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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - अत्यष्टिः सूक्तम् - सूक्त-७२
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    वि त्वा॑ ततस्रे मिथु॒ना अ॑व॒स्यवो॑ व्र॒जस्य॑ सा॒ता गव्य॑स्य निः॒सृजः॒ सक्ष॑न्त इन्द्र निः॒सृजः॑। यद्ग॒व्यन्ता॒ द्वा जना॒ स्वर्यन्ता॑ स॒मूह॑सि। आ॒विष्करि॑क्र॒द्वृष॑णं सचा॒भुवं॒ वज्र॑मिन्द्र सचा॒भुव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । त्वा॒ । त॒त॒स्रे॒ । मि॒थु॒ना: । अ॒व॒स्यव॑: । व्र॒जस्य॑ । सा॒ता । गव्य॑स्य । नि॒:ऽसृज॑: । सक्ष॑न्त । इ॒न्द्र॒ । नि॒:ऽसृज॑ ॥ यत् । ग॒व्यन्ता॑ । द्वा । जना॑ । स्व॑: । यन्ता॑ । स॒म्ऽऊह॑सि ॥ आ॒वि: । करि॑क्रत् । वृष॑णम् । स॒चा॒ऽभुव॑म् । वज्र॑म् । इ॒न्द्र॒ । स॒चा॒ऽभुव॑म् ॥७२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि त्वा ततस्रे मिथुना अवस्यवो व्रजस्य साता गव्यस्य निःसृजः सक्षन्त इन्द्र निःसृजः। यद्गव्यन्ता द्वा जना स्वर्यन्ता समूहसि। आविष्करिक्रद्वृषणं सचाभुवं वज्रमिन्द्र सचाभुवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । त्वा । ततस्रे । मिथुना: । अवस्यव: । व्रजस्य । साता । गव्यस्य । नि:ऽसृज: । सक्षन्त । इन्द्र । नि:ऽसृज ॥ यत् । गव्यन्ता । द्वा । जना । स्व: । यन्ता । सम्ऽऊहसि ॥ आवि: । करिक्रत् । वृषणम् । सचाऽभुवम् । वज्रम् । इन्द्र । सचाऽभुवम् ॥७२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र !) हे इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (व्रजस्य) मार्ग के (साता) पाने में (अवस्यवः) रक्षा चाहनेवाले (सक्षन्तः) गतिशील, (गव्यस्य) भूमि के लिये हित के (निःसृजः) नित्य उत्पन्न करनेवाले और (निःसृजः) निरन्तर देनेवाले (मिथुनाः) स्त्री-पुरुषों के समूहों ने (त्वा) तुझको [तेरे गुणों को] (वि) विविध प्रकार (ततस्रे) फैलाया है। (यत्) क्योंकि, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परमात्मन्] (वृषणम्) बलवान्, (सचाभुवम्) नित्य मेल से रहनेवाले, (सचाभुवम्) सेचन [वृद्धि] के साथ वर्तमान (वज्रम्) वज्र [दण्डगुण] को (आविः करिक्रत्) प्रकट करता हुआ तू (गव्यन्ता) वाणी [विद्या] को चाहनेवाले, (स्वः) सुख को (यन्ता) प्राप्त होनेवाले (द्वा) दोनों (जना) जनों [स्त्री-पुरुषों] को (समूहसि) यथावत् चेताता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष सबके सुख के लिये राज्य आदि प्राप्त करके शिष्टसुखदायक, दुष्टविनाशक परमात्मा की भक्ति करते हैं, उनको यह जगदीश्वर उन्नति के लिये सदा उत्साह देता है ॥२॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र आगे है-अथ० २०।७।१ ॥ २−(वि) विविधम् (त्वा) त्वाम्। तव गुणम् (ततस्रे) तसु उपक्षये उत्क्षेपे च-लिट्। इरयो रे। पा० ६।४।७६। इति रेभावः। उत्क्षिप्तवन्तः। विस्तारितवन्तः (मिथुनाः) स्त्रीपुरुषसमूहाः (अवस्यवः) अ० २०।१४।१। रक्षाकामाः (व्रजस्य) व्रज गतौ+घञर्थे क। मार्गस्य (साता) विभक्तेर्डा। सातौ। लाभे (गव्यस्य) गवे पृथिव्यै हितस्य (निःसृजः) सृज विसर्गे-क्विप्। नितरां स्रष्टारो निष्पादयितारः (सक्षन्तः) सक्षतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। नैरुक्तो धातुः-शतृ। गच्छन्तः (इन्द्र) परमात्मन् (निःसृजः) निरन्तरदातारः (यत्) यतः (गव्यन्ता) गो-क्यच्, शतृ। गां वाणीं विद्यामिच्छन्तौ (द्वा) द्वौ (जना) जनौ। स्त्रीपुरुषौ (स्वः) मुखम् (यन्ता) यन्तौ। प्राप्नुवन्तौ (समूहसि) ऊह वितर्के”। सम्यक् चेतयसि (आविः) प्राकट्ये (करिक्रत्) करोतेर्यङ्लुकि शतृ। भृशं कुर्वन् (वृषणम्) बलवन्तम् (सचाभुवम्) षच समवाये सेचने च-क्विप्+भू सत्तायाम्-क्विप्। समवायेन वर्तमानम् (वज्रम्) दण्डगुणम् (इन्द्र) परमात्मन् (सचाभुवम्) सेचनेन वर्धनेन सह वर्तमानम् ॥

