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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 143/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३
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    यु॒वं श्रिय॑मश्विना दे॒वता॒ तां दिवो॑ नपाता वनथः॒ शची॑भिः। यु॒वोर्वपु॑र॒भि पृक्षः॑ सचन्ते॒ वह॑न्ति॒ यत्क॑कु॒हासो॒ रथे॑ वाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । श्रिय॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । दे॒वता॑ । ताम् । दिव॑:। न॒पा॒ता॒ । व॒न॒थ॒: । शची॑भि: ॥ यु॒वो: । वपु॑: । अ॒भि । पृक्ष॑: । स॒च॒न्ते॒ ।‍ वह॑न्ति । यत् । क॒कु॒हास॑: । रथे॑ । वा॒म् ॥१४३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं श्रियमश्विना देवता तां दिवो नपाता वनथः शचीभिः। युवोर्वपुरभि पृक्षः सचन्ते वहन्ति यत्ककुहासो रथे वाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । श्रियम् । अश्विना । देवता । ताम् । दिव:। नपाता । वनथ: । शचीभि: ॥ युवो: । वपु: । अभि । पृक्ष: । सचन्ते ।‍ वहन्ति । यत् । ककुहास: । रथे । वाम् ॥१४३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १-७; ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (दिवः) हे व्यवहार के (नपाता) न गिरानेवाले (अश्विना) दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (देवता) दिव्य गुणवाले (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) बुद्धियों से (ताम्) उस (श्रियम्) लक्ष्मी का (वनुथः) सेवन करते हो, (यत्) जिस [लक्ष्मी] के लिये (पृक्षः) अनेक अन्न (युवोः) तुम दोनों के (वपुः) शरीर को (अभि) सब ओर से (सचन्ते) सींचते हैं और [जिसके लिये] (ककुहासः) बड़े विद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों को (रथे) रमणीय रथ में (वहन्ति) ले चलते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग विज्ञान द्वारा यान-विमान आदि बनाकर राज्य की सम्पत्ति बढ़ावें और अन्न आदि प्राप्त करके राजा और प्रजा को सुखी करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(युवम्) युवाम् (श्रियम्) लक्ष्मीम् (अश्विना) म० १। हे चतुरराजमन्त्रिणौ (देवता) भृमृदृशि०। उ० ३।११०। दिवु क्रीडादिषु-अतच्, विभक्तेराकारः। दिव्यगुणसम्पन्नौ (ताम्) वक्ष्यमाणाम् (दिवः) व्यवहारस्य (नपाता) अथ० १।१३।२। नञ्+पत अधःपतने णिच्-क्विप्, नञः प्रकृतिभावः। न पातयितारौ। रक्षकौ (वनथः) संभजेथे। संसेवेथे (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (युवोः) युवयोः (वपुः) शरीरम् (अभि) अभितः (पृक्षः) पृची सम्पर्के-क्विप्, धातोः कुगागमः, बहुवचनम्। पृक्षः अन्ननाम-निघ० २।७। अन्नानि (सचन्ते) षच सेचने। सिञ्चन्ति (वहन्ति) नयन्ति (यत्) यस्यै श्रिये (ककुहासः) क+कु+हन हिंसागत्योः-डप्रत्ययः। कस्य सुखस्य कुं भूमिं स्थानं प्राप्नोतीति ककहः, असुगागमः। ककह इति; महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तो विद्वांसः-दयानन्दभाष्ये ऋ० १।४६।३। (रथे) रमणीये याने (वाम्) युवाम् ॥

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    विषय

    'श्री सम्पन्नता' के साधक प्राणापान

    पदार्थ

    १.हे (दिव: नपाता) = ज्ञान को न नष्ट होने देनेवाले देवता [देवते] दिव्यगणोंवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (युवम्) = आप (शचीभिः) = कर्मों व प्रज्ञानों के द्वारा (तां श्रियम्) = उस प्रसिद्ध शोभा को (वनथ:) = विजय करते हो [वन् win]। प्राणापान ही कर्मेन्द्रियों से कर्म कराते हैं तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्रास कराते हैं। इसप्रकार ये शरीर को शोभा-सम्पन्न बनाते हैं। २. (युवो:) = आप दोनों के इस (वपुः) = शरीर को (पृक्षः) = सात्विक अन्न (अभिसचन्ते) = प्रात:-सायं सेवन करते हैं। यह सब तब होता है (यत्) = जबकि (वाम्) = आप दोनों को (ककुहासः) = [महन्नाम नि०३.७]-महान् इन्द्रियाश्व (रथे) = इस शरीर-रथ में (वहन्ति) = धारण करते हैं। शरीर में प्राणसाधना के होने पर ही अन्न का पाचन हुआ करता है। इन्द्रियों में व अन्य सब अंग-प्रत्यंगों में प्राणों की ही शक्ति कार्य करती है।

    भावार्थ

    प्राणसाधना से शरीर श्रीसम्पन्न बनता है। प्राणसाधना से ही अन्न का भी ठीक से पाचन होकर सब रस-रुधिर आदि धातुओं का निर्माण होता है।

