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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - चतुष्पदार्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - सपत्नहाग्नि
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    क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वेन॒ सं र॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धा य॑तस्व। स॑जा॒तानां॑ मध्यमे॒ष्ठा राज्ञा॑मग्ने वि॒हव्यो॑ दीदिही॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒त्रेण॑ । अ॒ग्ने॒ । स्वेन॑ । सम् । र॒भ॒स्व॒ । मि॒त्रेण॑ । अ॒ग्ने॒ । मि॒त्र॒ऽधा: । य॒त॒स्व॒ । स॒ऽजा॒ताना॑म् । म॒ध्य॒मे॒ऽस्था: । राज्ञा॑म् । अ॒ग्ने॒ । वि॒ऽहव्य॑: । दी॒दि॒हि॒ । इ॒ह ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षत्रेणाग्ने स्वेन सं रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व। सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षत्रेण । अग्ने । स्वेन । सम् । रभस्व । मित्रेण । अग्ने । मित्रऽधा: । यतस्व । सऽजातानाम् । मध्यमेऽस्था: । राज्ञाम् । अग्ने । विऽहव्य: । दीदिहि । इह ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजनीति से मनुष्य प्रतापी और तेजस्वी होवे।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे तेजस्वी राजन् (स्वेन) अपने (क्षत्रेण) क्षत्रिय धर्म वा धन के साथ (संरभस्व) उत्साह कर, (अग्ने) हे तेजस्वी राजन् ! (मित्रेण) मित्रवर्ग के साथ (मित्रधाः) मित्रों का पुष्ट करनेवाला होकर (यतस्व) प्रयत्न कर। और (अग्ने) हे तेजस्वी राजन् ! (सजातानाम्) तुल्य जन्मवालों के बीच (मध्यमेष्ठाः) पञ्चों में बैठनेवाला और (राज्ञाम्) क्षत्रियों के बीच में (विहव्यः) विशेष करके आवाहनयोग्य होकर (इह) यहाँ पर (दीदिहि) प्रकाशमान हो ॥४॥

    भावार्थ

    नीतिकुशल राजा धर्मकार्यों में स्फूर्ति रक्खे और हितकारियों के साथ हित करे और सदैव न्याययुक्त व्यवहार रक्खे, जिससे सब छोटे और बड़ों में प्रेम के साथ उसकी कीर्ति बढ़े ॥४॥ यजुर्वेद अध्याय २७ म० ५। में ऐसा पाठ है। क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वायुः सर॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धेये॑ यतस्व। स॒जा॒तानां॑ मध्यम॒स्था ए॑धि॒ राज्ञा॑मग्ने विह॒व्यो॑ दीदिही॒ह ॥ (अग्ने) हे अग्नि के तुल्य तेजस्विन् विद्वन् ! (क्षत्रेण) राज्य वा धन के साथ (स्वायुः=सु–आयुः) सुन्दर जीवन (सम् रभस्व) अच्छे प्रकार आरम्भ कर। (अग्ने) हे तेजस्विन् ! (मित्रेण) मित्र वर्ग के साथ (मित्रधेये) मित्रों के धारण करने में (यतस्व) यत्न कर। (सजातानाम्) समान अवस्थावालों में (मध्यमस्थाः) मध्यस्थ (एधि) हो, (अग्ने) हे न्यायप्रकाशक ! (राज्ञाम्) राजाओं के बीच (विहव्यः+सन्) विशेषकर बुलानेयोग्य होकर (इह) यहाँ पर (दीदिहि) प्रकाशित हो ॥

    टिप्पणी

    ४–क्षत्रेण। गुधृवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः। उ० ४।१६७। इति क्षद गतिहिंसनयोः, रक्षणे च–त्र प्रत्ययः। बलेन, क्षत्रियत्वेन। धनेन–निघ० २।१०। अग्ने। तेजस्विन् विद्वन्। सम्–रभस्व। रभ राभस्ये=उत्सुकीभावे। संरम्भम् उत्साहं कुरु। मित्रेण। सुहृद्गणेन। मित्रधाः। मित्र+धाञ्–विच् मित्राणां पोषकः सन्। यतस्व। यती प्रयत्ने। प्रयत्नं कुरु। सजातानाम्। समानजन्मनाम्। तुल्यावस्थानाम्। मध्यमेष्ठाः। मध्ये भवो मध्यमः। मध्यान्मः पा० ४।३।८। इति मध्य–म। ष्ठा गतिनिवृत्तौ–विच्। वा क्विप्। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इत्यलुक्। सुषामादिषु च। पा० ८।३।९८। इति षत्वम्। मध्यमेषु न्यायकारिषु प्रधानेषु स्थितः। राज्ञाम्। ईश्वराणां क्षत्रियाणां मध्ये। विहव्यः। ह्वः सम्प्रसारणं च न्यभ्युपविषु। पा० ३।३।७२। इति ह्वेञ् आह्वाने अप् संप्रसारणं च। ततः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। विविधमाह्वातव्यः। दीदिहि। म० १। दीप्यस्व। इह। अत्र ॥

