ঔষধি বলা হয়েছে। আপঃ স্ত্রীলিঙ্গ বহুবচনান্ত, ওষধয়ঃ এবং স্ত্রীলিঙ্গ বহুবচনান্ত। আপঃ-কে সর্বৌষধ বলার উদ্দেশ্যে মন্ত্রে আপঃ এর পুনরায় বিবৃতি হয়েছে (মন্ত্র ১)।]
मन्त्र विषय
শারীরিকমানসিকরোগনাশোপদেশঃ
भाषार्थ
(আপঃ) জল ও (ওষধয়ঃ) উষ্ণতা ধারণকারী বা তাপ নাশক অন্নাদি ঔষধি (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) শান্তিকারক ও (শিবাঃ) মঙ্গলদায়ক (ভবন্তু) হোক। (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্যবান পুরুষের (বজ্রঃ) (রক্ষসঃ) রাক্ষসের (অপহন্তু) হনন করুক, (রক্ষসাম্) রাক্ষসদের দ্বারা (বিসৃষ্টাঃ) নিক্ষেপিত (ইষবঃ) বাণ (আরাৎ) দূরে (পতন্তু) পতিত হোক ॥৬॥
भावार्थ
পরমেশ্বরের অনুগ্রহে আমরা পুরুষার্থ করতে থাকি, যাতে জল, অন্ন আদি সব পদার্থ শুদ্ধ থেকে প্রজাদের মধ্যে আরোগ্যতা বৃদ্ধি করে এবং যেমন রাজা চোর, ডাকাত আদি দুষ্টদের শাস্তি প্রদান করে। প্রজাগণ যাতে কষ্ট না পায় এবং সদা আনন্দ ভোগ করে, এভাবেই আমরা নিজেদের দোষের নাশ করে আনন্দ ভোগ করি ॥৬॥ অজমের-এর পুস্তক এবং সায়ণভাষ্যের সংহিতায় (অপঃ) পাঠ আছে এবং সায়ণভাষ্য ও পণ্ডিত সেবকলাল মুদ্রিত পুস্তকে (আপঃ) পাঠ আছে, আমিও (আপঃ) পাঠ গ্রহণ করেছি।
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