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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - सपत्नहाग्नि
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    अति॒ निहो॒ अति॒ सृधो ऽत्यचि॑त्ती॒रति॒ द्विषः॑। विश्वा॒ ह्य॑ग्ने दुरि॒ता तर॒ त्वमथा॒स्मभ्यं॑ स॒हवी॑रं र॒यिं दाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । निह॑: । अति॑ । सृध॑: । अति॑ । अचि॑त्ती: । अति॑ । द्विष॑: । विश्वा॑ । हि । अ॒ग्ने॒ । दु॒:ऽइ॒ता । त॒र॒ । त्वम् । अथ॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । स॒हऽवी॑रम् । र॒यिम् । दा॒: ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति निहो अति सृधो ऽत्यचित्तीरति द्विषः। विश्वा ह्यग्ने दुरिता तर त्वमथास्मभ्यं सहवीरं रयिं दाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति । निह: । अति । सृध: । अति । अचित्ती: । अति । द्विष: । विश्वा । हि । अग्ने । दु:ऽइता । तर । त्वम् । अथ । अस्मभ्यम् । सहऽवीरम् । रयिम् । दा: ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजनीति से मनुष्य प्रतापी और तेजस्वी होवे।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे तेजस्वी राजन् ! [(अति) अत्यन्त (निहः) शत्रुनाशक शूर होकर। अथवा] (निहः) नीच गतिवालों को (अति=अतीत्व) लाँघकर, (सृधः) हिंसकों को (अति) लाँघकर, (अचित्तीः) पापबुद्धि प्रजाओं को (अति) लाँघकर और (द्विषः) द्वेष करनेवालों का (अति) तिरस्कार करके, (त्वम्) तू (हि) ही (विश्वा=विश्वानि) सब (दुरिता=०–तानि) संकटों को (तर) पारकर, (अथ) और (अस्मभ्यम्) हमें (सहवीरम्) वीर पुरुषों के सहित (रयिम्) धन (दाः) दे ॥५॥

    भावार्थ

    राजा सावधानी से प्रजा के सब क्लेशों को हरे और ऐसा प्रयत्न करे कि प्रजा के सब पुरुष उत्साही, शूरवीर और धनाढ्य हों ॥५॥ २–इस मन्त्र का पाठ यजुर्वेद २७।६। में ऐसा है। अति॒ निहो॒ अति॒स्रिधोऽत्यचि॑त्ति॒मत्यरा॑तिमग्ने। विश्वा॒ ह्य॑ग्ने॒ दुरि॒ता सह॒स्वाथा॒स्मभ्य॑ स॒ह वी॑रा र॒यिं दाः ॥१॥ (अग्ने) हे तेजस्विन् राजन् ! (अति निहः) अत्यन्त शूर होकर (स्रिधः) दुष्टों को (अति) हटाकर, (अचित्तिम्) अज्ञान को (अति) हटाकर, (अरातिम्) कंजूसपन को (अति) हटाकर (विश्वा दुरितानि) सब विघ्नों को (सहस्व) दबा दे, (अथ) और (अस्मभ्यम्) हमें (सहवीराम्) वीरों से युक्त सेना और (रयिम्) धन (दाः) दे ॥ १–(सृधः) के स्थान पर सायणभाष्य में (स्रधः) पद है ॥

    टिप्पणी

    ५–अति। अतिशयेन। निहः। निहन्तीहि निहः। नि+हन्–ड। शत्रुहन्ता। शूरः सन्। अग्नेर्विशेषणम्। अथवा। अति। अतीत्य। अतिक्रम्य। निहः। नि+ओहाङ् गतौ–क्विप्। आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। इति शसि आकारलोपः। निकृष्टगतीन् दुष्टान्। सृधः। सृध स्रध वा शोषणे कुत्सितकर्मणि वा–क्विप्। छान्दसो धातुः। देहशोषकान्। कुत्सिताचारान्। अचित्तीः। अ+चित्त संचेतने–क्तिन्। अशोभनबुद्धीः। शत्रुसेनाः। अज्ञानानि। द्विषः। द्विष–क्विप्। अप्रीतिकरान्। द्वेष्टॄन्। विश्वा। विश्वानि सर्वाणि। दुरिता। दुर् दुष्टमितं गमनमनेन। दुर्+इण् गतौ–भावे क्त। पापानि। संकटानि। तर। तॄ तरणे, अभिभवे। अभिभव। सहवीरम्। तेन सहेति तुल्ययोगे। पा० ६।३।२८। इति तुल्यक्रियायोगे बहुव्रीहिः। वोपसर्जनस्य। पा० ६।३।८२। इति सहस्य सभावो विकल्पत्वान्न प्रवर्तते। वीरैः सहितम्। रयिम्। अ० १।१५।२। रीङ् गतौ–इ प्रत्ययः। धनम्–निघ० २।१०। दाः। डुदाञ् विधिलिङि छान्दसं रूपम्। त्वं दधाः ॥