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    विषय

    राष्ट्र-रक्षण

    पदार्थ

    १.हे (अग्ने) = सेना का संचालन करनेवाले राजन् ! (स्वेन क्षत्रेण) = अपने राष्ट्र रक्षक क्षत्रीय वर्ग के साथ (सं रभस्व) = तू राष्ट्र-रक्षण के लिए सम्यक् उद्योगवाला हो। (मित्रधा:) = अपने मित्रों का धारण करनेवाला तू हे (अग्ने) = राजन्! (मित्रेण यतस्व) = अपने मित्रों के साथ मिलकर राष्ट्र-रक्षण के लिए यलशील हो। कई बार प्रबल शत्रु से राष्ट्र-रक्षण के प्रसंग में मित्रों की सहायता लेनी आवश्यक ही होती है। २. (सजातानाम्) = साथ ही विकास करनेवाले, समान आयुष्यवाले (राज्ञाम्) = राजाओं में तू (मध्यमेष्ठा:) = मध्य में स्थित होनेवाला हो, अर्थात् यदि कभी ऐसे दो राजाओं में कुछ संघर्ष पैदा हो जाए तो तू उनका झगड़ा निबटानेवाला बन । हे (अग्ने) = राजन्! तू (विहव्यः) = विशेषरूप से पुकारने योग्य होता हुआ इह-इस राष्ट्र में (दीदिहि) = चमकनेवाला हो। राजा की प्रतिष्ठा में राष्ट्र प्रतिष्ठित होता है। राजा की उन्नति से राष्ट्र की उन्नति आंकी जाती है।

    भावार्थ

    सेना के उत्तम संचालन से राजा राष्ट्र की रक्षा करे। समान राजाओ में यह मध्यस्थता करने की योग्यतावाला हो। इसके कारण राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।

     

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (स्वेन क्षत्रेण) निज क्षत्र द्वारा (संरभस्व) उग्रता का काम अर्थात् युद्ध कर, (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (मित्रधा) मित्र राजाओं का पोषण करनेवाला तू (मित्रेण) स्नेही मन्त्री द्वारा [उनके पोषण के लिए] (यतस्व) यत्न किया कर। (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (सजाताम्) एक ही साम्राज्य में उत्पन्न (राज्ञाम्) राजाओं का (मध्यमेष्ठाः) मध्यस्थ हुआ तू (इह) इस साम्राज्य में (विहव्यः) विरोधी या विविध राजाओं द्वारा आह्वानयोग्य हुआ (दीदिहि) प्रकाशित हो।

    टिप्पणी

    [राजा दो प्रकार के हैं, सजात तथा विजात। अपने साम्राज्य में उत्पन्न राजा सजात हैं, वे हैं यथा "इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजुः० ८।३७), तथा विजात हैं अन्य साम्राज्यों में उत्पन्न राजा। क्षत्र हैं क्षत्रिय-सैनिक। मित्रधा=मित्र+धाञ् +विच् (सायण)। दीदिहि= दीदयति ज्वलतिकर्मा (निघं० १।१६)। मन्त्र द्वारा प्रतीत होता है कि निज साम्राज्य के राजाओं में परस्पर वियाद की अवस्था में प्रधानमन्त्री उनमें मध्यस्थ होकर विवाद में निर्णय दे।]

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    विषय

    विद्वान् राजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) परमेश्वर और राजन् ! आप ( स्वेन ) अपने ( क्षत्रेण ) क्षत् से त्राण करने वाले सामर्थ्य से या क्षत्रिय-सैन्य-बल से और (सं रभस्व) आलम्बन दे या अच्छी प्रकार विजय आरम्भ कर और हे ( अग्ने ) परमेश्वर और राजन् ! (मित्रेण) मित्र अर्थात् अपने मित्ररूप भक्त उपासक के साथ मिलकर या मित्र राष्ट्र के साथ मिलकर (मित्रधाः) मित्रभूत उपासकों या मित्रशक्तियों अर्थात् मित्रभूत राजाओं को पोषण और धारण करता हुआ ( यतस्व ) प्रजा के उपकार का या युद्ध विजय करने का यत्न कर। और (सजातानां) तेरी एक जाति के या समान बल के (राज्ञाम्) प्रकाशमान आत्माओं या राजाओं के (मध्यमेष्ठाः) भीतर स्थित या मध्यस्थ होकर रहता हुआ (विहव्यः) विशेषरूप से जिसके प्रति समर्पण किया जाता है या विशेष युद्ध करने में अन्न, बल सम्पन्न होकर ( इह ) इस संसार में (दीदिहि) यशस्वी हो, विराजमान रह ।

