अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 9
अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । सु॒खे । रथे॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ ॥ घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ब॒र्हि: । आ॒ऽसदे॑ ॥२३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं त्वा सुखे रथे वहतामिन्द्र केशिना। घृतस्नू बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । त्वा । सुखे । रथे । वहताम् । इन्द्र । केशिना ॥ घृतस्नू इति घृतऽस्नू । बर्हि: । आऽसदे ॥२३.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (सुखे) सुख देनेवाले [सब ओर चलनेवाले] (रथे) रथ में (आसदे) बैठने के लिये (केशिना) प्रकाश [अग्नि] वाले और (घृतस्नू) जल को भाप से टपकानेवाले [दो पदार्थ] (अर्वाञ्चम्) नीचे चलते हुए (त्वा) तुझको (बर्हिः) आकाश में (वहताम्) पहुँचावें ॥९॥
भावार्थ
विद्वान् राजा विज्ञानी शिल्पियों द्वारा अग्नि और जल से चलनेवाले विमान को पृथिवी से आकाश में और आकाश से पृथिवी पर जाने के लिये बनवावे ॥९॥
टिप्पणी
९−(अर्वाञ्चम्) अधोगच्छन्तम् (त्वा) त्वाम् (सुखे) सुखकरे सर्वदिक्षु गमनशीले (रथे) रमणीये याने विमाने (वहताम्) द्विकर्मकः। प्रापयताम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (केशिना) अ० ९।१०।२६। काशृ दीप्तौ-अच् घञ् वा, इनि, काशी सन् केशी। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा-निरु० १२।२। प्रकाशवन्तौ अग्नियुक्तौ (घृतस्नू) घृतम् उदकनाम-निघ० १।१२। ष्णु प्रस्रवणे-क्विप्। घृतस्य जलस्य स्नु वाष्पेण स्रवणं ययोस्तौ पदार्थौ (बर्हिः) अन्तरिक्षं प्रति-निघ० १।३। (आसदे) कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः। पा० ३।४।१४। सीदतेः केन्-प्रत्ययः कृत्यार्थे। आसादनाय। उपवेशनाय ॥
विषय
केशिना-घृतस्नू
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (सुखे रथे) = [सुखि] उत्तम इन्द्रियोंवाले [सुखकर] इस शरीर-रथ में केशिना-प्रकाश की रश्मियोंवाले ये (इन्द्रियाश्व त्वा) = आपको (अर्वाञ्चम्) = हमारे अभिमुख (वहताम्) = प्राप्त कराएँ। २. (घृत-स्नू) = दीप्ति को प्रस्तुत करनेवाले ये अश्व आपको (बर्हि) = हमारे हृदयान्तरिक्ष में (आसदे) = बैठने के लिए हमारे अभिमुख प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
हमारी इन्द्रियों ज्ञानदीतिवाली होती हुई हमें प्रभु को प्राप्त कराएँ। अगले सूक्त का ऋषि भी 'विश्वामित्र' हो है
भाषार्थ
(केशिना) प्रकाश को प्राप्त हुई हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ (घृतस्नू) तथा जल के सदृश प्रवाहरूप में बहते हुए हमारे भक्तिरसों को आपकी ओर प्रवाहित करती हुई हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ (सुखे रथे) हमारे सुखमय शरीर-रथों में (त्वा) आपको (अर्वाञ्चम्) हमारी ओर (वहताम्) प्रेरित करें। ताकि आप (बर्हिः) हमारे हृदयासनों पर (आ सदे) आ विराजें।
टिप्पणी
[मन्त्र में इन्द्रियों को अश्वरूप, तथा शरीर को रथरूप में वर्णित किया है। घृतस्नू=घृत=घृ क्षरणे; स्नु प्रस्रवणे। घृत=उदक (निघं০ १.१२)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
May two carriers with flames of fire, fed on clarified and bright burning fuel, carry you forward, up and down, in a comfortable car and reach you to the heights of the sky.
Translation
O mighty king, let steaming (ghritasnu) fire and air (Keshina) or light-remitting fire and electrcity carry you in comfortable for car arriving below (i.e. on earth) and in sky (varhisi).
Translation
O mighty king, let steaming (ghritasnu) fire and air (Keshina) or light-remitting fire and electricity carry you in comfortable for car arriving below (i.e. on earth) and in sky (varhisi).
Translation
O Radiant God, the refulgent Pran and Udan, reposed in peaceful state of the soul, may bring Thee to the fore-front vision of the soul, in the very core of his heart, where Thou art well-seated. Or, O Glorious king, the two horses, with their long manes, shedding their valour and energy, yolked to thy comfortable chariot, may bring thee, wellseated in thy large seat to our fore-front.
Footnote
The full vision of God is revealed to a Yogi in deep meditation, after the full control of Pran and Udan.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(अर्वाञ्चम्) अधोगच्छन्तम् (त्वा) त्वाम् (सुखे) सुखकरे सर्वदिक्षु गमनशीले (रथे) रमणीये याने विमाने (वहताम्) द्विकर्मकः। प्रापयताम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (केशिना) अ० ९।१०।२६। काशृ दीप्तौ-अच् घञ् वा, इनि, काशी सन् केशी। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा-निरु० १२।२। प्रकाशवन्तौ अग्नियुक्तौ (घृतस्नू) घृतम् उदकनाम-निघ० १।१२। ष्णु प्रस्रवणे-क्विप्। घृतस्य जलस्य स्नु वाष्पेण स्रवणं ययोस्तौ पदार्थौ (बर्हिः) अन्तरिक्षं प्रति-निघ० १।३। (आसदे) कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः। पा० ३।४।१४। सीदतेः केन्-प्रत्ययः कृत्यार्थे। आसादनाय। उपवेशनाय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (সুখে) সুখ প্রদানকারী [সর্বদিকে গমনশীল] (রথে) রথে (আসদে) বসার জন্য (কেশিনা) প্রকাশ [অগ্নি] যুক্ত এবং (ঘৃতস্নূ) জলকে বাষ্প দ্বারা স্রবিতকারী [দুই পদার্থ] (অর্বাঞ্চম্) নীচে গমন করে (ত্বা) তোমাকে (বর্হিঃ) আকাশে (বহতাম্) প্রেরণ করুক॥৯॥
भावार्थ
বিদ্বান্ রাজা বিজ্ঞানী শিল্পীদের দ্বারা অগ্নি ও জলে চলনশীল বিমানকে পৃথিবী থেকে আকাশে এবং আকাশ থেকে পৃথিবীতে যাওয়ার জন্য করুক ॥৯॥
भाषार्थ
(কেশিনা) প্রকাশ প্রাপ্ত আমাদের জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়-সমূহ (ঘৃতস্নূ) তথা জলের সদৃশ প্রবাহরূপে বাহিত আমাদের ভক্তিরস আপনার দিকে প্রবাহিত করে আমাদের জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়-সমূহ (সুখে রথে) আমাদের সুখময় শরীর-রথে (ত্বা) আপনাকে (অর্বাঞ্চম্) আমাদের দিকে (বহতাম্) প্রেরিত করুক। যাতে আপনি (বর্হিঃ) আমাদের হৃদয়াসনে (আ সদে) এসে বিরাজ করেন।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal