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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७
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    स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखाश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न॒: । इन्द्र॑: । शि॒व: । सखा॑ । अश्व॑ऽवत् । गोऽम॑त् । यव॑ऽमत् । उ॒रुधा॑राऽइव । दो॒ह॒ते॒ ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत्। उरुधारेव दोहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । इन्द्र: । शिव: । सखा । अश्वऽवत् । गोऽमत् । यवऽमत् । उरुधाराऽइव । दोहते ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (शिवः) सुखदायक (सखा) मित्र (इन्द्रः) इन्द्रः [बड़े ऐश्वर्यवाला सेनापति] (उरुधारा इव) बहुत दूधवाली [गौ] के समान (नः) हमारे लिये (अश्ववत्) उत्तम घोड़ोंवाला, (गोमत्) उत्तम गौओंवाला और (यवमत्) उत्तम अन्नवाला [धन] (दोहते) दुहे [पूर्ण करे] ॥३॥

    भावार्थ

    जो शूर सेनापति अनेक अधर्मी दुष्टों को नाश करे, वही प्रजा को धनवान् करता है ॥२, ३॥

    टिप्पणी

    ३−(सः) पूर्वोक्तः (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (शिवः) सुखप्रदः (सखा) मित्रभूतः (अश्ववत्) उत्तमाश्वयुक्तम् (गोमत्) उत्तमगोभिरुपेतम् (यवमत्) उत्तमान्नयुक्तं धनम् (उरुधारा) प्रभूतक्षीरधारायुक्ता गाः (इव) यथा (दोहते) लेटि, अडागमः। पूरयेत् ॥

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    विषय

    शिवः सखा

    पदार्थ

    १. (सः) = वह (इन्द्रः) = शत्रुओं का द्रावण करनेवाला प्रभु (न:) = हमारा (शिवः सखा) = कल्याणकर मित्र है। प्रभु ही सर्वमहान् मित्र है। २. ये प्रभु (उरुधारा इव) = विशाल दुग्ध धाराओंवाली कामधेनु के समान हमारे लिए उस ऐश्वर्य को (दोहते) = प्रपूरण करते है, जोकि (अश्वावत्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाला है, (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला है तथा यवमत्-बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाला है [यु मिश्रणामिश्रणयोः]।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे कल्याणकर मित्र हैं। वे हमारे लिए उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराके हमारे जीवन से बुराइयों को दूर करते हैं तथा अच्छाइयों को हमारे साथ संगत करते है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह (इन्द्रः) परमेश्वर (शिवः) कल्याणकारी है वह (नः) हमारा (सखा) वास्तविक सखा है। वह हमें (अश्वावत्) मानसिक (गोमत्) और ऐन्द्रियिक सम्पत्तियों के साथ-साथ (यवमत्) जौ आदि के रूप में शारीरिक सम्पत्तियाँ (उरुधारा इव) महाधाराओं के रूप में (दोहते) प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    [अश्व=मन। “श्वेताश्वतरोपनिषद्” इस शब्द में कई विचारक “अश्व” का अर्थ मान करके, “अधिकतर सात्विक मनसम्बन्धी उपनिषद्” ऐसा अर्थ करते हैं। मन को ११ वीं इन्द्रिय मान कर, अश्वसमान इन्द्रियों में उसे भी ‘अश्व’ कहा जा सकता है। गौ=इन्द्रियां (उणादि कोष, २.६७, वैदिक यन्त्रालय अजमेर)। अथवा अश्व और गौ इन प्राकृतिक सम्पत्तियों की मांग मन्त्र में की गई है। मनुस्मृति २.९२ में मन को उभयात्मक इन्द्रिय कहा है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    That same Indra who is blissful, a gracious friend and companion, commands the wealth of cows and horses, nourishment and achievement, knowledge and enlightenment and distils for us power, honour and excellence from nature such as the torrential showers of rain.

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    Translation

    This mighty sun is auspicious for us like friend. It pours upon us the wealth full of horses, cows and barley, like stream.

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    Translation

    This mighty sun is auspicious for us like friend. It pours upon us the wealth full of horses, cows and barley, like stream.

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    Translation

    That very electric power may be our peaceful friend, providing us with the horse-power to drive our machines, light to lighten our houses, and power to produce grains in the fields. Let it bring on prosperity and well-being for us by flowing into numerous currents.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सः) पूर्वोक्तः (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (शिवः) सुखप्रदः (सखा) मित्रभूतः (अश्ववत्) उत्तमाश्वयुक्तम् (गोमत्) उत्तमगोभिरुपेतम् (यवमत्) उत्तमान्नयुक्तं धनम् (उरुधारा) प्रभूतक्षीरधारायुक्ता गाः (इव) यथा (दोहते) लेटि, अडागमः। पूरयेत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সঃ) সেই (শিবঃ) সুখদায়ক (সখা) মিত্র (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরমৈশ্বর্যবান্ সেনাপতি] (উরুধারা ইব) অনেক দুগ্ধযুক্ত [গাভী] এর সমান (নঃ) আমাদের জন্য (অশ্ববৎ) উত্তম ঘোড়াসম্পন্ন, (গোমৎ) উত্তম গাভীসম্পন্ন এবং (যবমৎ) উত্তম অন্নসম্পন্ন [ধন] (দোহতে) দোহন করে [পূর্ণ করে] ॥৩॥

    भावार्थ

    যে বীর সেনাপতি বহু অধর্মী শত্রুদের বিনাশ করে, তিনি জনগণকে ধনী করেন ॥২, ৩॥ মন্ত্র ২ মেলাও -ঋক্০ ১।৮৪।১৩।

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    भाषार्थ

    (সঃ) সেই (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (শিবঃ) কল্যাণকারী তিনি (নঃ) আমাদের (সখা) বাস্তবিক সখা। তিনি আমাদের (অশ্বাবৎ) মানসিক (গোমৎ) এবং ঐন্দ্রিয়িক সম্পত্তির সাথে-সাথে (যবমৎ) যব শস্য রূপে শারীরিক সম্পত্তি (উরুধারা ইব) মহাধারা রূপে (দোহতে) প্রদান করেন।

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