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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
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    ब॒भ्रोरर्जु॑नकाण्डस्य॒ यव॑स्य ते पला॒ल्या तिल॑स्य तिलपि॒ञ्ज्या। वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब॒भ्रो: । अर्जु॑नऽकाण्डस्य । यव॑स्य । ते॒ । प॒ला॒ल्या । तिल॑स्य । ति॒ल॒ऽपि॒ञ्ज्या । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बभ्रोरर्जुनकाण्डस्य यवस्य ते पलाल्या तिलस्य तिलपिञ्ज्या। वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बभ्रो: । अर्जुनऽकाण्डस्य । यवस्य । ते । पलाल्या । तिलस्य । तिलऽपिञ्ज्या । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पौरुष का उपदेश किया जाता है।

    पदार्थ

    [हे ईश्वर !] (ते) तेरे [दिये] (बभ्रोः) पोषण करनेवाले, (अर्जुनकाण्डस्य) श्वेत स्तम्भ [डाँठा]वाले (यवस्य) यव अन्न की (पलाल्या) पालनशक्ति से और (तिलस्य) तिल की (तिलपिञ्ज्या) चिकनाई से (क्षेत्रियनाशनी) शरीर वा वंश के रोग नाश करनेवाली (वीरुत्) ओषधि (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग को (अप+उच्छतु) निकाल देवे ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे परिपक्व और नवीन यव, तिल आदि पदार्थों के यथावत् उपयोग से और औषधों के सेवन से शारीरिक बल स्थिर रहता है, वैसे ही मनुष्य उत्तम विद्या के प्रकाश से आत्मिक दोषों की निवृत्ति करके आनन्द प्राप्त करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–बभ्रोः। कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। इति भृञ् धारणपोषणयोः–कु, द्वित्वं च। बिभर्ति भरति वा बभ्रुः। पोषकस्य अर्जुनकाण्डस्य। अर्जेर्णिलुक् च। उ० ३।५८। इति अर्ज उपार्जने=अलब्धसम्पादने–उनन्। अर्जुनम्=रूपम्–निघ० ३।७। ततः क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति कण शब्दे गतौ च–ड। डस्य इत्वं न। अनुनासिकस्य क्वि०। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। श्वेतस्तम्भस्य। परिपक्वस्य नवीनस्य चेति यावत्। यवस्य। यूयते बलेन। यु मिश्रणे–अप्। स्वनामख्यातधान्यस्य। धान्यराजस्य। ते। तव। ईश्वरदत्तस्य। पलाल्या। तमिविशिविडिमृणिकुलिकपिपलिपञ्चिभ्यः कालन्। उ० १।११८। इति पल रक्षणे–कालन्। ङीप्। पालयतीति पलाली। पालनशक्त्या। तिलस्य। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति तिल गतौ, स्रिग्धीभावे च–क। स्वनामख्यातशस्यस्य। होमधान्यस्य। तिलपिञ्ज्या। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पिजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु–इन्। तिलस्य स्नेहशक्त्या। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    यवतुष-तिलपिज्ज्या

    पदार्थ

    १. (बभ्रो:) = कपिल वर्णवाले, (अर्जुनकाण्डस्य) = श्वेतकाण्ड-डण्ठल-[तने]-वाले (यवस्य) = जी के (पलाल्या) = तुष के साथ तथा (तिलस्य तिलपिज्ज्या)-तिल की मञ्जरी के साथ यह (वीरुत्) = ओषधिभूत लता (क्षेत्रियनाशनी) = क्षेत्रिय रोगों को दूर करनेवाली है। यह (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रिय रोग को (अप उच्छतु) = दूर करे । २. क्षेत्रिय नाशनी वीरुत् के सहायक तत्व दो हैं, [क] (भूरे) = श्वेत डण्ठलवाले जौ का तुष, [ख] तिल की मञ्जरी। सायण के अनुसार ('बभ्रो: अर्जुनकाण्डस्य') का सम्बन्ध यव के साथ नहीं है। भूरे वर्ण के अर्जुनवृक्ष के तने का अंश, यव का तुष तथा तिलपिजी-ये तीन वस्तुएँ क्षेत्रिय रोग-नाशिनी वीरुत् की सहायक बनती हैं।

