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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४
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    आ नो॑ याहि सु॒ताव॑तो॒ऽस्माकं॑ सुष्टु॒तीरुप॑। पिबा॒ सु शि॑प्रि॒न्रन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । या॒हि॒ । सु॒तऽव॑त: । अ॒स्माक॑म् । सु॒ऽस्तु॒ती: । उप॑ । पिब॑ । सु । शि॒प्रि॒न् । अन्ध॑स: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो याहि सुतावतोऽस्माकं सुष्टुतीरुप। पिबा सु शिप्रिन्रन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । याहि । सुतऽवत: । अस्माकम् । सुऽस्तुती: । उप । पिब । सु । शिप्रिन् । अन्धस: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    महौषधियों के रसपान का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे इन्द्र राजन् !] (अस्माकम्) हमारी (सुष्टुतीः) सुन्दर स्तुतियों को (उप=उपेत्य) प्राप्त होकर (सुतावतः) उत्तम पुत्र आदि [सन्तानों] वाले (नः) हम लोगों को (आ याहि) आकर प्राप्त हो। (सुशिप्रिन्) हे दृढ़ जबड़ेवाले ! (अन्धसः) इस अन्न रस का (सु) भले प्रकार (पिब) पान कर ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य सुन्दर महौषधियों के रस के सेवन से हृष्ट-पुष्ट होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।१७।४-६ ॥ १−(आ) आगत्य (नः) अस्मान् (याहि) प्राप्नुहि (सुतावतः) उत्तमसन्तानयुक्तान् (अस्माकम्) (सुष्टुतीः) शोभनाः स्तुतीः (उप) उपेत्य (पिब) पानं कुरु (सु) सुष्ठु (शिप्रिन्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शिञ् निशाने छेदने-रक्, पुक् च, यद्वा सृप्लृ गतौ-रक्, सृशब्दस्य शिभावः। शिप्रे हनूनासिके वा-निरु० ६।१७। हे दृढहनूयुक्त (अन्धसः) अन्नरसस्य ॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (सुतावत:) = सोम का सम्पादन करनेवाले व यज्ञशील (न:) = हमें (आयाहि) = प्राप्त होइए। (अस्माकम्) = हमारी (सुष्टुती:) = उत्तम स्तुतियों को (उप) = समीपता से प्राप्त होइए। हम हृदयस्थ आपका सदा उत्तम स्तवन करनेवाले बनें। २. हे (सुशिप्रिन्) = उत्तम हनू व नासिकाओं के देनेवाले प्रभो! (अन्धसः) = सोम का (सुपिब) = शरीर में ही सम्यक् पान कीजिए। हम भोजन को सम्यक् चबाते हुए [हनू] तथा प्राणायाम [नासिका] करते हुए सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर पाएँ।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण के लिए आवश्यक है कि [१] हम प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें [२] भोजन को खूब चबाकर खाएँ [३] प्राणायाम के अभ्यासी हों।

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    भाषार्थ

    हे अध्यात्म-शक्ति-सम्पन्न उपासक शिष्य! (सुतावतः) भक्तिरस-वाले (अस्माकम्) हम गुरुओं की (सुष्टुतीः) उत्तम स्तुतियों के (उप) समीप, और (नः) हमारे समीप (आ याहि) तू आया कर। (सुशिप्रिन्) हे सुन्दर मुखवाले! (अन्धसः) और भक्तिरसरूपी आध्यात्मिक अन्नरस का (पिब) पान किया कर। [इन्द्र=जीवात्मा, जो कि इन्द्रियों का अधिष्ठाता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    O lord of cosmic beauty, come to us, listen to our song of adoration and drink of the soma distilled by us with intense love and devotion.

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    Translation

    O Indra (King) hearing of our praises come to us who are blessed with offspring. O fair-faced one, you drink the juice of herbs.

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    Translation

    O Indra (King) hearing of our praises come to us who are blessed with offspring. fair-faced one, you drink the juice of herbs.

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    Translation

    O God, come to us, who have been able to produce spiritual knowledge in deep meditation and listen to our praises. O Beautiful One, make us drink deep of Thy Bliss.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।१७।४-६ ॥ १−(आ) आगत्य (नः) अस्मान् (याहि) प्राप्नुहि (सुतावतः) उत्तमसन्तानयुक्तान् (अस्माकम्) (सुष्टुतीः) शोभनाः स्तुतीः (उप) उपेत्य (पिब) पानं कुरु (सु) सुष्ठु (शिप्रिन्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शिञ् निशाने छेदने-रक्, पुक् च, यद्वा सृप्लृ गतौ-रक्, सृशब्दस्य शिभावः। शिप्रे हनूनासिके वा-निरु० ६।१७। हे दृढहनूयुक्त (अन्धसः) अन्नरसस्य ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মহৌষধিরসপানোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে রাজা ইন্দ্র !] (অস্মাকম্) আমাদের (সুষ্টুতীঃ) সুন্দর স্তুতি (উপ=উপেত্য) প্রাপ্ত হয়ে (সুতাবতঃ) উত্তম পুত্রাদি [সন্তান] সম্পন্ন (নঃ) আমাদের (আ যাহি) এসে প্রাপ্ত হও। (সুশিপ্রিন্) হে শক্ত চোয়ালসম্পন্ন ! (অন্ধসঃ) এই অন্নরসকে (সু) উত্তমরূপে (পিব) পান করো ॥১॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সুন্দর মহৌষধিসমূহের রস পান করে হৃষ্ট-পুষ্ট হোক। এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-৮।১৭।৪-৬।।

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    भाषार्थ

    হে আধ্যাত্ম-শক্তি-সম্পন্ন উপাসক শিষ্য! (সুতাবতঃ) ভক্তিরসসম্পন্ন (অস্মাকম্) আমাদের [গুরুদের] (সুষ্টুতীঃ) উত্তম স্তুতির (উপ) সমীপে, এবং (নঃ) আমাদের সমীপে (আ যাহি) তুমি এসো। (সুশিপ্রিন্) হে সুন্দর মুখবিশিষ্ট! (অন্ধসঃ) এবং ভক্তিরসরূপী আধ্যাত্মিক অন্নরস (পিব) পান করো। [ইন্দ্র=জীবাত্মা, ইন্দ্রিয়-সমূহের অধিষ্ঠাতা।]

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