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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शापमोचन सूक्त
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    दि॒वो मूल॒मव॑ततं पृथि॒व्या अध्युत्त॑तम्। तेन॑ स॒हस्र॑काण्डेन॒ परि॑ णः पाहि वि॒श्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व: । मूल॑म् । अव॑ऽततम् । पृ॒थि॒व्या: । अधि॑ । उत्ऽत॑तम् । तेन॑ । स॒हस्र॑ऽकाण्डेन । परि॑ । न॒: । पा॒हि॒ । वि॒श्वत॑: ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम्। तेन सहस्रकाण्डेन परि णः पाहि विश्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव: । मूलम् । अवऽततम् । पृथिव्या: । अधि । उत्ऽततम् । तेन । सहस्रऽकाण्डेन । परि । न: । पाहि । विश्वत: ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    जो (मूलम्) मूल [तत्त्वज्ञान] (दिवः) सूर्यलोक से (अवततम्) नीचे को फैला हुआ है और जो (पृथिव्याः अधि) पृथिवी पर से (उत्ततम्) ऊपर को फैला है। [हे ईश्वर !] (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) सहस्रों शाखावाले [तत्त्वज्ञान] के द्वारा (विश्वतः) सब प्रकार से (नः) हमारी (परि) सब ओर (पाहि) रक्षा कर ॥३॥

    भावार्थ

    सूर्य द्वारा वृष्टि, प्रकाश आदि भूमि पर आते और भूमि से जल सूर्यलोक वा मेघमण्डल में जाता और सब छोटे-बड़े लोक परस्पर आकर्षण और धारण रखते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय अनन्त नियमों को देखकर सब प्रजागण राजनियमों में चलकर परस्पर उपकार करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–दिवः। द्युलोकात्। सूर्यमण्डलात्। मूलम्। मवते बध्नातीति। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मूङ् बन्धने–क्ल। अथवा। मूल प्रतिष्ठायां रोपणे वा–क। आदिकारणम्। तत्त्वज्ञानम्। अवततम्। अव+तनु विस्तारे–क्त। अधोमुखं प्रसृतम्। अधि। उपरि। उत्ततम्। उत्+तनु–क्त। ऊर्ध्वम्। उन्नतं विस्तृतम्। सहस्रकाण्डेन। क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति कण शब्दे गतौ च–ड, डस्य नेत्त्वम्। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। अपरिमितपर्वयुक्तेन। विश्वतः। भीत्रार्थानां भयहेतुः। पा० १।४।२५। इत्यपादानसंज्ञायाम्। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति तसिल्। सर्वस्मात् कष्टात् ॥

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    विषय

    'सहस्त्रकाण्ड' विरुत्त्

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत 'विरुत्त्' का (मूलाम्) = मूल (दिवः अवततम्) = आकाशसे निचे की ओर आता है और (पृथिव्याः अधि उत्ततम्) =  पृथिवी से ऊपर फैलता है | इस प्रकार यह विरुत् शतशः तनों - (काण्डों) - वाली हो जाती हैं ऊपर की शाखाएँ फूट ही निचे आकर भूमि में मूल का रूप धारण  कर लेती हैं और उन मूलों पर से फिर शाखाएँ फूट निकलती है | इसप्रकार यह विरुत् फैलती चली जाती है |दूर्वा का स्वरूप ऐसा ही है | यह दूर्वा पवित्र भी कहलाती है | यह यज्ञिय तो है ही | यज्ञवेदी को इससे अस्तिर्ण करते हैं | २ . तेन (सहस्त्रकाण्डेन) = उस सहस्त्रों काण्डोवाली विरुत् से (नः) = हमें (विश्वतः) = सब ओर से (परिपाहि) = रक्षित कीजिये | इसके प्रयोग से हम शांतवृत्ति  के बन सकते हैं।

    भावार्थ

    सहस्त्रकाण्ड वीरुत का प्रयोग हमें क्रोध की वृति से ऊपर उठाए |

     

