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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२९
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    अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चेः॒ शिर॑ इ॒न्द्रोद॑वर्तयः। विश्वा॒ यदज॑यः॒ स्पृधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम् । फेने॑न । नमु॑चे: । शिर॑: । इ॒न्द्र॒ । उत् । अ॒व॒र्त॒य॒: ॥ विश्वा॑: । यत् । अज॑य: । स्पृध॑: ॥२९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपां फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः। विश्वा यदजयः स्पृधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम् । फेनेन । नमुचे: । शिर: । इन्द्र । उत् । अवर्तय: ॥ विश्वा: । यत् । अजय: । स्पृध: ॥२९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] (अपाम्) जलों के (फेनेन) फेन [झाग के समान हलके तीक्ष्ण शस्त्रविशेष] से (नमुचेः) न छूटने योग्य [दण्डनीय पापी] के (शिरः) शिर को (उत् अवर्तयः) तूने उछाल दिया है, (यत्) जबकि (विश्वाः) सब (स्पर्धः) झगड़नेवाली सेनाओं को (अजयः) तूने जीता है ॥३॥

    भावार्थ

    सेनापति पानी के झाग के समान हलके तीक्ष्ण चक्र आदि हथियारों से शत्रु का शिर काटकर उसकी सेना को जीते ॥३॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-१९।७१ तथा सामवेद-पू० ३।२।८ ॥ ३−(अपाम्) जलानाम् (फेनेन) फेनवल्लघुतीक्ष्णशस्त्रविशेषेण (नमुचेः) अ० २०।२१।७। अमोचनीयस्य दण्डनीयस्य पापिनः (शिरः) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् सेनापते (उदवर्तयः) ऊर्ध्वं गमितवानसि (विश्वाः) सर्वाः (यत्) यदा (अजयः) जितवानसि (स्पृधः) स्पर्ध संघर्षे-क्विप्, रेफस्य ऋकारः अकारलोपश्च। स्पर्धमानाः। युध्यमानाः शत्रुसेनाः ॥

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    विषय

    अपां फेनेन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (अपाम्) = कर्मों के (फेनेन) = आप्यायन-वर्धन से [स्फायी वृद्धौ] न(मुचे:) = इस पीछा न छोड़नेवाली वासना के (शिर:) = सिर को (उदवर्तय:) = शरीर से उद्गत कर देता है-विच्छिन्न कर डालता है। कर्मों में लगे रहने के द्वारा वासना को विनष्ट कर डालता है। २. यही वह समय होता है (यत्) = जबकि तू (विश्वा) = सब (स्पृधः) = स्पर्धा करती हुई शत्रु-सेनाओं को अजयः-जीत लेता है। यह क्रियाशीलता तुझे सब शत्रुओं के पराभव के लिए समर्थ करती हैं।

    भावार्थ

    हम क्रियाशील बनकर वासना-सम्नाट् 'कामदेव' के सिर का उच्छेदन कर डालें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! शरीर में रहनेवाले (अपाम्) रस-रक्तरूपी जलों के (फेनेन) वीर्यरूपी फेन द्वारा आपने (नमुचेः) न मुक्त होनेवाले, न छूटनेवाले पाप-वृत्र के (शिरः) सिर को (उदवर्तयः) काट दिया है। (यत्) क्योंकि पापों के मूलभूत (स्पृधः) स्पर्धा आदि (विश्वाः) सब दुर्वृत्तियों पर (अजयः) आपने हमें विजय दिलाई है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि ऊर्ध्वरेता उपासक स्पर्धा आदि दुर्वृत्तियों पर जब विजय पा लेता है, तब दृढ़मूल पापों का भी वह उच्छेद कर लेता है। परन्तु इस प्रयत्न में परमेश्वर की कृपा का आह्वान आवश्यक है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    When you fight out the adversaries of life and humanity, you crush the head of the demon of drought and famine with the sea mist and the cloud.

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    Translation

    When this air over-powers all the rival forces striks down the top of cloud restraining water with the moisture of waters.

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    Translation

    When this air over-powers all the rival forces striks down the top of cloud restraining water with the moisture of waters.

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    Translation

    The Sun, overcoming all contending forces of nature, shatters down the head of the cloud, which resists letting down water in the form of rain, by the mere force of the foam of waters, struggling against one another. Or The king, overcoming all contending forces of the enemy, cuts off the head of the foe, unfit to be left alive by the concentration of all his forces at one point.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-१९।७१ तथा सामवेद-पू० ३।२।८ ॥ ३−(अपाम्) जलानाम् (फेनेन) फेनवल्लघुतीक्ष्णशस्त्रविशेषेण (नमुचेः) अ० २०।२१।७। अमोचनीयस्य दण्डनीयस्य पापिनः (शिरः) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् सेनापते (उदवर्तयः) ऊर्ध्वं गमितवानसि (विश्वाः) सर्वाः (यत्) यदा (अजयः) जितवानसि (स्पृधः) स्पर्ध संघर्षे-क्विप्, रेफस्य ऋकारः अकारलोपश्च। स्पर्धमानाः। युध्यमानाः शत्रुसेनाः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ সেনাপতি] (অপাম্) জলের (ফেনেন) ফেন [ফেনার ন্যায় হালকা তীক্ষ্ণ শস্ত্র বিশেষ] দ্বারা (নমুচেঃ) অমোচনীয় [দণ্ডনীয় পাপীর] (শিরঃ) শির (উৎ অবর্তয়ঃ) তুমি উর্ধ্বে নিক্ষেপ/উৎক্ষেপণ করেছো, (যৎ) যখন (বিশ্বাঃ) সকল (স্পর্ধঃ) যুদ্ধরত সেনাদের (অজয়ঃ) তুমি জয় করেছো ॥৩॥

    भावार्थ

    সেনাপতি জলের ফেনার ন্যায় হালকা তীক্ষ্ণ চক্র আদি শস্ত্র দ্বারা শত্রুর শিরচ্ছেদ করে তাঁদের সেনাদের জয় করে/করুক ॥৩॥ এই মন্ত্র যজুর্বেদেও আছে-১৯।৭১ এবং সামবেদ-পূ০ ৩।২।৮।

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! শরীরের মধ্যে বর্তমান (অপাম্) রস-রক্তরূপী জলের (ফেনেন) বীর্যরূপী ফেনা দ্বারা আপনি (নমুচেঃ) অমুক্ত/দৃঢ়রূপে বদ্ধ পাপ-বৃত্রের (শিরঃ) শির/মস্তক (উদবর্তয়ঃ) ছিন্ন করেছেন। (যৎ) কেননা/কারণ পাপের মূলভূত (স্পৃধঃ) স্পর্ধা আদি (বিশ্বাঃ) সকল দুর্বৃত্তির ওপর (অজয়ঃ) আপনি আমাদের বিজয়ী করিয়েছেন।

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