    भावार्थ

    अर्जुनवृक्ष के काण्ड [तने] का अंश, यव का तुष तथा तिलपिजी आदि के प्रयोग से क्षेत्रिय रोग दूर हो सकता है।

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    भाषार्थ

    (बभ्रो:) भरण-पोषण करनेवाले (अर्जुनकाण्डस्य) अर्जुनवृक्ष की, तथा (यवस्य) जौं की (पलाल्या) पराल द्वारा, तथा (तिलस्य तिलपिञ्जया) तिल की तिलपीठी द्वारा निर्मित (वीरुत्) विरोहणशील लता, (क्षेत्रियनाशनी) जोकि शारीरिक रोग का विनाश करनेवाली है, वह (ते) हे रुग्ण ! तेरे (क्षेत्रियम्) शारीरिक रोग का (उच्छतु) विवासन करे, अपनयन करे, निवारण करे।

    टिप्पणी

    [बभ्रोः= भृञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। पलाल्या= अर्जुन वृक्ष के काण्ड से उत्पन्न पत्तों की पराल द्वारा। पिञ्जया=तिलों की हिंसा अर्थात् हनन द्वारा प्राप्त पीढ़ी द्वारा (चुरादिः)।]

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    विषय

    आत्मज्ञान ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (बभ्रोः) पीले और (अर्जुनकाण्डस्य) श्वेतकाण्ड या डण्डी वाले ( यवस्य ) जौ के (पलाल्या) उसके ऊपर के तुष के साथ सम्बन्ध को पृथक् कर लिया जाता है या जिस प्रकार (तिलस्य) तिल के (तिलपिञ्जया) तिलों की फली के साथ सम्बन्ध को मुक्त कर दिया जाता है उसी प्रकार ( क्षेत्रियनाशनी वीरुत् ) देहबन्धन का नाश करने वाली यह ब्रह्मवल्ली या चितिशक्ति ( क्षेत्रियं ) देह में बंधे आत्मा को बन्धन से (अप उच्छतु ) मुक्त करे ।

    टिप्पणी

    यथा उपनिषद् में—‘प्रवहेन मुन्जादिवेषीक धैर्येण।’ जिस प्रकार मूंज से सींक को अलग कर लिया जाता है उसी प्रकार आत्मा को योगी अलग करे। काठक वल्ली में जिस प्रकार ‘प्रवृत्द्यमेतमणुमाप्प’ इत्यादि ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hereditary Diseases

    Meaning

    Let the genetic consumption destroyer vaishnavi with flower cluster of sesame and stalk of white or brown arjuna remove the trace of your hereditary disease from the family.

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    Translation

    With the straw of the brown-colored, whitish-jointed barley and with the stalks of sesame, may this medicinal plant, destroyer of hereditary disease, remove your hereditary disease.

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    Translation

    Let this plant mixed with the white-colored stalk of barley, with its gray earing straw, with the stalk and beams of Sesamun., remove your disease having root i1 the body.

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    Translation

    Just as the tawny-brown and silvery seed of barley is separated from the husk, and sesamum from the stalk, so may the knowledge of God, end this body in which dwells the soul, and release it from the bondage of this mortal frame.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–बभ्रोः। कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। इति भृञ् धारणपोषणयोः–कु, द्वित्वं च। बिभर्ति भरति वा बभ्रुः। पोषकस्य अर्जुनकाण्डस्य। अर्जेर्णिलुक् च। उ० ३।५८। इति अर्ज उपार्जने=अलब्धसम्पादने–उनन्। अर्जुनम्=रूपम्–निघ० ३।७। ततः क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति कण शब्दे गतौ च–ड। डस्य इत्वं न। अनुनासिकस्य क्वि०। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। श्वेतस्तम्भस्य। परिपक्वस्य नवीनस्य चेति यावत्। यवस्य। यूयते बलेन। यु मिश्रणे–अप्। स्वनामख्यातधान्यस्य। धान्यराजस्य। ते। तव। ईश्वरदत्तस्य। पलाल्या। तमिविशिविडिमृणिकुलिकपिपलिपञ्चिभ्यः कालन्। उ० १।११८। इति पल रक्षणे–कालन्। ङीप्। पालयतीति पलाली। पालनशक्त्या। तिलस्य। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति तिल गतौ, स्रिग्धीभावे च–क। स्वनामख्यातशस्यस्य। होमधान्यस्य। तिलपिञ्ज्या। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पिजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु–इन्। तिलस्य स्नेहशक्त्या। अन्यद्गतम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    [হে ঈশ্বর!] (তে) তোমার [দান] (বভ্রোঃ) পোষণকারী, (অর্জুনকাণ্ডস্য) অর্জুনবৃক্ষ, (য়বস্য) যব অন্নের (পলাল্যা) পালন শক্তি হইতে এবং (তিলস্য) তিলের (তিলপিঞ্জ্যা) চকচকের হইতে (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের রোগ নাশকারী (বীরুৎ) ওষধি (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের (অপ+উচ্ছতু) নিষ্কাশিত হইবে।।