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    भाषार्थ

    (दिवः) द्युलोक से (मूलम्) जड़ (अवततम् ) नीचे की ओर फैली है, (पृथिव्याः अधि) और पृथिवी से (उत्ततम् ) ऊपर को फैली है। (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) हजारों ग्रन्वियोंवाले जगत्-वृक्ष द्वारा (विश्वतः) सब प्रकार से (नः पाहि) हमारी रक्षा कर [हे परमेश्वर मातः]।

    टिप्पणी

    [यह जगत्-वृक्ष है, अश्वत्थ वृक्ष। यथा "ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्" (गीता १५।१)। वृक्ष की शोभा पत्तों द्वारा होती है, न कि पत्तोंरहित शाखाओं द्वारा। संसार वृक्ष की शोभा वैदिक छन्दों द्वारा होती है। वेदों के बिना संसार शोभारहित है। संसार-वृक्ष का मूल ऊर्व में है। ऊर्ध्व में स्थित नक्षत्र-तारा तथा आदित्य की रश्मियों पर पृथिवी आश्रित है, और ऊर्ध्वस्थ आदित्य से ही प्रकट हुई है। संसार-वृक्ष की ग्रन्थियाँ हैं, संसार वृक्ष के घटक अवयव, जोकि हमारी रक्षा कर रहे हैं।]

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    विषय

    सहनशीलता का उपदेश ।

    भावार्थ

    (दिवः) जिस प्रकार सूर्य का (मूलम्) किरणसमूह जड़ों के समान नीचे आकर (पृथिव्या अधि उत् ततम्) पृथिवी के ऊपर और अन्तरिक्ष में फैलकर प्रकाशित करता है उसी प्रकार (दिवः) ज्ञानमय प्रकाश का (मूलम्) आदिस्रोत मूलसंहिता मय वेदज्ञान (दिवः) उस प्रकाशमय परमात्मा से (अवततं) प्राप्त हुआ है और (पृथिव्या अधि) पृथिवी के ऊपर (उत् ततम्) उत्कृष्टरूप में सर्वत्र फैला है। हे परमात्मन् ! (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) सहस्रों प्रकार के विमानों से संपन्न ईश्वरीय ज्ञान से ( नः ) हमें (विश्वतः) सव कार से (परि पाहि) पूर्ण रूप से पालन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता, दूर्वास्तुतिः । १ भुरिक् । २, ३,५ अनुष्टुभौ । ४ विराडुपरिष्टाद् बृहती। पञ्चर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil

    Meaning

    The seed of the Virut sprouts a thousand ways from heaven downward. The root of the herb grows a thousand ways from earth upward. By that herb of a thousand divine branches, O lord, protect and promote us wholly, completely and all round.

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    Translation

    The root has come down from the sky, and from the earth you spread upwards. With this, that has a thousand joints, may you protect us from all the sides.

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    Translation

    Let us save all around through its stalk having thousands of roots and joints, this plant which spreads out in the Sun rays on the surface of the earth.

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    Translation

    As rays come down from the Sun, spread themselves on the Earth, and shed luster, so is the knowledge of God, in the shape of the Vedas, revealed by Him, and spread all over the Earth. O God, with this Vedic knowledge of innumerable branches, fully protect us from every side.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–दिवः। द्युलोकात्। सूर्यमण्डलात्। मूलम्। मवते बध्नातीति। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मूङ् बन्धने–क्ल। अथवा। मूल प्रतिष्ठायां रोपणे वा–क। आदिकारणम्। तत्त्वज्ञानम्। अवततम्। अव+तनु विस्तारे–क्त। अधोमुखं प्रसृतम्। अधि। उपरि। उत्ततम्। उत्+तनु–क्त। ऊर्ध्वम्। उन्नतं विस्तृतम्। सहस्रकाण्डेन। क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति कण शब्दे गतौ च–ड, डस्य नेत्त्वम्। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। अपरिमितपर्वयुक्तेन। विश्वतः। भीत्रार्थानां भयहेतुः। पा० १।४।२५। इत्यपादानसंज्ञायाम्। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति तसिल्। सर्वस्मात् कष्टात् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    যে (মূলং) মূল তত্ত্ব (দিবঃ) সূর্যলোক হইতে (অবততঃ) নিম্নে বিস্তৃত হইয়াছে যাহা (পৃথিব্যাঃ অধি) পৃথিবী হইতে (উত্ততম্) উর্দ্ধে বিস্তৃত হইয়াছে। (তেন) সেই (সহপ্রকাণ্ডেন) সহস্র শাখাযুক্ত তত্ত্বজ্ঞান দ্বারা (বিশ্বতঃ) সর্ব প্রকারে (নঃ) আমাদের (পরি) সর্বদিক (পাহি) রক্ষা কর।।

