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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७
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    नव॒ यो न॑व॒तिं पुरो॑ बि॒भेद॑ बा॒ह्वोजसा। अहिं॑ च वृत्र॒हाव॑धीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नव॑ । य: । न॒व॒तिम् । पुर॑: । बि॒भेद॑ । बा॒हुऽओ॑जसा । अह‍ि॑म् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒व॒धी॒त् ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा। अहिं च वृत्रहावधीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नव । य: । नवतिम् । पुर: । बिभेद । बाहुऽओजसा । अह‍िम् । च । वृत्रऽहा । अवधीत् ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिस (वृत्रहा) शत्रुनाशक [सेनापति] ने (बाह्वोजसा) अपने बाहुबल से (नव नवतिम्) नौ नब्बे [९+९०=९९ अथवा ९*९०=८१०, अर्थात् असंख्य] (पुरः) दुर्गों को (बिभेद) तोड़ा है (च) और (अहिम्) सर्प [सर्पसमान हिंसक शत्रु] को (अवधीत्) मारा ॥२॥

    भावार्थ

    जो शूर सेनापति अनेक अधर्मी दुष्टों को नाश करे, वही प्रजा को धनवान् करता है ॥२, ३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र २ का मिलान करो-ऋक्० १।८४।१३ ॥ २−(यः) इन्द्रः (नव नवतिम्) नव च नवतिं च, यद्वा नवगुणितां नवतिं दशोत्तराणि अष्टाशतानि एतत्संख्याकाः। असंख्याः (पुरः) दुर्गाणि (बिभेद) भिन्नवान् (बाह्वोजसा) भुजबलेन (अहिम्) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण् स च डित्। आहन्तारं सर्पमिव हिंसकं शत्रुम् (च) (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (अवधीत्) हतवान् ॥

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    विषय

    वृत्रहा

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (वृत्रहा) = ज्ञान को आवरणभूत कामवासना को विनष्ट करनेवाला है वह (बाहु+ओजसा) = अपनी भुजाओं के बल से-सदा उत्तम कर्म से लगे रहने के द्वारा नवनवति (पुर:) = असुरों की निन्यानवे पुरियों का (बिभेद) = विदारण करता है। हमारे जीवन में आसुरभाव उत्पन्न होते हैं। वे दृढमूल होते जाते हैं। मानो वे अपने दुर्ग बना लेते हैं। सतत क्रियाशीलता के द्वारा हम सौ वर्ष के आयुष्य में निन्यानवे बार इनका विदारण करते हैं और प्रत्येक वर्ष को सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते हैं। २. (च) = और यह (वृत्रहा अहिम्) [आहन्तारम्] = सब प्रकार से विनष्ट करनेवाले इस वासनारूप शत्रु को (अवधीत्) = मार डालता है।

    भावार्थ

    क्रियाशीलता के द्वारा हम वासनाओं को अपने जीवन में दृढमूल न होने दें।

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    भाषार्थ

    (यः) जिस सूर्यों के सूर्य ने (बाह्वोजसा) निज ओजरूपी बाहुओं द्वारा (नवतिं नव) ९९ (पुरः) पाप-गढ़ों को (बिभेद) छिन्न-भिन्न कर दिया है, उसी परमेश्वर ने, (वृत्रहा) जो कि पापों का विनाशक है, (अहिं च) पाप-सांपों का भी (अवधीत्) वध कर दिया है।

    टिप्पणी

    [वृत्रः—वे पाप जिन्होंने जीवनों पर घेरा डाल हुआ है, जो कि प्रकटरूप में जीवनों को घेरे हुए हैं। अहिः—पाप-सांप वे पाप हैं, जो कि संस्काररूप में छिपे पड़े रहते हैं, और प्रकटरूप में उद्बुद्ध नहीं हुए। नवतिनव—ये ९९ पाप-गढ़ निम्नलिखित हैं—५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, और १ मन (अहंकार) ये ११ प्रमुख पाप-गढ़ हैं। सत्त्व, रजस्, तमस इन तीनों के परस्पर मेल से ३*३=९ भेद होते हैं। उपर्युक्त ११ पाप-गढ़ों के प्रत्येक के ९ भेदों से ९९ पाप-गढ़ होते हैं। इनमें पाप-सांप छिपे पड़े रहते हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra who breaks off the nine and ninty strongholds of darkness, ignorance and suffering by the force of his lustrous arms and, as the dispeller of darkness, destroys the crooked serpentine evil of the world:

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    Translation

    This sun which is the dispeller of clouds pierces the ninty nine groups of them through the heat of its rays dispels Ahi, the cloud.

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    Translation

    This sun which is the dispeller of clouds pierces the ninty nine groups of them through the heat of its rays dispels Ahi, the cloud.

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    Translation

    Electricity, which breaks, by the energy of its arms (i.e., positive and negative currents) the ninety-nine cities (i.e., the. so-called elements, known to the modern scientists, but called Bhogas in the Vedic terminology), destroys the cloud, which covers the rays of the sun, the source of all energy and power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र २ का मिलान करो-ऋक्० १।८४।१३ ॥ २−(यः) इन्द्रः (नव नवतिम्) नव च नवतिं च, यद्वा नवगुणितां नवतिं दशोत्तराणि अष्टाशतानि एतत्संख्याकाः। असंख्याः (पुरः) दुर्गाणि (बिभेद) भिन्नवान् (बाह्वोजसा) भुजबलेन (अहिम्) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण् स च डित्। आहन्तारं सर्पमिव हिंसकं शत्रुम् (च) (वृत्रहा) शत्रुहन्ता (अवधीत्) हतवान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যে (বৃত্রহা) শত্রুবিনাশক [সেনাপতি] (বাহ্বোজসা) নিজের বাহুবল দ্বারা (নব নবতিম্) নয় নব্বই [৯+৯০=৯৯ অথবা ৯*৯০=৮১০, অর্থাৎ অসংখ্য] (পুরঃ) দূর্গসমূহকে (বিভেদ) ধবংস করেছে (চ) এবং (অহিম্) সাপ [সর্পসমান হিংসক শত্রু]কে (অবধীৎ) বধ করো॥২॥

    भावार्थ

    যে বীর সেনাপতি বহু অধর্মী শত্রুদের বিনাশ করে, তিনি জনগণকে ধনী করেন ॥২, ৩॥ মন্ত্র ২ মেলাও -ঋক্০ ১।৮৪।১৩।

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    भाषार्थ

    (যঃ) যে সূর্য-সমূহের সূর্য (বাহ্বোজসা) নিজ ওজরূপী বাহু দ্বারা (নবতিং নব) ৯৯ (পুরঃ) পাপ-গঢ়কে/দূর্গ (বিভেদ) ছিন্ন-ভিন্ন করে দিয়েছে, সেই পরমেশ্বর, (বৃত্রহা) যিনি পাপের বিনাশক, (অহিং চ) পাপ-সাপেরও (অবধীৎ) বধ করেছেন।

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