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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    ऋषिः - खिलः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४९
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    यच्छ॒क्रा वाच॒मारु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं सिषासथः। सं दे॒वा अ॑मद॒न्वृषा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । श॒क्रा: । वाच॒म् । आरु॑हन् । अ॒न्तरि॑क्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । दे॒वा: । अ॑म॒दन् । वृषा॑ ॥४९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्छक्रा वाचमारुहन्नन्तरिक्षं सिषासथः। सं देवा अमदन्वृषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । शक्रा: । वाचम् । आरुहन् । अन्तरिक्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । देवा: । अमदन् । वृषा ॥४९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (वृषा) बलवान् परमेश्वर (सिषासथः) दान की इच्छा करनेवाला [हुआ], [नव] (शक्राः) समर्थ (देवाः) विद्वानों ने (वाचम्) वाणी [वेदवाणी] को (अन्तरिक्षम्) हृदय आकाश में (आरुहन्) बोया और (सम्) ठीक रीति से (अमदन्) आनन्द पाया ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की दी हुई वेदवाणी को पाकर विद्वान् लोग समर्थ होकर आनन्द पावें ॥१॥

    टिप्पणी

    [सूचना−मन्त्र १-३ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है, और इनका पदपाठ भी गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में नहीं है, आगे सूचना−सूक्त ४८ मन्र १-३ देखो ॥]सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−यच्छ॒क्रं वाच॒ आरु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं॒ सिषा॑सतीः। सं दे॒वो अ॑मद॒द् वृषा॑ ॥१॥ (यत्) जब (अन्तरिक्षम्) हृदय आकाश को (सिषासतीः) सेवने की इच्छा करती हुई (वाचः) वाणियाँ (शक्रम्) समर्थ [जीव] को (आरुहन्) प्रकट हुई, [तब] (देवः) विजय चाहनेवाले (वृषा) बलवान् पुरुष ने (सम्) ठीक-ठीक (अमदत्) आनन्द पाया ॥१॥जब मनुष्य हृदय के भाव प्रकट करने के लिये परमेश्वरनियम से बोलने की शक्ति पाता है, तब वह व्यवहारों की सिद्धि करके सुखी होता है ॥१॥ १−(यत्) यदा (शक्राः) समर्थाः (वाचः) वाणीम् (आरुहन्) बीजवत् स्थापितवन्तः (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशं प्रति (सिषासथः) शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।११३। षणु दाने-सनि अथप्रत्ययः। दानेच्छुकः-आसीत् इति शेषः (सम्) सम्यक् (देवाः) विद्वांसः (अमदन्) आनन्दं प्राप्नुवन् (वृषा) बलिष्ठः परमेश्वरः ॥ १−(यत्) यदा (शक्रम्) समर्थजीवम् (वाचः) वाण्यः (आरुहन्) प्रादुरभवन् (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशम् (सिषासतीः) षण सम्भक्तौ, सन्, शतृ, ङीप्। सेवितुमिच्छन्त्यः (सम्) सम्यक् (देवः) विजिगीषुः (अमदत्) हर्षं प्राप्नोत् (वृषा) बलवान् पुरुषः ॥

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    विषय

    शक्र+देव

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब अन्तरिक्ष (सिषासथ:) = हृदयान्तरिक्ष का सेवन करने की इच्छावाले, अर्थात् हमारे हृदयों में निवास करनेवाले प्रभु (वाचम्) = वाणी को (शक्काः) = शक्तिशाली पुरुष (आरुहन्) = आरुढ़ करते हैं, अर्थात् जब हृदयास्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं अथवा वेदवाणी का अध्ययन करते हैं तब (देवा:) = ये देववृत्ति के पुरुष (वृषा:) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु के साथ सममदन् [सम् अमदन्] आनन्द का अनुभव करते हैं। २. प्रभु सर्वव्यापक हैं, परन्तु भक्तों के हृदय प्रभु के सर्वोत्तम निवास स्थान है। सर्वव्यापक होने पर भी प्रभु का दर्शन हृदय में ही होता है। हृदय ही वह स्थान है, जहाँ आत्मा व परमात्मा–ज्ञाता व ज्ञेय दोनों की स्थिति है। इस हृदय में स्थित प्रभु की वाणी को हम सुनते हैं तो सब वासनाओं से ऊपर उठकर शक्तिशाली बनते हुए हम देववृत्ति के बन पाते है।