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    विषय

    सबलता व सम्पन्नता

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = राजन्! तू राष्ट्र में (निहः) = [निहन्ति इति] औरों का वध करनेवालों को (अति) = [तर]-लाँधनेवाला हो। उन्हें उचित दण्ड आदि देकर राष्ट्र में इन वध के अपराधों को समाप्त करनेवाला हो । (स्वधः) = [कुत्सित कर्मणि] अन्य कुत्सित कर्म करनेवालों को तू (अति) = [तर]-समाप्त कर । (अचित्ती:) = अज्ञानियों को (अति) = [तर]-ज्ञान-प्रसार के द्वारा समाप्त करनेवाला हो। (द्विषः) = सब द्वेष करनेवालों को (अति) = [तर]-तू दूर कर। ठीक बात तो यह है कि (हि) = निश्चय से विश्वा दुरिता (तर) = सब बुराइयों को तू राष्ट्र से दूर करनेवाला हो। २. इसप्रकार राष्ट्र के अपराधों व अशुभ वृत्तियों को दूर करके (त्वम्) = तू (अथ) = अब (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सहवीरम) = वीरता के २ साथ (रयिम्) = धन (दा:) = दे। राजा का यह भी कर्तव्य है कि वह राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था करे कि उसके राष्ट्र में सब वीर तथा सम्पन्न हो। निर्बलता व निर्धनता को दूर करना भी राजा का आवश्यक कर्तव्य है।

     

    भावार्थ

    राजा राष्ट्र से बुराइयों का उन्मूलन करके सबको सबल व सम्पन्न बनाए।

    विशेष

    सूक्त में कहा है-राजा राष्ट्र में सर्वत्र ज्ञान का प्रसार करे [१]। वह राष्ट्र के सौभाग्य का वर्धन करनेवाला हो [२]। राष्ट्ररक्षण में सदा जागरित रहे [३]। राष्ट्र को शत्रुओं से आक्रान्त न होने दे [४]। राष्ट्र में सभी को सबल व सम्पन्न बनाए [५]। अगले सूक्त में द्वेष के कारणभूत आक्रोश को दूर करने का सन्देश है। सब आक्रोशों से ऊपर उठनेवाला यह मन पूर्ण प्रभुत्ववाला 'अथर्वा' [डाँवाडोल न होनेवाला] बनता है और प्रार्थना करता है कि -

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    भाषार्थ

    (निहः) नितरां हनन करनेवाले विषयज दोषों से [सायण] (अति तर) हमें तैरा, (अति स्रिधः) शोषण करनेवाले दोषों से तैरा, (अति अचित्ती:) अज्ञानमयी चित्तवृत्तियों से तैरा, (अति द्विषः) द्वेषभावनाओं से तैरा। (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (विश्वा दुरिता= विश्वानि दुरितानि) सब दुरितों को (त्वम्) तू भी (तर) तैर, (अथ) तदनन्तर (सहवीरम्) वीर पुत्रोंसहित (रयिम्) ऐश्वर्य (दाः) हमें दे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "तर" पद के प्रयोग द्वारा दोषों को "नद" कहा है। इन्हें तर जाना सूचित किया है। दुरिता तर=दुरितानि परासुव। स्रिधः = स्रेधतिः शोषणकर्मा छान्दसः (सायण)। अतितर= अतितारय, अन्तर्णीतण्यर्थ (सायण)]

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    विषय

    विद्वान् राजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) परमेश्वर और राजन् ! ( त्वम् ) तू ( निहः ) घातक कामादि या समस्त प्रजानाशक शत्रु के प्रतिभटों को (अतितर) विजय कर और (सृधः) देह का या राष्ट्र का धन और बल शोषण करने और कुत्सित आचरण वाले कामादि या लोगों को भी (अतितर) वश कर और ( अचित्तीः ) आत्मिक अज्ञान या प्रजास्थ अज्ञान का भी (अतितर) नाश कर, ( द्विषः अति ) द्वेष आदि कुत्सित भावों या प्रजा में पारस्परिक द्वेषभाव को भी वश कर। हे अग्ने ! परमेश्वर और राजन् तू (विश्वा) समस्त (दुरिता) दुष्ट आचरणों को (अति तर) नष्ट कर। ( अथ ) और (अस्मभ्यं) हमें (सहवीरं) वीरपुत्रों सहित और वीरपुरुषों सहित ( रयिं ) आत्मिक या प्राकृतिक धन लक्ष्मी को ( दाः ) दे, प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    ‘अतिस्त्रिधो’ इति (द्वि०) अतिस्निधोऽत्यचित्तिमत्यरातिमग्ने। विश्वाह्यग्ने दुरितासहस्वाथा स्मभ्य ꣲ सहवीरा ꣲ रयिंदाः । इति यजु०। स्रेवतिः कुत्सितकर्मा इति उव्वटः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। अग्निस्तुतिः। १-३ त्रिष्टुभः। ४ चतुष्पदा आर्षी पंक्तिः। ५ विराट् प्रस्तारपङ्क्तिः । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Dharma and Enlightenment