    टिप्पणी

    (प्र०) क्षत्रेणाग्ने स्वायुः, (द्वि०) ‘मित्रधेये यतस्व’(तृ०)‘मध्यमस्या एधि’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। अग्निस्तुतिः। १-३ त्रिष्टुभः। ४ चतुष्पदा आर्षी पंक्तिः। ५ विराट् प्रस्तारपङ्क्तिः । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Dharma and Enlightenment

    Meaning

    Agni, bright and blazing as light and fire with your own refulgence, take over and start well here with this world order. Mighty intelligent ruler, rule and work in a spirit of friendship over this covenant of friends. Seated at the centre of an assembly of equals, rulers all, shine and rule, honoured and invoked as first among friends.

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    Translation

    O foremost adorable Lord, please take hold of thine own dominion, with your devotees, please strive in friendly wise.Placed be in the center of our fellows, O Lord, shine you here with flash, and be invoked by our princes and kings. (also Yv. XXVI II.5)

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    Translation

    This Yajna fire works out its Operations with its Preservative power in a propitious way. This fire Possessed of Many powers and present in the centre of the effulgent objects of contemporaneous existence flashes forth in this world.

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    Translation

    O King, exert with thy material resources. Behave towards your friend as a friend. Act as an umpire in the midst of your co-equals. Flash forth to be invoked by kings around thee. [1]

    Footnote

    [1] See Yajur, 27-5,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–क्षत्रेण। गुधृवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः। उ० ४।१६७। इति क्षद गतिहिंसनयोः, रक्षणे च–त्र प्रत्ययः। बलेन, क्षत्रियत्वेन। धनेन–निघ० २।१०। अग्ने। तेजस्विन् विद्वन्। सम्–रभस्व। रभ राभस्ये=उत्सुकीभावे। संरम्भम् उत्साहं कुरु। मित्रेण। सुहृद्गणेन। मित्रधाः। मित्र+धाञ्–विच् मित्राणां पोषकः सन्। यतस्व। यती प्रयत्ने। प्रयत्नं कुरु। सजातानाम्। समानजन्मनाम्। तुल्यावस्थानाम्। मध्यमेष्ठाः। मध्ये भवो मध्यमः। मध्यान्मः पा० ४।३।८। इति मध्य–म। ष्ठा गतिनिवृत्तौ–विच्। वा क्विप्। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इत्यलुक्। सुषामादिषु च। पा० ८।३।९८। इति षत्वम्। मध्यमेषु न्यायकारिषु प्रधानेषु स्थितः। राज्ञाम्। ईश्वराणां क्षत्रियाणां मध्ये। विहव्यः। ह्वः सम्प्रसारणं च न्यभ्युपविषु। पा० ३।३।७२। इति ह्वेञ् आह्वाने अप् संप्रसारणं च। ततः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। विविधमाह्वातव्यः। दीदिहि। म० १। दीप्यस्व। इह। अत्र ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন! (দ্বেন) স্বীয় (ক্ষত্রেণ) ক্ষাত্র ধর্মের সহিত (সংরভম্ব) উৎসাহ কর (অগ্নে) হে রাজন! (মিত্রেণ) মিত্র বর্গের সহিত (মিত্রধাঃ) মিত্র বর্গের পোষক হইয়া (য়তস্ব) প্রযত্ন কর। (অগ্নে) হে রাজন! (সজাতানাং) সমান জন্মযুক্ত প্রাণীদের মধ্যে (বিহব্যঃ) আবাহন যোগ্য হইয়া (ইহ্) এখানে (দীদিহি) প্রকাশমান হও।।

    भावार्थ

    হে তেজস্বী রাজন! স্বীয় ক্সাত্র ধর্মের সহিত উদ্যমশীল হও। হে রাজন! মিত্র বর্গের সহিত মিলিয়া পরস্পরকে পোষণ কর এবং প্রযত্নশীল হও। মনুষ্যের মধ্যে মধ্যস্থ হও ও ক্ষত্রিয়দের মধ্যে আবাহন যোগ্য হইয়া এই সংসারে উজ্জ্বল হও।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    ক্ষত্রেণাগ্নে স্বেন সং রভস্ব মিত্রেণাগ্নে মিত্রধা য়তস্ব। সজাতানাং মধ্যমেষ্ঠা রাজ্ঞামগ্নে বিহব্যো দীদিহীহ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    শৌনকঃ (সম্পৎকামঃ)। অগ্নিঃ। চতুষ্পদাহর্ষী পঙ্ক্তিঃ

