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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पतिवेदनः देवता - धनपतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पतिवेदन सूक्त
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    आ क्र॑न्दय धनपते व॒रमाम॑नसं कृणु। सर्वं॑ प्रदक्षि॒णं कृ॑णु॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । क्र॒न्द॒य॒ । ध॒न॒ऽप॒ते॒ । व॒रम् । आऽम॑नसम् । कृ॒णु॒ । सर्व॑म् । प्र॒ऽद॒क्षि॒णम् । कृ॒णु॒ । य: । व॒र: । प्र॒ति॒ऽका॒म्य᳡: ॥३६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ क्रन्दय धनपते वरमामनसं कृणु। सर्वं प्रदक्षिणं कृणु यो वरः प्रतिकाम्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । क्रन्दय । धनऽपते । वरम् । आऽमनसम् । कृणु । सर्वम् । प्रऽदक्षिणम् । कृणु । य: । वर: । प्रतिऽकाम्य: ॥३६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (धनपते) हे धनों की रक्षा करनेवाली [कन्या !] (वरम्) वर को (आ) आदरपूर्वक (क्रन्दय) बुला और (आमनसम्) अपने मन के अनुकूल (कृणु) कर। [उस वर को] (सर्वम्) सर्वथा (प्रदक्षिणम्) अपनी दाहिनी ओर (कृणु) कर, (यः) जो (वरः) वर (प्रतिकाम्यः) नियम करके चाहने योग्य है ॥६॥

    भावार्थ

    पत्नी धनों की रक्षा करती है, वह पति को आदरपूर्वक बुलावे और उसकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता जाने और सदा उसे अपनी दाहिनी ओर रक्खे, अर्थात् जैसे दाहिना हाथ बाएँ हाथ की अपेक्षा अधिक सहायक होता है, इसी प्रकार पत्नी अपने पति को सबसे अधिक अपना हितकारी जानकर सदा प्रीति से सत्कार मान करती रहे। इसी विधि से पति भी पत्नी को अपना हितकारी जाने और उसके साथ प्रीति और प्रतिष्ठा के साथ बर्ताव रक्खे ॥६॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–१–विवाहसंस्कार में वर का आसन वधू के दाहिने हाथ को किया जाता है ॥ २–मन्त्र ५ और ६ का आशय मनु महाराज इस प्रकार कहते हैं–अ० ५।१५० ॥ सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥१॥ स्त्री घर के कामों में प्रसन्नचित्त और चतुर होवे, घर की सामग्री, वासन, वस्त्र आदि को संभालकर रक्खे और व्यय करने में हाथ संकुचित रक्खे ॥ ६–आ क्रन्दय। क्रदि आह्वाने। आदरेण आह्वय। धनपते। हे धनरक्षिके पत्नि। वरम्। वरणीयं पतिम्। आमनसम्। मन बोधे–असुन्। अभिमुखमनस्कम्। अनुकूलचित्तम्। कृणु। कुरु। सर्वम्। सर्वथा। प्रदक्षिणम्। द्रुद्रक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। इति दक्ष–ङ् शीघ्रकरणे, वृद्धौ–इनन्। प्रगता दक्षिणा प्रतिष्ठा यस्य तम्। प्रतिष्ठायुक्तम्। प्रवृद्धम्। समर्थम्। प्रतिष्ठापूर्वकं स्वदक्षिणहस्तस्थितम्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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    विषय

    वर का सम्मान

    पदार्थ

    १. हे (धनपते) = कन्यारूप धन का रक्षण करनेवाले कन्या के पितः ! आप (वरम्) = वर को अपनी कन्या के लिए साथी के रूप में वरण के योग्य युवक को (आक्रन्दय) = आदरपूर्वक आमन्त्रित कीजिए। उसे उचित व्यवहार से (आमनसम्) = सब प्रकार से अनूकूल मनवाला (कृणु) = कीजिए। २. (य:) = जो (प्रतिकाम्य:) = प्रत्येक दृष्टिकोण से-योग्यता, स्वभाव,धन व आयु आदि के विचार से चाहने योग्य (बर:) = वरणीय युवक है, उसके लिए (सर्वम्) = सब प्रदक्षिणम् (कृणु) = [Respectful, Reverential] आदरयुक्त कर्म करने का ध्यान रखिए। इस वर को उचित आदर देते हुए पिता वस्तुतः अपनी कन्या का मान बढ़ा रहा होता है। परिवार के शिष्टाचार से प्रभावित होकर ही वर कन्या के विषय में अपना उचित विचार बना पाता है।