    भावार्थ

    সূর্য দ্বারা বৃষ্টি নিম্নে ভূমির উপর বিস্তৃত হয় এবং পৃথিবী হইতে তাহা উর্দ্ধে বিস্তৃত হয় । হে পরমেশ্বর! সেই সহস্র শাখা যুক্ত মেঘ বিষয়ক জ্ঞান দ্বারা আমাদের সর্বদিক সর্ব প্রকারে রক্ষা কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    দিবো মূলমবততং থব্যা অধ্যুত্ততম্। তেন সহস্রকাণ্ডেন পরিণঃ পাহি বিশ্বতঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। বনষ্পতি (দূর্বা)। অনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (দিবঃ) দ্যুলোক থেকে (মূলম্) মূল (অবততম্) নীচের দিকে বিস্তৃত, (পৃথিব্যাঃ অধি) এবং পৃথিবী থেকে (উত্ততম্) উপরের দিকে বিস্তৃত। (তেন) সেই (সহস্রকাণ্ডেন) সহস্র গ্রন্থিযুক্ত জগৎ-বৃক্ষ দ্বারা (বিশ্বতঃ) সমস্ত প্রকারে/সর্বতোভাবে (নঃ পাহি) আমাদের রক্ষা করো [হে পরমেশ্বর মাতঃ]।

    टिप्पणी

    [এই জগৎ-বৃক্ষ হলো, অশ্বত্থ বৃক্ষ। যথা "ঊর্ধ্বমূলমধঃ শাখমশ্বত্থং প্রাহুরব্যয়ম্। ছন্দাংসি যস্য পর্ণানি যস্তং বেদ স বেদবিৎ" (গীতা ১৫।১)। বৃক্ষের শোভা পাতার দ্বারা হয়, পাতারহিত শাখার দ্বারা নয়। সংসার বৃক্ষের শোভা বৈদিক ছন্দের দ্বারা হয়। বেদ ছাড়া সংসার শোভারহিত। সংসার-বৃক্ষের মূল উপরের দিকে রয়েছে। ঊর্ধ্বে স্থিত নক্ষত্র-তারা এবং আদিত্যের রশ্মিতে পৃথিবী আশ্রিত রয়েছে, এবং ঊর্ধ্বস্থ আদিত্য থেকেই প্রকট হয়েছে। সংসার-বৃক্ষের গ্রন্থি হল, সংসার-বৃক্ষের ঘটক অবয়ব, যা আমাদের রক্ষা করছে।]

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    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    যে (মূলম্) মূল [তত্ত্বজ্ঞান] (দিবঃ) সূর্যলোক থেকে (অবততম্) নীচের দিকে বিস্তৃত এবং যা (পৃথিব্যাঃ অধি) পৃথিবী থেকে (উত্ততম্) উপরের দিকে বিস্তৃত। [হে ঈশ্বর !] (তেন) সেই (সহস্রকাণ্ডেন) সহস্র শাখা-বিশিষ্ট [তত্ত্বজ্ঞান] এর দ্বারা (বিশ্বতঃ) সব প্রকারে (নঃ) আমাদের (পরি) সব দিক থেকে/সর্বতোভাবে ‌(পাহি) রক্ষা করো ॥৩॥

    भावार्थ

    সূর্য দ্বারা বৃষ্টি, আলো আদি ভূমিতে আসে, ভূমি থেকে জল সূর্যলোক বা মেঘমণ্ডলে যায় এবং সব ছোটো-বড়ো লোক-সমূহ পরস্পর আকর্ষণ ও ধারণ করে। এইভাবে ঈশ্বরীয় অনন্ত নিয়ম বিচার করে সকল প্রজাগণ রাজনিয়মে চলে পরস্পর উপকার করুক ॥৩॥

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