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    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (স্বেন ক্ষত্রেণ) নিজ ক্ষত্র তথা বীরতেজ দ্বারা (সংরভস্ব) উগ্রতার কার্য অর্থাৎ যুদ্ধ করো, (অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রিন ! (মিত্রধা) মিত্র রাজাদের পোষণকারী তুমি (মিত্রেণ) স্নেহশীল মন্ত্রী দ্বারা [তাঁদের পোষণের জন্য] (যতস্ব) প্রচেষ্টা করো। (অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (সজাতাম্) একই সাম্রাজ্যে উৎপন্ন (রাজ্ঞাম্) রাজাদের (মধ্যমেষ্ঠাঃ) মধ্যস্থ তুমি (ইহ) এই সাম্রাজ্যে (বিহব্যঃ) বিরোধী বা বিবিধ রাজাদের দ্বারা আহ্বানযোগ্য হয়ে (দীদিহি) প্রকাশিত হও।

    टिप्पणी

    [রাজা দুই প্রকারের, সজাত এবং বিজাত। নিজের সাম্রাজ্যে উৎপন্ন রাজা সজাত, সে হল যথা "ইন্দ্রশ্চ সম্রাড্ বরুণশ্চ রাজা" (যজুঃ০ ৮।৩৭), এবং বিজাত হল অন্য সাম্রাজ্যে উৎপন্ন রাজা। ক্ষত্র হলো ক্ষত্রিয়-সৈনিক। মিত্রধা= মিত্র+ ধাঞ্+বিচ (সায়ণ)। দীদিহি= দীদয়তি জ্বলতিকর্মা (নিঘং০ ১।১৬)। মন্ত্র দ্বারা প্রতীত হয় যে, নিজ সাম্রাজ্যের রাজাদের মধ্যে পরস্পর বিবাদের অবস্থায় প্রধানমন্ত্রী তাঁদের মধ্যস্থ হয়ে বিবাদের সমাধান করে/করবে।]

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    मन्त्र विषय

    রাজধর্মেণ মনুষ্যঃ প্রতাপী তেজস্বী চ ভূয়াৎ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন্ (স্বেন) নিজের (ক্ষত্রেণ) ক্ষত্রিয় ধর্ম বা ধন-সম্পদের সাথে (সংরভস্ব) উৎসাহ করো, (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন্ ! (মিত্রেণ) মিত্রবর্গের সাথে (মিত্রধাঃ) মিত্রদের পুষ্টকারী হয়ে (যতস্ব) প্রয়ত্ন/প্রচেষ্টা করো। এবং (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন্ ! (সজাতানাম্) তুল্য জন্ম-বিশিষ্টদের মধ্যে (মধ্যমেষ্ঠাঃ) মধ্যস্থ এবং (রাজ্ঞাম্) ক্ষত্রিয়দের মাঝে (বিহব্যঃ) বিশেষ করে আবাহনযোগ্য হয়ে (ইহ) এখানে (দীদিহি) প্রকাশমান হও ॥৪॥

    भावार्थ

    নীতিকুশল রাজা ধর্মকার্যে স্ফূর্তি/উত্তম পুরুষার্থ করুক এবং হিতকরীদের সাথে হিত করুক এবং সদৈব ন্যায়যুক্ত ব্যবহার/আচরণ করুক, যাতে ছোটো ও বড়োদের প্রেমের সাথে তাঁর কীর্তি বৃদ্ধি পায় ॥৪॥ যজুর্বেদ অধ্যায় ২৭ ম০ ৫। এ এমন পাঠ আছে। ক্ষত্রেণাগ্নে স্বায়ুঃ সঁ রভস্ব মিত্রেণাগ্নে মিত্রধেয়ে যতস্ব । সজাতানাম্মধ্যমস্থাঽএধি রাজ্ঞামগ্নে বিহব্যো দীদিহীহ ॥ (অগ্নে) হে অগ্নির তুল্য তেজস্বী বিদ্বান্ ! (ক্ষত্রেণ) রাজ্য বা ধন-সম্পদের সাথে (স্বায়ুঃ=সু–আয়ুঃ) সুন্দর জীবন (সম্ রভস্ব) উত্তমরূপে আরম্ভ করো। (অগ্নে) হে তেজস্বিন্ ! (মিত্রেণ) মিত্র বর্গের সাথে (মিত্রধেয়ে) মিত্রদের ধারণ করার ক্ষেত্রে (যতস্ব) যত্ন করো। (সজাতানাম্) সমান অবস্থা-বিশিষ্টদের (মধ্যমস্থাঃ) মধ্যস্থ (এধি) হও, (অগ্নে) হে ন্যায়প্রকাশক ! (রাজ্ঞাম্) রাজাদের মাঝে (বিহব্যঃ+সন্) বিশেষ আহ্বানযোগ্য হয়ে (ইহ) এখানে (দীদিহি) প্রকাশিত হও ॥

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