    भावार्थ

    कन्यापक्षवाले वर को बुलाते हैं, उसे अपने व्यवहार से प्रभावित करके और उचितरूप में आदृत करके अनुकूल मनवाला करते हैं।

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    भाषार्थ

    (धनपते) हे धन के पति ! [कन्या के पिता !] (आ क्रन्दय) [वर का] तू आह्वान कर, (वरम्) वर को (आमनसम्) कन्या के अभिमुख मन वाला (कृणु) कर। (प्रदक्षिणम् ) प्रवृद्धिकारक (सर्वम् ) सब धन को ,(कृणु) तू प्रदान कर [उसे ], (यः) जो (वरः) वर ( प्रतिकाम्यः ) प्रत्येक सम्बन्धी को काम्य है, अभीष्ट है। क्रन्दय = क्रदि आह्वाने (भ्वादिः)

    टिप्पणी

    [प्र दक्षिणम् = प्र+ दक्ष वृद्धौ, तत्सम्बन्धी धन, जो कि कन्या के पिता ने विवाह में वर को देना है, जो कि गृहस्थ धर्मों की वृद्धि करे। गृहस्थ में पञ्चमहायज्ञ आदि गृहस्थ-धर्म करने होते हैं, यह प्रदत्त धन धर्म-कर्मों के करने में सहायक होगा।]

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    विषय

    कन्या के लिये योग्य पति की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे (धनपते) ऐश्वर्यवन् ! या कन्या के पितः ! उस (वरम्) वर को (आक्रन्दय) बुलाओ और उसको (आमनसंः) अनुकूल चित्त वाला (कृणु) करो (यः) जो (वरः) वर (प्रतिकाम्यः) कन्या के अभिलाषा के अनुकूल है। हे वर ! तू (सर्वं) सबको (प्रदक्षिणं कृणु) अपने दायें रख कर अथवा (सर्वं प्रदक्षिणं कृणु) हे वर ! तू सर्व=अग्नि की प्रदक्षिणा कर। ‘सर्व-शर्वः, अग्नि के आठ नामों में से एक नाम है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पतिवेदन ऋषिः। अग्नीषोमौ मन्त्रोक्ता सोमसूर्येन्द्रभगधनपतिहिरण्यौषधयश्च देवताः। १ भुरिग्। २, ५-७ अनुष्टुभः। ३, ४ त्रिष्टुभौ। ८ निचृत् पुरोष्णिक् । अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Happy Matrimony

    Meaning

    O mistress of good fortune, call on and keep the husband with you. Keep him happy at heart with you. Keep him wholly on the right side of you, him who is in mutual love with you, worthy of your love.

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    Subject

    Dhanapati

    Translation

    O Lord of wealth, may you call out to my beloved wooer. May you make him well inclined towards me. Offer all that you can to the husband of my choice (who is nice and worthy).

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    Translation

    O’ mistress of fortunes, call out your groom, make him accordant to your mind, keep quite in your right destiny to him who is the groom desiring you with Vedic vows.

