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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
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    नम॑स्ते॒ लाङ्ग॑लेभ्यो॒ नम॑ ईषायु॒गेभ्यः॑। वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । लाङ्ग॑लेभ्य: । नम॑: । ई॒षा॒ऽयु॒गेभ्य॑: । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईषायुगेभ्यः। वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । लाङ्गलेभ्य: । नम: । ईषाऽयुगेभ्य: । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पौरुष का उपदेश किया जाता है।

    पदार्थ

    [हे ईश्वर !] (लाङ्गलेभ्यः) हलों [की दृढ़ता] के लिये (नमः ते=नमस्ते) तुझे नमस्कार है और (ईषायुगेभ्यः) हरस [हल की लंबी लकड़ी] और जूओं [की दृढ़ता] के लिये (नमः) नमस्कार है। (क्षेत्रियनाशनी) शरीर वा वंश के दोष वा रोग की नाश करनेवाली (वीरुत्) ओषधि (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग को (अप+उच्छतु) निकाल देवे ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे किसान लोग हल आदि उपयोगी और दृढ़ सामग्री के प्रयोग से अन्न उत्पन्न करते हैं, वैसे ही सब मनुष्य परमेश्वर के नियमों को साक्षात् करके उद्योग के साथ प्रयत्न से शरीर और अन्तःकरण की दृढ़ता करके उपकारी बनें और सदा आनन्द भोगें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४–नमस्ते। नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च। पा० ३।२।१६। इति चतुर्थी। तुभ्यं नमस्कारः। लाङ्गलेभ्यः। लङ्गेर्वृद्धिश्च। उ० १।१०८। इति लगि गतौ–कलच्, वृद्धिश्च। लङ्गन्ति प्राप्नुवन्ति, अन्नादिकं येन तल्लाङ्गलम्। हलानां हिताय दृढत्वाय। ईषायुगेभ्यः। ईष गतिहिंसादर्शनेषु–क। टाप्। ईषा लाङ्गलदण्डः। उञ्छादीनां च। पा० ६।१।१६०। इति युज योगे–घञ्, अगुणत्वं निपात्यते। युज्येते बलीवर्दौ अस्मिन्निति युगो युगं वा रथहलाद्यङ्गम्। ईषाश्च युगानि च तेभ्यः। हलस्य दण्डयुगानां दृढत्वाय। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    लाङ्गल, ईषा व युग'

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित ओषधियों को उत्पन्न करने में उपकरण बननेवाले (लागलेभ्यः) = हलों [Plough] के लिए (नमः) =  नमस्कार करते हैं। ये हल (ते) = तेरे रोगशमन में परम्परागत कारण बनते हैं। (ईषा) = लाङ्गलदण्ड [Pole] व (युगेभ्यः) = जुए [yoke] के लिए भी (नम:) = हम आदर का भाव धारण करते हैं। इन उपकरणों के द्वारा भूमि से उत्पन्न हुई (वीरुत्) = बेल (क्षेत्रियनाशनी) = क्षेत्रिय रोगों को नष्ट करनेवाली है। यह क्षेत्रिय रोग को (अप उच्छन्तु) = दूर करनेवाली हो।

    भावार्थ

    औषधियों के उत्पादन में उपकरणभूत 'लाङ्गल, ईषा व युग' आदि का उचित आदर करना चाहिए। उन्हें ठीक रखते हुए उचित रूप में उपयुक्त करना ही उनका आदर है।

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    भाषार्थ

    हे रुग्ण ! (ते) तेरे (लाङ्गलेभ्यः) हलों से उत्पन्न (नम: ) अन्न , (ईषायुगेभ्यः) ईषा और युगों से प्राप्त ( नम:) अन्न (वीरुत्) वीरुत् रूप है। (क्षेत्रियनाशनी) वह शारीरिक रोग का नाश करती है, (क्षेत्रियम् ) वह (ते) तेरे शारीरिक रोग का (अप उच्छतु) विवासन करे, अपनयन करे, उसे निवारित करे ।

