अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒द्रि॒ऽभित् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तऽवा॑ । बृह॒स्पति: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । ह॒विष्मा॑न् ॥ द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा । प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत् । पि॒ता । न॒: । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भ: । रो॒र॒वी॒ति॒ ॥९०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अद्रिभित्प्रथमजा ऋतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान्। द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत्पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अद्रिऽभित् । प्रथमऽजा: । ऋतऽवा । बृहस्पति: । आङ्गिरस: । हविष्मान् ॥ द्विबर्हऽज्मा । प्राघर्मऽसत् । पिता । न: । आ । रोदसी इति । वृषभ: । रोरवीति ॥९०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के लक्षण का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (अद्रिभित्) पहाड़ों को तोड़नेवाला, (प्रथमजाः) मुख्य पद पर प्रकट होनेवाला, (ऋतावा) सत्यवान्, (आङ्गिरसः) विद्वान् पुरुष का पुत्र (हविष्मान्) देने-लेने योग्य पदार्थोंवाला (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक राजा] है, वह (द्विबर्हज्मा) दोनों [विद्या और पुरुषार्थ] से प्रधानता पानेवाला, (प्राघर्मसत्) अच्छे प्रकार सब ओर से प्रताप का सेवन करनेवाला (नः) हमारा (पिता) पालनेवाला है, [जैसे] (वृषभः) जल बरसानेवाला मेघ (रोदसी) आकाश और पृथिवी में (आ) व्यापकर (रोरवीति) बल से गरजता है ॥१॥
भावार्थ
राजा को चाहिये कि पहाड़ आदि कठिन स्थानों में मार्ग करके प्रजा का पालन करे, जैसे मेघ गर्जन के साथ वृष्टि करके संसार का उपकार करता है ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-६।७३।१-३। चौथा पाद आचुका है-अ० १८।३।६ ॥ १−(यः) (अद्रिभित्) शैलानां छेत्ता (प्रथमजाः) मुख्यपदे प्रादुर्भूतः (ऋतावा) ऋत-मत्वर्थे वनिप्। सत्यवान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (आङ्गिरसः) अङ्गिरसो विदुषः पुरुषस्य पुत्रः (हविष्मान्) दातव्यग्राह्यपदार्थयुक्तः (द्विबर्हज्मा) बर्ह प्राधान्ये-घञ्। जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१९। जमु गतौ-कनिन्, अकारलोपः। द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां बर्हं प्राधान्यं जमति प्राप्नोति यः सः (प्राघर्ससत्) प्र+आ+घर्म+षण सम्भक्तौ-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ४।४।४०। अनुनासिकलोपः। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। अ० ६।१।७१। तुगागमः। प्रकर्षेण समन्तात् प्रतापस्य सेवनकर्ता (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (आ) व्याप्य (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षिताऽपाम्-निरु० ४।८। मेघः (रोरवीति) भृशं रौति। अभिगर्जति ॥
विषय
'अद्रिभित्' प्रभु
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (अद्रिभित्) = हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करनेवाले हैं, (प्रथमजा:) = सृष्टि से पूर्व ही विद्यमान हैं, (ऋतावा:) = ऋतवाले हैं-प्रभु के तीन तप से ही तो ऋत की उत्पत्ति होती है 'ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत, (बृहस्पति:) = [ब्रह्मणस्पतिः] वेदज्ञान के रक्षक हैं। (अङ्गिरस:) = उपासकों के अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले हैं, (हविष्मान) = प्रशस्त हविवाले हैं। प्रभु ही सृष्टियज्ञ के महान् होता हैं। २. (द्विबर्हज्मा) = दोनों लोकों में प्रवृद्ध गतिवाले हैं [द्वि-बई-ज्मा]-द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र प्रभु की क्रिया विद्यमान है। (प्राघर्मसत्) = प्रकृष्ट तेज में आसीन होनेवाले हैं-तेज पुञ्ज हैं-तेज-ही-तेज हैं। (नः पिता) = हम सबके पिता है। (वृषभ:) = ये सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु (रोदसी) = इन द्यावापृथिवी में (आरोरवीति) = खूब ही गर्जना करते हैं। इन लोकों में स्थित मनुष्यों के हृदयों में स्थित होकर उन्हें कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश करते हैं। अच्छे कर्मों में उत्साह व बुरे कर्मों में भय प्रभु ही तो प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