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    भाषार्थ

    (अश्विना) हे अश्वियो! (नपाता) हे राष्ट्र को पतन से बचानेवालो! (युवम्) तुम दोनों, (देवता तां=देवताता=देवतातौ) देवतासदृश अधिकारियों द्वारा विस्तारित राष्ट्र-यज्ञ में, (शचीभिः) निज प्रज्ञाओं तथा निज कर्मों द्वारा (दिवः श्रियम्) दिव्य शोभा को (वनथः) प्राप्त करते हो। (युवोः) तुम दोनों के (वपुः) शरीरों पर (पृक्षः) मानपदक (अभि सचन्ते) लगे रहते हैं (यत्) जब कि (ककुहासः) महानिपुण रथ-संचालक (वाम्) तुम दोनों को (रथे) रथ में (वहन्ति) ले जाते हैं।

    टिप्पणी

    [दिवः श्रियम्=द्युलोक की शोभा द्युलोक में जड़े सितारों द्वारा होती है। इसी प्रकार की शोभा मानपदकों द्वारा अश्वियों की होती है। ककुहाः=महन्नाम (निघं০ ३.३) पृक्षः=पृच् सम्पर्के।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Ashvins, children of light, infallible and imperishable, generous and brilliant divinities, with your intelligence, power and expertise, you win that treasure of wealth which the spaces conduct and concentrate in your chariot and thereby provide food and nourishment for your body and mind.

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    Translation

    O teacher and preacher You are like the men of divine power, you always preserve the radiance of knowledge, and you attain the glory through your wisdom and power. When the horses or bullocks carry you both in chariot the food closely follows your body.

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    Translation

    O teacher and preacher, You are like the men of divine power, you always preserve the radiance of knowledge, and you attain the glory through your wisdom and power. When the horses or bullocks carry you both in chariot the food closely follows your body.

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    Translation

    O Asvins, the upholders of heavens, or born of heavens, you attain glory and splendor, loved by the divine beings or forces, by your energizing power and intelligence. When the great heavens carry you along with their pleasure-giving vehicle, highly invigorating forces unite with your forms.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(युवम्) युवाम् (श्रियम्) लक्ष्मीम् (अश्विना) म० १। हे चतुरराजमन्त्रिणौ (देवता) भृमृदृशि०। उ० ३।११०। दिवु क्रीडादिषु-अतच्, विभक्तेराकारः। दिव्यगुणसम्पन्नौ (ताम्) वक्ष्यमाणाम् (दिवः) व्यवहारस्य (नपाता) अथ० १।१३।२। नञ्+पत अधःपतने णिच्-क्विप्, नञः प्रकृतिभावः। न पातयितारौ। रक्षकौ (वनथः) संभजेथे। संसेवेथे (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (युवोः) युवयोः (वपुः) शरीरम् (अभि) अभितः (पृक्षः) पृची सम्पर्के-क्विप्, धातोः कुगागमः, बहुवचनम्। पृक्षः अन्ननाम-निघ० २।७। अन्नानि (सचन्ते) षच सेचने। सिञ्चन्ति (वहन्ति) नयन्ति (यत्) यस्यै श्रिये (ककुहासः) क+कु+हन हिंसागत्योः-डप्रत्ययः। कस्य सुखस्य कुं भूमिं स्थानं प्राप्नोतीति ककहः, असुगागमः। ककह इति; महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तो विद्वांसः-दयानन्दभाष्ये ऋ० १।४६।३। (रथे) रमणीये याने (वाम्) युवाम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৭; ৯ রাজামাত্যকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দিবঃ) হে ব্যবহারে (নপাতা) অপতনকারী/রক্ষক (অশ্বিনা) উভয় অশ্বী! [চতুর রাজা এবং মন্ত্রী] (দেবতা) দিব্য গুণযুক্ত (যুবম্) তোমরা উভয়ে (শচীভিঃ) বুদ্ধি দ্বারা (তাম্) সেই (শ্রিয়ম্) লক্ষ্মীর (বনুথঃ) সেবন করো, (যৎ) যার [লক্ষ্মীর] জন্য (পৃক্ষঃ) অনেক অন্ন (যুবোঃ) তোমাদের উভয়ের (বপুঃ) শরীরকে (অভি) সর্ব দিক থেকে (সচন্তে) সিঞ্চিত করে এবং [যার জন্য] (ককুহাসঃ) মহান বিদ্বানগণ (বাম্) তোমাদের উভয়কে (রথে) রমণীয় রথে (বহন্তি) নিয়ে চলে ॥২॥

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ বিজ্ঞান দ্বারা যান-বিমান আদি নির্মাণ করে রাজ্যের সম্পত্তি বৃদ্ধি করুক এবং অন্ন আদি প্রাপ্ত করে রাজা এবং প্রজাদের সুখী করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    (অশ্বিনা) হে অশ্বিগণ! (নপাতা) হে রাষ্ট্রের পতন থেকে রক্ষাকারী! (যুবম্) তোমরা দুজন, (দেবতা তাং=দেবতাতা=দেবতাতৌ) দেবতাসদৃশ অধিকারীদের দ্বারা বিস্তারিত রাষ্ট্র-যজ্ঞে, (শচীভিঃ) নিজ প্রজ্ঞা তথা নিজ কর্ম দ্বারা (দিবঃ শ্রিয়ম্) দিব্য শোভা (বনথঃ) প্রাপ্ত করো। (যুবোঃ) তোমাদের দুজনের (বপুঃ) শরীরের ওপর (পৃক্ষঃ) মানপদক (অভি সচন্তে) বিদ্যমান থাকে (যৎ) যদ্যপি (ককুহাসঃ) মহানিপুণ রথ-সঞ্চালক (বাম্) তোমাদের (রথে) রথে (বহন্তি) নিয়ে যায়/বহন করে ।

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