    Meaning

    Dispelling the distrustful, repelling the false and wicked, eliminating ignorance and stupidity, fighting out all jealousy and enmity, subdue and get over all evils and undesirables of the world and give us a commonwealth of brave good heroes, overflowing with plenty, prosperity and generosity.

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    Translation

    O adorable Lord, overpower them who slay; may you crush our énemies;please defeat the plans of thoughtless persons;subdue them who hate us. O Lord, please hear us and take us safe past all distresses. Please make us and all our people opulent ; (may we be accompanied) with heroes. (also Yv. XXVII.6)

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    Translation

    This fire of Yajna overcomes our passion, this subdues our tendency of violence, this crushes down the elements of ignorance and it extirpates the our internal enemiesigoism, aversion, covetousness etc. This uproots all the evil tendencies and becomes the source of giving us wealth accompanied with brave progeny.

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    Translation

    O King, suppress wicked persons, subdue lust, overcome spiritual ignorance, banish mean sentiments. Drive away all sins. Vouchsafe us opulence with heroic sons. [1]

    Footnote

    [1] See yajur, 27-6.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–अति। अतिशयेन। निहः। निहन्तीहि निहः। नि+हन्–ड। शत्रुहन्ता। शूरः सन्। अग्नेर्विशेषणम्। अथवा। अति। अतीत्य। अतिक्रम्य। निहः। नि+ओहाङ् गतौ–क्विप्। आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। इति शसि आकारलोपः। निकृष्टगतीन् दुष्टान्। सृधः। सृध स्रध वा शोषणे कुत्सितकर्मणि वा–क्विप्। छान्दसो धातुः। देहशोषकान्। कुत्सिताचारान्। अचित्तीः। अ+चित्त संचेतने–क्तिन्। अशोभनबुद्धीः। शत्रुसेनाः। अज्ञानानि। द्विषः। द्विष–क्विप्। अप्रीतिकरान्। द्वेष्टॄन्। विश्वा। विश्वानि सर्वाणि। दुरिता। दुर् दुष्टमितं गमनमनेन। दुर्+इण् गतौ–भावे क्त। पापानि। संकटानि। तर। तॄ तरणे, अभिभवे। अभिभव। सहवीरम्। तेन सहेति तुल्ययोगे। पा० ६।३।२८। इति तुल्यक्रियायोगे बहुव्रीहिः। वोपसर्जनस्य। पा० ६।३।८२। इति सहस्य सभावो विकल्पत्वान्न प्रवर्तते। वीरैः सहितम्। रयिम्। अ० १।१५।२। रीङ् गतौ–इ प्रत्ययः। धनम्–निघ० २।१०। दाः। डुदाञ् विधिलिङि छान्दसं रूपम्। त्वं दधाः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন! (অতি) অত্যন্ত (নিহঃ) নিম্নগামিদিগকে (অতি) অতিক্রম করিয়া (সৃধঃ) হিংসকদিগকে (অতি) অতিক্রম করিয়া (অচিত্তীঃ) পাপবুদ্ধি প্রজাদিগকে (অতি) অতিক্রম করিয়া ও (দ্বিধঃ) দ্বেষ পরায়ণদিগকে (অতি) তিরস্কার করিয়া (ত্বম্) তুমি (হি)(বিশ্বা) সব (দুরিতা) সংকটকে (তর) পার কর (অখ) এবং (অস্মভ্যং) আমাদিগকে (সহবীরং) বীর পুরুষদের সহিত (রয়িং) ধন (দাঃ) দান কর।

    भावार्थ

    হে তেজস্বী রাজন! অত্যন্ত নিম্নগামীদিগকে অতিক্রম করিয়া, পাপবুদ্ধিদিগকে অতিক্রম করিয়া ও দ্বেষ পরায়ণদিগকে তিরস্কার করিয়া তুমিই সব সংকটকে পার কর এবং আমাদিগকে বীর পুরুষদের সঙ্গে ধন দান কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অতি নিহো অতি সৃধোত্যচিত্তীরতি দ্বিষঃ। বিম্বা হ্যগ্নে দুরিতা তর ত্বমতাল্মভ্যং সহবীরং রয়ি দাঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    শৌনকঃ (সম্পৎকামঃ)। অগ্নিঃ। বিরাট্ প্রস্তারপঙ্ক্তিঃ