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    विषय

    क्रियामय जीवन व प्रभु-पूजन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अवस्यवः) = रक्षण की कामनावाले (मिथुना:) = छन्दों के रूप में रहनेवाले पति-पत्नी (त्वा) = आपका लक्ष्य करके (विततस्त्रे) = वासनाओं को विनष्ट करते हैं। [वितस्-to reject]|२. (गव्यस्य खजस्य) = इस इन्द्रियसमूह के (साता) = प्राप्ति के निमित्त (नि:सजाः) = ये निश्चय से त्याग की वृत्तिवाले होते हैं अथवा पापों को अपने से निर्गत करनेवाले होते हैं [पापं निर्गमयन्तः]। हे इन्द्र! (सक्षन्त) = आपका सेवन करते हुए ये (निःसृजः) = पाप को अपने से दूर करते हैं। ३. (यत्) = जब (गव्यन्ता) = वेदवाणी की कामना करते हुए (द्वा जना) = दो लोगों को अर्थात् पति-पत्नी को (स्वर्यन्ता) = स्वर्ग की ओर जाते हुओं को-जो अपने घर को स्वर्ग बना रहे हैं उनको (समूहसि) = आप सम्यक् धारण करते हो तब आप हे इन्द्र-प्रभो। (सचाभुवम्) = सदा साथ रहनेवाले (वृषणम्) = शक्ति देनेवाले अथवा सुखों का वर्षण करनेवाले (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (आविष्करिकत्) = प्रकट करते हुए होते हो। उस क्रियाशीलता को जोकि सदा साथ रहती है [सचाभुवम्] । इस क्रियाशीलता के द्वारा ही हम ज्ञान प्राप्त कर पाते है-अपनी शक्ति का वर्धन करनेवाले होते हैं और इसप्रकार अपने जीवन को स्वर्गापम सुखवाला बनाते हैं।

    भावार्थ

    पति-पत्नी का मूल कर्तव्य प्रभु की उपासना के द्वारा जीवन को पवित्र रखना है। ज्ञान की रुचिवाले बनकर वे अपने घर को स्वर्गापम बनाएँ। उसका जीवन सतत क्रियामय हो।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (अवस्यवः) रक्षा या आप की प्राप्ति चाहनेवाले, तथा (निःसृजः) निसर्गतः अर्थात् स्वभावतः प्राप्त, (निःसृजः) और सब को उत्पत्तिकाल में ही स्वभावः प्राप्त (गव्यस्य) इन्द्रियसम्बन्धी (व्रजस्य) चञ्चलता के (साता=सातौ) विनाश के निमित्त (सक्षन्तः) आप का सेवन तथा आप का सम्बन्ध चाहनेवाले, या आप की ओर प्रगति करनेवाले (मिथुना) गृहस्थजन, (त्वा) आप को (वि ततस्रे) स्तुतियों द्वारा विषेषतया अलंकृत करते हैं। और जब (गव्यन्ता) ऐन्द्रियिक चञ्चलताओं से सम्पन्न (द्वा जना) दोनों पति-पत्नी जन, (स्वः यन्ता) सुख की प्राप्ति चाहते हैं, तब आप उन दोनों का (समूहसि) संहार कर देते हैं। और (इन्द्र) हे परमेश्वर! (वृषणम्) आप के प्रति भक्तिरस की वर्षा करनेवाले, (वज्रम्) वज्ररूप होकर अपने पापों का संहार करनेवाले, तथा (सचाभुवम्) आप के साथ संग करनेवाले, (सचाभुवम्) सदा आप के साथ संग करनेवाले उपासक को, आप (आविष्करिक्रद्) आविष्कृत अर्थात् सुप्रसिद्ध कर देते हैं।