    भावार्थ

    হে ঈশ্বর! তোমার দান পোষণকারী, অর্জুনবৃক্ষ, যব অন্নের পালন শক্তি হইতে এবং তিলের চকচকের হইতে শরীর বা বংশের রোগ নাশকারী ওষধি শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের নিষ্কাশিত হইবে।।
    যেরূপ পরিপক্ক এবং নবীন যব, তিল আদি পদার্থের যথাবৎ উপয়োগ দ্বারা ঔষধির সেবন হইতে শারীরিক বল স্থিত থাকে, ঐরূপই মনুষ্য উত্তম বিদ্যার প্রকাশ দ্বারা আত্মিক দোষের নিবৃত্তি করিয়া আনন্দ প্রাপ্ত করেন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বভ্রোরর্জুনকাণ্ডস্য য়বস্য তে পলাল্যা তিলস্য তিলপিঞ্জ্যা ৷ বীরুৎক্ষেত্রিয়নাশন্যপ ক্ষেত্রিয়মুচ্ছতু।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। ক্ষেত্রিয় (য়ক্ষ্মকুণ্ঠাদি) নাশনম্। পথ্যা পঙক্তিঃ

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    भाषार्थ

    (বভ্রোঃ) ভরণ-পোষণকারী (অর্জুনকাণ্ডস্য) অর্জুন বৃক্ষের, এবং (যবস্য) যবের (পলাল্যা) খড় দ্বারা, এবং (তিলস্য তিলপিঞ্জয়া) তিলের তিলপীঠী দ্বারা নির্মিত (বীরুৎ) বিরোহণশীল লতা (ক্ষেত্রীয়নাশনী) যা শারীরিক রোগের বিনাশ করে, তা (তে) হে রুগ্ন! তোমার (ক্ষেত্রিয়ম্) শারীরিক রোগের (উচ্ছতু) নির্বাসন করে/করুক, অপনয়ন করে/করুক, নিবারণ করে/করুক।

    टिप्पणी

    [বভ্রোঃ= ভৃঞ্ ধারণপোষণয়োঃ (জুহোত্যাদিঃ)। পলাল্যা= অর্জুন বৃক্ষের কাণ্ড থেকে উৎপন্ন পাতার খড়কুটো দ্বারা। পিঞ্জয়া=তিলের হিংসা অর্থাৎ হনন দ্বারা প্রাপ্ত পীঠি (তিল সামান্য পিষ্ট করে তৈরি) দ্বারা (চুরাদিঃ)।]

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    मन्त्र विषय

    পৌরুষমুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    [হে ঈশ্বর !] (তে) তোমার দ্বারা [প্রদত্ত] (বভ্রোঃ) পোষণকারী, (অর্জুনকাণ্ডস্য) শ্বেত স্তম্ভ [কাণ্ড] বিশিষ্ট (যবস্য) যব অন্নের (পলাল্যা) পালনশক্তি দ্বারা এবং (তিলস্য) তিলের (তিলপিঞ্জ্যা) স্নিগ্ধতা/সরসতা দ্বারা (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের রোগনাশক (বীরুৎ) ঔষধি (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে (অপ+উচ্ছতু) নিষ্কাশিত/বহিষ্কার করে/করুক ॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন পরিপক্ব ও নবীন যব, তিল আদি পদার্থের যথাবৎ ব্যবহার দ্বারা এবং ঔষধের সেবন দ্বারা শারীরিক বল স্থির থাকে, সেভাবেই মনুষ্য উত্তম বিদ্যার প্রকাশ দ্বারা আত্মিক দোষের নিবৃত্তি করে আনন্দ প্রাপ্ত করুক ॥৩॥

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