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    Translation

    O woman, mount up, embark on thy husband’s ship of domestic life, which is full and indestructible. Make him, whom thou fain wouldst wed, cross thereby the ocean of world’s misery!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी–१–विवाहसंस्कार में वर का आसन वधू के दाहिने हाथ को किया जाता है ॥ २–मन्त्र ५ और ६ का आशय मनु महाराज इस प्रकार कहते हैं–अ० ५।१५० ॥ सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥१॥ स्त्री घर के कामों में प्रसन्नचित्त और चतुर होवे, घर की सामग्री, वासन, वस्त्र आदि को संभालकर रक्खे और व्यय करने में हाथ संकुचित रक्खे ॥ ६–आ क्रन्दय। क्रदि आह्वाने। आदरेण आह्वय। धनपते। हे धनरक्षिके पत्नि। वरम्। वरणीयं पतिम्। आमनसम्। मन बोधे–असुन्। अभिमुखमनस्कम्। अनुकूलचित्तम्। कृणु। कुरु। सर्वम्। सर्वथा। प्रदक्षिणम्। द्रुद्रक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। इति दक्ष–ङ् शीघ्रकरणे, वृद्धौ–इनन्। प्रगता दक्षिणा प्रतिष्ठा यस्य तम्। प्रतिष्ठायुक्तम्। प्रवृद्धम्। समर्थम्। प्रतिष्ठापूर्वकं स्वदक्षिणहस्तस्थितम्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ধনপতে) হে ধনপতি ! [কন্যার পিতা !] (আ ক্রন্দয়) [বরের] তুমি আহ্বান করো, (বরম্) বরকে (আমনসম্) কন্যার প্রতি অভিমুখী মনের (কৃণু) করো। (প্রদক্ষিণম্) প্রবৃদ্ধিকারক (সর্বম্) সব ধন (কৃণু) তুমি প্রদান করো [তাঁকে], (যঃ) যে (বরঃ) বর (প্রতিকাম্যঃ) প্রত্যেক সম্পর্কিতদের কাম্য, অভীষ্ট। ক্রন্দয়=ক্রদি আহ্বানে (ভ্বাদিঃ)

    टिप्पणी

    [প্র দক্ষিণম্= প্র+ দক্ষ বৃদ্ধৌ, তৎসম্বন্ধী ধন, যা কন্যার পিতা বিবাহে বরকে প্রদান করবে, যা গৃহস্থ ধর্মের বৃদ্ধি করে। গৃহস্থে পঞ্চমহাযজ্ঞ আদি গৃহস্থ-ধর্ম করতে হয়, এই প্রদত্ত ধন ধর্ম-কর্ম করার ক্ষেত্রে সহায়ক হবে।]

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    मन्त्र विषय

    বিবাহসংস্কারোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ধনপতে) হে ধন-সম্পদের রক্ষক [কন্যা !] (বরম্) বরকে (আ) আদরপূর্বক (ক্রন্দয়) আহ্বান করো এবং (আমনসম্) নিজের মনের অনুকূল (কৃণু) করো। [সেই বরকে] (সর্বম্) সর্বদা (প্রদক্ষিণম্) নিজের ডানদিকে (কৃণু) করো, (যঃ) যে (বরঃ) বর (প্রতিকাম্যঃ) কামনাযোগ্য ॥৬॥

    भावार्थ

    পত্নী ধন-সম্পদের রক্ষা করে, সে পতিকে আদরপূর্বক আহ্বান করুক এবং তাঁর প্রসন্নতায় নিজের প্রসন্নতা জানুক এবং সদা তাঁকে নিজের ডানদিকে রাখুক, অর্থাৎ যেমন ডান হাত বাম হাতের অপেক্ষা অধিক সহায়ক হয়, এইভাবে পত্নী নিজের পতিকে সবথেকে অধিক নিজের হিতকারী জেনে সদা প্রীতিপূর্বক সৎকার মান করুক। এই বিধিতে পতিও পত্নীকে নিজের হিতকারী জানুক এবং তাঁর সাথে প্রীতি ও প্রতিষ্ঠার সাথে আচরণ করুক ॥৬॥ বিবাহসংস্কারে বরের আসন বধূর ডানদিকে করা হয় ॥ ২–মন্ত্র ৫ এবং ৬ এর উদ্দেশ্য মনু মহারাজ বলেছেন–অ০ ৫।১৫০ ॥ সদা প্রহৃষ্টয়া ভাব্যং গৃহকার্যেষু দক্ষয়া। সুসংস্কৃতোপস্করয়া ব্যযে চামুক্তহস্তয়া ॥১॥ স্ত্রী গৃহকার্যে প্রসন্নচিত্ত এবং চতুর হোক, ঘরের সামগ্রী, বাসন, বস্ত্র আদিকে সাবধানতাপূর্বক রাখুক এবং ব্যয় করার ক্ষেত্রে হাত সঙ্কুচিত রাখুক ॥

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