    टिप्पणी

    [अवस्यवः=अव् रक्षणे, प्राप्तौ च। निःसृजः=निः+सृज् (विसर्गे)। गव्यस्य=गौः=इन्द्रियां (उणा০ कोष, २.६७), वैदिक पुस्तकालय, अजमेर। व्रजस्य=व्रज गतौ, चञ्चलता। सक्षन्तः=षच् सेवने; समवाये च; तथा सक्षति गतिकर्मा (निघं০ २.१४)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    Indra, lord of might and prosperity, wedded couples, keen for protection and advancement, united with you and going out in pursuit of their efforts to promote the wealth of cows, development of land and related knowledge, extend your glory and eliminate their want and suffering, since you inspire and exhort both men and women going out and achieving the light and joy of life, when you open out and wield for action the thunderbolt of justice and protection, so generous, promotive and friendly to you and the people.

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    Translation

    O Almighty God the couples of men and women, desirous of your succour, giving gifts daily and producing wealth in all times, in the attainment of the herd and stal of cows spread your praise. O Lord, when you bring two men seeking pleasure and desiring knowledge face to face, you manifest the thunder-bolt which is strong and ever-accomplanying you and connected together with cloud.

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    Translation

    O Almighty God, the couples of men and women, desirous of your succour, giving gifts daily and producing wealth in all times, in the attainment of the herd and stal of cows spread your praise. O Lord, when you bring two men seeking pleasure and desiring knowledge face to face, you manifest the thunder-bolt which is strong and ever-accompanying you and connected together with cloud.