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    भाषार्थ

    (নিহঃ) নিরন্তর হননকারী জাগতিক বিষয় থেকে উৎপন্ন দোষ থেকে [সায়ণ] (অতি তর) আমাদের পার/উদ্ধার/রক্ষা করো, (অতি স্রিধঃ) শোষণকারী দোষ থেকে পার/উদ্ধার/রক্ষা করো, (অতি অচিত্তীঃ) অজ্ঞানময়ী চিত্তবৃত্তি থেকে পার/উদ্ধার/রক্ষা করো, (অতি দ্বিষঃ) দ্বেষভাবনা থেকে পার/উদ্ধার/রক্ষা করো। (অগ্নে) হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ! (বিশ্বা দুরিতা=বিশ্বানি দুরিতানি) সমস্ত পাপ থেকে (ত্বম্) তুমি ও (তর) পার/উদ্ধার/রক্ষিত হও, (অথ) তদনন্তর (সহবীরম্) বীর পুত্রসহিত (রয়িম্) ঐশ্বর্য (দাঃ) আমাদের প্রদান করো।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে "তর" পদ এর প্রয়োগ দ্বারা দোষকে "নদ" বলা হয়েছে। ইহাকে অতিক্রম করা/পার হয়ে যাওয়া সূচিত করা হয়েছে। দুরিতা তর=দুরিতানি পরাসুব। স্রিধঃ = স্রেধতিঃ শোষণকর্মা ছান্দসঃ (সায়ণ)। অতিতর =অতিতারয়, অন্তর্ণীতণ্যর্থ (সায়ণ)।]

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    मन्त्र विषय

    রাজধর্মেণ মনুষ্যঃ প্রতাপী তেজস্বী চ ভূয়াৎ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে তেজস্বী রাজন্ ! [(অতি) অত্যন্ত (নিহঃ) শত্রুনাশক বীর হয়ে। অথবা] (নিহঃ) নীচ/নিকৃষ্ট গতিসম্পন্নকে (অতি=অতীত্ব) অতিক্রম করে, (সৃধঃ) হিংসুকদের (অতি) পার/উদ্ধার করো, (অচিত্তীঃ) পাপবুদ্ধি প্রজাদের (অতি) অতিক্রম করে এবং (দ্বিষঃ) দ্বেষীর (অতি) তিরস্কার করে, (ত্বম্) তুমি (হি)(বিশ্বা=বিশ্বানি) সকল (দুরিতা=০–তানি) সংকট (তর) অতিক্রম করো, (অথ) এবং (অস্মভ্যম্) আমাদের (সহবীরম্) বীর পুরুষদের সহিত (রয়িম্) ধন (দাঃ) প্রদান করো ॥৫॥

    भावार्थ

    রাজা সাবধানতাপূর্বক প্রজাদের সকল ক্লেশ দূর করুক এবং এমন চেষ্টা করুক যাতে প্রজাদের সব পুরুষ উৎসাহী, বীর ও ধনাঢ্য হয় ॥৫॥ ২–এই মন্ত্রের পাঠ যজুর্বেদ ২৭।৬। এ এমনটা আছে। অতি নিহোঽঅতি স্রিধোত্যচিত্তিমত্যরাতিমগ্নে । বিশ্বা হ্যগ্নে দুরিতা সহস্বাথাস্মভ্যঁ সহবীরাঁ রয়িন্দাঃ ॥১॥ (অগ্নে) হে তেজস্বিন্ রাজন্ ! (অতি নিহঃ) অত্যন্ত বীর হয়ে (স্রিধঃ) দুষ্টদের (অতি) সরিয়ে/দূর করে, (অচিত্তিম্) অজ্ঞান (অতি) সরিয়ে, (অরাতিম্) কৃপণতা (অতি) সরিয়ে/দূর করে (বিশ্বা দুরিতানি) সকল বিঘ্ন (সহস্ব) দমন করো, (অথ) এবং (অস্মভ্যম্) আমাদের (সহবীরাম্) বীর সমৃদ্ধ যুক্ত সেনাও (রয়িম্) ধন-সম্পদ (দাঃ) প্রদান করো ॥ ১–(সৃধঃ) এর স্থানে সায়ণভাষ্যে (স্রধঃ) পদ আছে ॥

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