    भावार्थ

    हम हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनें। यही मार्ग है जिससे हम 'शक्र व देव' बनेंगे।

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    भाषार्थ

    (यत्) जब (शक्राः) शक्ति-सम्पन्न (देवाः) उपासक देव, (सम्) परस्पर मिलकर, (अमदन्) परमेश्वर की स्तुतियाँ करते हैं, तब ये भक्ति के आवेश में, (वाचम्) सामगान के स्वरों का (आरुहन्) आरोहण करते हैं, अर्थात् उच्च स्वरों में सामगान गाते हैं। तब हे उपासक नरवर्ग! और नारीवर्ग! तुम दोनों (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (सिषासथः) अपने स्वरें पहुँचा देते हो, अर्थात् अन्तरिक्ष को अपने स्वरों से गुञ्जा देते हो। तदनन्तर (वृषा) आनन्दरसवर्षी परमेश्वर तुम पर आनन्दरस की वर्षा करता है।

    टिप्पणी

    [अमदन्=मदि स्तुतौ। आरोह The ascending scale of notes in music (आप्टे)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    When veteran saints and sages of firm conviction and dedicated will rise on the wings of vision and imagination and send up their voice of divine adoration in space, the divinities rejoice with them and the lord omnificent sends down showers of bliss.

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    Translation

    When the men endowed with spiritual power mount on the vedic speech or the syllabus Aum enter the internal space within their hearts. The vital airs and Vrisha, the soul enjoy pleasure.

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    Translation

    When the men endowed with spiritual power mount on the vedic speech or the syllabus Aum enter the internal space within their hearts. The vital airs and Vrisha, the soul enjoy pleasure.

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    Translation

    When the energetic devotees, carried by the Vedic praise-songs in ecstasy, reach the innermost recesses of the mind in deep meditation, they revel in the highest bliss, along with the showerer of all blessings. Or When the Vedic prayers, raising aloft the pure energetic soul, touch the innermost recesses of the mind, the enlightened soul revels in the highest state of beatitude along with the showerer of all blessings.

    Footnote

    Verses 1-3 have two readings each. Second readings are according to the versions,edited by Sevak Lal and Griffith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    [सूचना−मन्त्र १-३ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है, और इनका पदपाठ भी गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में नहीं है, आगे सूचना−सूक्त ४८ मन्र १-३ देखो ॥]सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−यच्छ॒क्रं वाच॒ आरु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं॒ सिषा॑सतीः। सं दे॒वो अ॑मद॒द् वृषा॑ ॥१॥ (यत्) जब (अन्तरिक्षम्) हृदय आकाश को (सिषासतीः) सेवने की इच्छा करती हुई (वाचः) वाणियाँ (शक्रम्) समर्थ [जीव] को (आरुहन्) प्रकट हुई, [तब] (देवः) विजय चाहनेवाले (वृषा) बलवान् पुरुष ने (सम्) ठीक-ठीक (अमदत्) आनन्द पाया ॥१॥जब मनुष्य हृदय के भाव प्रकट करने के लिये परमेश्वरनियम से बोलने की शक्ति पाता है, तब वह व्यवहारों की सिद्धि करके सुखी होता है ॥१॥ १−(यत्) यदा (शक्राः) समर्थाः (वाचः) वाणीम् (आरुहन्) बीजवत् स्थापितवन्तः (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशं प्रति (सिषासथः) शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।११३। षणु दाने-सनि अथप्रत्ययः। दानेच्छुकः-आसीत् इति शेषः (सम्) सम्यक् (देवाः) विद्वांसः (अमदन्) आनन्दं प्राप्नुवन् (वृषा) बलिष्ठः परमेश्वरः ॥ १−(यत्) यदा (शक्रम्) समर्थजीवम् (वाचः) वाण्यः (आरुहन्) प्रादुरभवन् (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशम् (सिषासतीः) षण सम्भक्तौ, सन्, शतृ, ङीप्। सेवितुमिच्छन्त्यः (सम्) सम्यक् (देवः) विजिगीषुः (अमदत्) हर्षं प्राप्नोत् (वृषा) बलवान् पुरुषः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ঈশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (বৃষা) বলবান পরমেশ্বর (সিষাসথঃ) দানের ইচ্ছুক [হয়েছেন], [নব] (শক্রাঃ) সমর্থ (দেবাঃ) বিদ্বানগণ (বাচম্) বাণীকে [বেদবাণীকে] (অন্তরিক্ষম্) হৃদয় আকাশে (আরুহন্) বপন করেছে এবং (সম্) সঠিক রীতিতে (অমদন্) আনন্দ প্রাপ্ত হয়েছে ॥১॥