    टिप्पणी

    [हलों से प्राप्त कृष्यन्न को वीरुत् कहा है। पौष्टिक अन्न के सेवन से बल बढ़ता है। बल की प्राप्ति से रोग शरीर पर आक्रमण नहीं करते। ईषा है शकट के अग्रभाग का डण्डा और युग हैं जुआ, बैलों के कन्धों पर रखने की लकड़ी। ते= दो बार अन्वय। लाङ्गल आदि कृषिकर्म में अत्युपकारी हैं, अतः इनकी सहायता से उत्पन्न अन्न कहा है, यद्यपि अन्न कृषिभूमि से प्राप्त होता है।]

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    विषय

    आत्मज्ञान ।

    भावार्थ

    हे योगिन् ( ते ) तेरे ( लाङ्गलेभ्यः ) जिस प्रकार उत्तम लता के बीज वपन करने के लिये क्षेत्र को सुधारने के लिये हल आवश्यक है उसी प्रकार चित्तभूमि को गोड़ने के लिये और उसमें विज्ञानरूप ब्रह्मज्ञानमय बीज वपन करने के लिये अपेक्षित जो योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि रूप लाङ्गल अर्थात् हल हैं उनको ( नमः ) हम आदर की दृष्टि से देखते और उनकी साधना करते हैं और ( ईषायुगेभ्यः ) हल को खैंचने के लिये जिस प्रकार उसमें ‘ईषा’ नामक दण्ड और बैलों को जोड़ने के लिये जुआ लगा होता है उसी प्रकार यहां दो प्राण, आत्मा और बुद्धि या आत्मा और परमात्मा दोनों को जोड़ने के लिये ईषा=मानस प्रेरणा रूप चितिशक्ति द्वारा योग करने हारे योगी जनों को भी ( नमः ) नमस्कार है। उनकी शिक्षा से ( क्षेत्रियनाशनी वीरुत् ) देहबन्धन को काट डालने वाली ब्रह्मानन्द वल्ली ( क्षेत्रियम् अप उच्छतु ) आत्मा को बन्धन से मुक्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hereditary Diseases

    Meaning

    We value the plough, we value the pole and the yoke with which the garden field of herbs is ploughed and cultivated. Let the genetic disease destroyer herb eliminate the disease from the family.

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    Translation

    Let your homage be to ploughs (langala) and homage to poles (isā) and yokes (yuga) May this medicinal plant, destroyer of hereditary disease, remove, the hereditary disease.

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    Translation

    We appreciate the utility of your plough; we appreciate the utility of its pole and yoke, let this disease-destroying plant remove the bodily disease.

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    Translation

    O Yogi, we pay homage to thy eight limbs of yoga, which are as essential for mental concentration, as ploughs are for cultivation. We revere the yogis who yoke their soul with God, just as we appreciate the pole and yoke, so essential for agriculture. May the knowledge of God, end this body in which dwells the soul, and release it from the bondage of this mortal frame. [1]

    Footnote

    [1] Eight limbs: Yama, Niyama, Asana, Pranayama, Pratayahara, Dharna, Dhyana, Smadhi. These limbs are the ploughs of a yogi. With those he cultivates his soul, as a farmer cultivates the field with his plough.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–नमस्ते। नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च। पा० ३।२।१६। इति चतुर्थी। तुभ्यं नमस्कारः। लाङ्गलेभ्यः। लङ्गेर्वृद्धिश्च। उ० १।१०८। इति लगि गतौ–कलच्, वृद्धिश्च। लङ्गन्ति प्राप्नुवन्ति, अन्नादिकं येन तल्लाङ्गलम्। हलानां हिताय दृढत्वाय। ईषायुगेभ्यः। ईष गतिहिंसादर्शनेषु–क। टाप्। ईषा लाङ्गलदण्डः। उञ्छादीनां च। पा० ६।१।१६०। इति युज योगे–घञ्, अगुणत्वं निपात्यते। युज्येते बलीवर्दौ अस्मिन्निति युगो युगं वा रथहलाद्यङ्गम्। ईषाश्च युगानि च तेभ्यः। हलस्य दण्डयुगानां दृढत्वाय। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    [হে ঈশ্বর!] (লাঙ্গলেভ্যঃ) লাঙ্গলের [দৃড়তার] জন্য (নমঃ তে নমস্তে) তোমাকে নমস্কার করি এবং (ঈসায়ুগেভ্যঃ) লাঙ্গলের [হালের লম্বা কাঠের] এবং উপযোগের [দৃড়তার] জন্য (নমঃ) নমস্কার করি। (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের নাশকারী (বীরুৎ) ওষধি (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের (অপ+উচ্ছতু) নিষ্কাশিত করে।।