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    Translation

    O Great Lord of Protection and Beneficence, the couples, (i.e., husband and wife; the disciple and the preceptor; the king and the subjects, the mind and the soul, etc.,) desirous of their protection and satisfaction, wholly dash towards Thee and completely entrust themselves to Thee and fully revel in Thee in the very act of acquisition of the Vedic lore or light of knowledge and herds of cows or mastery of sense-organs. When Thou takes under Thy shelter, these, groups of two, achieving perfect happiness and Vedic learning, cows and control of sense Thou revealest Thy Terrible Might of warding off evil and darkness, together with Thy kind nature of showering gifts and blessings, along with inner feeling of bliss and joy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र आगे है-अथ० २०।७।१ ॥ २−(वि) विविधम् (त्वा) त्वाम्। तव गुणम् (ततस्रे) तसु उपक्षये उत्क्षेपे च-लिट्। इरयो रे। पा० ६।४।७६। इति रेभावः। उत्क्षिप्तवन्तः। विस्तारितवन्तः (मिथुनाः) स्त्रीपुरुषसमूहाः (अवस्यवः) अ० २०।१४।१। रक्षाकामाः (व्रजस्य) व्रज गतौ+घञर्थे क। मार्गस्य (साता) विभक्तेर्डा। सातौ। लाभे (गव्यस्य) गवे पृथिव्यै हितस्य (निःसृजः) सृज विसर्गे-क्विप्। नितरां स्रष्टारो निष्पादयितारः (सक्षन्तः) सक्षतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। नैरुक्तो धातुः-शतृ। गच्छन्तः (इन्द्र) परमात्मन् (निःसृजः) निरन्तरदातारः (यत्) यतः (गव्यन्ता) गो-क्यच्, शतृ। गां वाणीं विद्यामिच्छन्तौ (द्वा) द्वौ (जना) जनौ। स्त्रीपुरुषौ (स्वः) मुखम् (यन्ता) यन्तौ। प्राप्नुवन्तौ (समूहसि) ऊह वितर्के”। सम्यक् चेतयसि (आविः) प्राकट्ये (करिक्रत्) करोतेर्यङ्लुकि शतृ। भृशं कुर्वन् (वृषणम्) बलवन्तम् (सचाभुवम्) षच समवाये सेचने च-क्विप्+भू सत्तायाम्-क्विप्। समवायेन वर्तमानम् (वज्रम्) दण्डगुणम् (इन्द्र) परमात्मन् (सचाभुवम्) सेचनेन वर्धनेन सह वर्तमानम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র !) হে ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ জগদীশ্বর] (ব্রজস্য) মার্গের (সাতা) প্রাপ্তিতে (অবস্যবঃ) রক্ষাকামী (সক্ষন্তঃ) গতিশীল, (গব্যস্য) পৃথিবীর জন্য হিত (নিঃসৃজঃ) নিত্য উৎপন্নকারী এবং (নিঃসৃজঃ) নিরন্তর দাতা (মিথুনাঃ) মিথুন/যুগলের সমূহ (ত্বা) আপনাকে [আপনার গুণ সমূহকে] (বি) বিবিধ প্রকারে (ততস্রে) বিস্তারিত করেছে। (যৎ) কারণ, (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরমাত্মন্] (বৃষণম্) বলবান্, (সচাভুবম্) সর্বদা সম্মিলিতভাবে অবস্থানকারী, (সচাভুবম্) সেচনের [বৃদ্ধি] সহিত বর্তমান (বজ্রম্) বজ্রকে [দণ্ডগুণ] (আবিঃ করিক্রৎ) প্রকট পূর্বক/প্রকটকারী আপনি (গব্যন্তা) বাণী [বিদ্যা] অভিলাষী, (স্বঃ) সুখ (যন্তা) প্রাপ্তকারী (দ্বা) উভয় (জনা) জনকে [স্ত্রী-পুরুষ] (সমূহসি) যথাবৎ চেতনা প্রদান করেন॥২॥

    भावार्थ

    যে স্ত্রী-পুরুষ সকলের সুখের জন্য রাজ্য আদি প্রাপ্ত করে শিষ্টসুখদায়ক, দুষ্টবিনাশক পরমাত্মার ভক্তি করে, তাঁদের জগদীশ্বর উন্নতির জন্য সদা উৎসাহ প্রদান করেন ॥২॥ এই মন্ত্র আছে-অথ০ ২০।৭৫।১ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (অবস্যবঃ) রক্ষা বা আপনার প্রাপ্তি কামনাকারী, তথা (নিঃসৃজঃ) নিসর্গতঃ অর্থাৎ স্বভাবতঃ প্রাপ্ত, (নিঃসৃজঃ) এবং সকলকে উৎপত্তিকালেই স্বভাবঃ প্রাপ্ত (গব্যস্য) ইন্দ্রিয়সম্বন্ধী (ব্রজস্য) চঞ্চলতার (সাতা=সাতৌ) বিনাশের নিমিত্ত/জন্য (সক্ষন্তঃ) আপনার সেবন তথা আপনার সঙ্গ কামনাকারী, বা আপনার দিকে প্রগতিশীল (মিথুনা) গৃহস্থজন, (ত্বা) আপনাকে (বি ততস্রে) স্তুতি দ্বারা বিশেষরূপে অলঙ্কৃত করে। এবং যখন (গব্যন্তা) ঐন্দ্রিয়িক চঞ্চলতা সম্পন্ন (দ্বা জনা) দুজন পতি-পত্নী, (স্বঃ যন্তা) সুখ প্রাপ্তি চায়, তখন আপনি তাঁদের (সমূহসি) সংহার করেন। এবং (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (বৃষণম্) আপনার প্রতি ভক্তিরসের বর্ষণকারী, (বজ্রম্) বজ্ররূপ হয়ে নিজের পাপের সংহারক, তথা (সচাভুবম্) আপনার সাথে সঙ্গকারী, (সচাভুবম্) সদা আপনার সাথে সঙ্গী উপাসককে, আপনি (আবিষ্করিক্রদ্) আবিষ্কৃত অর্থাৎ সুপ্রসিদ্ধ করেন।

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