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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४
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    आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु। गृ॑भा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । सि॒ञ्चा॒मि॒ । कु॒क्ष्यो: । अनु॑ । गात्रा॑ । वि । धा॒व॒तु॒ ॥ गृ॒भा॒य । जि॒ह्वया॑ । मधु॑ ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते सिञ्चामि कुक्ष्योरनु गात्रा वि धावतु। गृभाय जिह्वया मधु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ते । सिञ्चामि । कुक्ष्यो: । अनु । गात्रा । वि । धावतु ॥ गृभाय । जिह्वया । मधु ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    महौषधियों के रसपान का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (ते) तेरी (कुक्ष्योः) दोनों कोखों में (मधु) मधुर पान को (आ) भली-भाँति (सिञ्चामि) मैं सींचता हूँ, वह (गात्रा अनु) [तेरे] अङ्गों में (वि धावतु) दौड़ने लगे, [इसको] (जिह्वया) जीभ से (गृभाय) ग्रहण कर ॥२॥

    भावार्थ

    सद्वैद्य रुधिरसंचारक ओषधियों का सेवन कराके मनुष्यों को पुष्ट रक्खें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(आ) समन्तात् (ते) तव (सिञ्चामि) अवनयामि। पूरयामि (कुक्ष्योः) सव्यदक्षिणपार्श्वयोः (अनु) प्रति (गात्रा) अङ्गानि (वि) विविधम्। सर्वत्र (धावतु) प्रवहतु (गृभाय) श्नः शायजादेशः, हस्य भः। गृहाण (जिह्वया) रसनया (मधु) मधुरपानम् ॥

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    विषय

    मधुरभाषण

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं इस सोम को (ते कुक्ष्यो:) = तेरी कोखों में (आसिञ्चामि) = सींचता हैं। यह सोम रुधिर में व्याप्त होकर (गात्रा) = तेरे अंग-प्रत्यंग में (अनुविधावतु) = अनुक्रम से गतिवाला हो। उन अंगों में व्याप्त होकर यह शोधन करे [धावु गतिशुद्धयोः] । २. इस सोम के सर्वत्र व्यास होने पर तू (जिह्वाया) = जिह्वा से (मधु गृभाय) = मधु का ग्रहण कर, अर्थात् तू सदा मधुरभाषणवाला हो। सोम-रक्षण से सारी क्रियाओं में ही माधुर्य का व्यापन होता है, वाणी भी मधुर बनती है।

    भावार्थ

    प्रभु ने सोम को शरीर में इसलिए उत्पन्न किया है कि यह सब अंगों को शुद्ध बनानेवाला हो। शरीर में सुरक्षित सोम सब रोगकृमियों का संहारक होता है। वाणी को भी यह मधुर बनाता है।

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    भाषार्थ

    हे अध्यात्म शिष्य! (ते) तेरी (कुक्ष्योः) दोनों कुक्षियों में, मैं गुरु (आ सिञ्चामि) पूर्णतया भक्तिरस सींचता हूं। (अनु) तत्पश्चात् यह भक्तिरस (गात्रा) तेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग में (विधावतु) दौड़ जाए, शीघ्रतया व्याप्त हो जाए, और तेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग को विशुद्ध कर दे। जैसे कि (जिह्वया गृभाय मधु) जिह्वा द्वारा ग्रहण किया मधु अर्थात् शहद शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में व्याप्त हो जाता है।

    टिप्पणी

    [कुक्षि का प्रसिद्ध अर्थ है—पेट और गर्भाशय। परन्तु कुक्षि शब्द गर्त अर्थात् गढ़े अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। मन्त्र में “कुक्ष्योः” पद द्विवचनान्त है। इसलिए मन्त्र में दो गर्तों की ओर निर्देश हुआ है। यहाँ मस्तिष्क और हृदय ये दो गर्त अभिप्रेत हैं। मस्तिष्क स्थान है विचारों का, और हृदय स्थान है हार्दिक भावनाओं का। उपासक के विचार और उसकी हार्दिक भावनाएँ दोनों ही भक्तिरस से रसीले होने चाहिएँ। तदनन्तर ही उपासक के अङ्ग-प्रत्यङ्ग से भक्तिरस की झांकी मिल सकती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    I create and pour the soma into the body spaces of your creation, taste the sweets with your tongue and let the exhilaration of honey radiate to every cell of the cosmic body.

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    Translation

    O King, I pour it in to your belly let it run into the members of your body and you take this sweet one by your tongue.

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    Translation

    O King, I pour it in to your belly let it run into the members of your body and you take this sweet one by your tongue.

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    Translation

    O man, I pour out this Soma into both sides of thy belly. Let it then run through all thy organs. Taste this sweet juice with thy tongue.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(आ) समन्तात् (ते) तव (सिञ्चामि) अवनयामि। पूरयामि (कुक्ष्योः) सव्यदक्षिणपार्श्वयोः (अनु) प्रति (गात्रा) अङ्गानि (वि) विविधम्। सर्वत्र (धावतु) प्रवहतु (गृभाय) श्नः शायजादेशः, हस्य भः। गृहाण (जिह्वया) रसनया (मधु) मधुरपानम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মহৌষধিরসপানোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে রাজন্ !] (তে) তোমার (কুক্ষ্যোঃ) উভয় গর্ভে (মধু) মধুর পানকে (আ) ভালোভাবে (সিঞ্চামি) আমি সিঞ্চণ করি, তা (গাত্রা অনু) [তোমার] অঙ্গে (বি ধাবতু) প্রবাহিত হোক, [ইহা] (জিহ্বয়া) জিহবা দ্বারা (গৃভায়) গ্রহণ করো ॥২॥

    भावार्थ

    ভাবার্থ- সদ্বৈদ্য রক্তসঞ্চালক ঔষধি সেবন করানোর মাধ্যমে মনুষ্যকে পুষ্ট রাখুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    হে আধ্যাত্ম শিষ্য! (তে) তোমার (কুক্ষ্যোঃ) দুই কুক্ষিতে, আমি গুরু (আ সিঞ্চামি) পূর্ণরূপে ভক্তিরস সীঞ্চন করি। (অনু) তৎপশ্চাৎ এই ভক্তিরস (গাত্রা) তোমার অঙ্গ-প্রত্যঙ্গে (বিধাবতু) ধাবিত হোক, শীঘ্র ব্যাপ্ত হোক, এবং তোমার অঙ্গ-প্রত্যঙ্গকে বিশুদ্ধ করুক। যেমন (জিহ্বয়া গৃভায় মধু) জিহ্বা দ্বারা গৃহীত মধু শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গে ব্যাপ্ত হয়ে যায়।

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