    भावार्थ

    হে ঈশ্বর! লাঙ্গলের দৃড়তার জন্য তোমাকে নমস্কার করি এবং লাঙ্গলের হালের লম্বা কাঠের এবং উপযোগের দৃড়তার জন্য নমস্কার করি। শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের নাশকারী ঔষধি শরীর বা বংশের দোষ বা রোগের নিবারণ করিবে।।
    যেরূপ কিসান লোক লাঙ্গল আদি উপযোগী এবং দৃঢ় সামগ্রীর প্রয়োগ দ্বারা অন্ন উৎপন্ন করেন, ঐরূপই সমস্ত মনুষ্য পরমেশ্বরের নিয়মের সাক্ষাৎ করিয়া উদ্যোগের সাথে প্রযত্ন দ্বারা শরীর এবং অন্তঃকরণের দৃঢ়তা করিয়া উপকারী বানাইবে এবং সদা আনন্দ বোগ করিবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    নমস্তে লাঙ্গলেভ্যো নম ঈষায়ুগেভ্যঃ ৷ বীরুৎক্ষেত্রিয়নাশন্যপ ক্ষেত্রিয়মুচ্ছতু।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। ক্ষেত্রিয় (য়ক্ষ্মকুণ্ঠাদি) নাশনম্। বিরাডনুষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    হে রুগ্ন ! (তে) তোমার (লাঙ্গলেভ্যঃ) লাঙ্গল থেকে উৎপন্ন (নমঃ) অন্ন, (ঈষায়ুগেভ্যঃ) ঈষা/ঈষ [লাঙলের লম্বা দণ্ড] এবং যুগ[জোয়াল] থেকে প্রাপ্ত (নমঃ) অন্ন (বীরুৎ) বীরুৎ রূপ। (ক্ষেত্রিয়নাশনী) তা শারীরিক রোগের নাশ করে/রোগনাশক, (ক্ষেত্রিয়ম্) তা (তে) তোমার শারীরিক রোগের (অপ উচ্ছতু) নির্বাসন করে, অপনয়ন করে, নিবারিত করে/করুক।

    टिप्पणी

    [লাঙল থেকে প্রাপ্ত কৃষ্ণ্যন্নকে বীরুৎ বলা হয়েছে। পৌষ্টিক অন্নের সেবনের ফলে শক্তি বৃদ্ধি হয়। শক্তির প্রাপ্তির দ্বারা রোগ শরীরে আক্রমণ করে না। ঈষা হলো শকটের অগ্রভাগের দণ্ড এবং যুগ হল জোয়াল, বলদের কাঁধে রাখার লাঠি। তে=দুই বার অন্বয়। লাঙ্গল আদি কৃষিকর্মে অত্যুপকারী হয়, অতঃ এগুলোর সহায়তায় উৎপন্ন অন্ন বলা হয়েছে, যদিও অন্ন কৃষি ভূমি থেকে প্রাপ্ত হয়।]

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    मन्त्र विषय

    পৌরুষমুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    [হে ঈশ্বর !] (লাঙ্গলেভ্যঃ) লাঙ্গল [এর দৃঢ়তা] এর জন্য (নমঃ তে=নমস্তে) তোমাকে নমস্কার এবং (ঈষাযুগেভ্যঃ) হরস [লাঙ্গলের লম্বা দণ্ড] এবং জোয়ালের [দৃঢ়তা] এর জন্য (নমঃ) নমস্কার। (ক্ষেত্রিয়নাশনী) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগনাশক (বীরুৎ) ঔষধি (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের দোষ বা রোগকে (অপ+উচ্ছতু) নিষ্কাশিত/বহিষ্কার করে/করুক ॥৪॥

    भावार्थ

    যেমন কৃষক লাঙ্গল আদি উপযোগী ও দৃঢ় সামগ্রীর প্রয়োগ দ্বারা অন্ন উৎপন্ন করে, সেভাবেই সব মনুষ্য পরমেশ্বরের নিয়ম সাক্ষাৎ করে উদ্যোগের সাথে চেষ্টাপূর্বক শরীর ও অন্তঃকরণের দৃঢ়তা করে উপকারী হোক এবং সদা আনন্দ ভোগ করুক ॥৪॥

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