    भावार्थ

    পরমাত্মার প্রদত্ত বেদবাণী প্রাপ্ত করে বিদ্বানগণ সমর্থ হয়ে আনন্দ প্রাপ্ত হোক ॥১॥ [সূচনা−মন্ত্র ১-৩ ঋগ্বেদ আদি অন্য বেদে নেই, এবং পদপাঠও গভর্নমেন্ট বুকডিপো বম্বই-এর পুস্তকে নেই, সূচনা−সূক্ত ৪৮ মন্ত্র ১-৩ দেখো ॥] সূচনা−পং০ সেবকলাল কৃষ্ণদাস পরিশোধিত সংহিতায় এই মন্ত্রের এই পাঠ আছে−যচ্ছ॒ক্রং বাচ॒ আরু॑হন্ন॒ন্তরি॑ক্ষং॒ সিষা॑সতীঃ। সং দে॒বো অ॑মদ॒দ্ বৃষা॑ ॥১॥ (যৎ) যখন (অন্তরিক্ষম্) হৃদয় আকাশকে (সিষাসতীঃ) সেবন করার ইচ্ছা করে (বাচঃ) বাণী-সমূহ (শক্রম্) সমর্থ [জীবের] মধ্যে (আরুহন্) প্রকট হল, [তখন] (দেবঃ) বিজয়াকাঙ্ক্ষী (বৃষা) বলবান্ পুরুষ (সম্) সঠিকভাবে (অমদৎ) আনন্দ প্রাপ্ত কর ॥১॥যখন মনুষ্য হৃদয়ের ভাব প্রকট করার জন্য পরমেশ্বরনিয়ম দ্বারা বলার শক্তি পায়, তখন সে ব্যবহারের সিদ্ধি করে সুখী হয় ॥১॥

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    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (শক্রাঃ) শক্তি-সম্পন্ন (দেবাঃ) উপাসক দেব, (সম্) পরস্পর মিলে, (অমদন্) পরমেশ্বরের স্তুতি করে, তখন ভক্তির আবেশে, (বাচম্) সামগানের স্বরের (আরুহন্) আরোহণ করে, অর্থাৎ উচ্চ স্বরে সামগান করে। তখন হে উপাসক নরবর্গ! এবং নারীবর্গ! তোমরা দুজন (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষে (সিষাসথঃ) নিজেদের স্বর পৌঁছে দাও/প্রেরণ করো, অর্থাৎ অন্তরিক্ষকে নিজের স্বর দ্বারা গুঞ্জরিত করে দাও। তদনন্তর (বৃষা) আনন্দরসবর্ষী পরমেশ্বর তোমাদের ওপর আনন্দরসের বর্ষা/বর্ষণ করেন।

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