ज्ञान के स्वामी प्रभु ही हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करते हैं। हमें तेजस्वी बनाते हैं। हृदयस्थरूपेण कर्तव्य की प्रेरणा देते हैं।
भाषार्थ
(यः) जो (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्डपति, (अद्रिभित्) अविद्या के पर्वत को छिन्न-भिन्न करता, (ऋतावा) सत्य और नियमों का नियन्ता, (आङ्गिरसः) हमारे अङ्ग-अङ्ग तथा समग्र शरीरों का रसरूप, (हविष्मान्) उपासकों की आत्मसमर्पणरूपी हवियों को स्वीकार करता, (द्विबर्हज्मा) सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से पृथिवी को बढ़ाता, (प्राघर्मसत्) और प्रतप्त सूर्यादिलोकों में स्थित है, वह (नः पिता) हमारा पिता, (प्रथमजाः) प्रथम प्रकट होकर, (रोदसी) सिर से लेकर पैरों तक को (आ रोरवीति) अन्तर्नाद द्वारा गुञ्जा देता है, और (वृषभः) आनन्दरस की वर्षा करता है।
टिप्पणी
[रोदसी=आध्यात्मिक दृष्टि में, द्युलोक और भूलोक, सिर और पैर हैं। यथा—“शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत, पद्भ्यां भूमिः” (यजुः০ ३१.१३)। प्राघर्मसत्=प्र+आ+घर्म (धृ दीप्तौ)+सत्। द्विबर्हज्मा=द्वि (दो)+वर्ह (वृद्धौ)+ज्मा (पृथिवी)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Breaking the clouds and shattering mountains, first self-manifested among things born, the very embodiment of universal law and the truth of existence, Brhaspati, lord creator, ruler, protector and promoter of the expansive universe is the very essence of the life and breath of existence who wields and governs all matters and materials of the world. Lord and master of the earth by virtue of knowledge and power of action, illustrious with the light and fire of life, he is our father generator who, like the mighty thunder, proclaims his power and presence across heaven and earth.
Translation
Brihaspatih, the fire of the cloud which is the breaker of clouds, which is the first created object and bearer of water, which is the product of cosmic flames and possessor of libations in Yajna, which moves in two ways. (shining and thundering) which possesses enormous heat and is our protector and which is pourer of rain and which roars loudly in heaven and earth.
Translation
Brihaspatih, the fire of the cloud which is the breaker of cluds, which is the first created object and bearer of water, which is the product of cosmic flames and possessor of libations in Yajna, which moves in two ways (shining and thundering) which possesses enormous heat and is our protector and which is pourer of rain and which roars loudly in heaven and earth.
Translation
The Mighty Lord of Protection, king or the learned person, Who creates a place of honor and glory for the coming generation, in the acts of sacrifice and worship, smashing the forces of ignorance and evil, completely tears off the bonds of bodies of the souls or the forts of the enemy, conquering the inimical forces of evil or the foe, subdues the various other unfriendly elements in wars of spiritual supremacy or earthly dominance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह सूक्त ऋग्वेद में है-६।७३।१-३। चौथा पाद आचुका है-अ० १८।३।६ ॥ १−(यः) (अद्रिभित्) शैलानां छेत्ता (प्रथमजाः) मुख्यपदे प्रादुर्भूतः (ऋतावा) ऋत-मत्वर्थे वनिप्। सत्यवान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (आङ्गिरसः) अङ्गिरसो विदुषः पुरुषस्य पुत्रः (हविष्मान्) दातव्यग्राह्यपदार्थयुक्तः (द्विबर्हज्मा) बर्ह प्राधान्ये-घञ्। जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्०। उ० १।१९। जमु गतौ-कनिन्, अकारलोपः। द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां बर्हं प्राधान्यं जमति प्राप्नोति यः सः (प्राघर्ससत्) प्र+आ+घर्म+षण सम्भक्तौ-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ४।४।४०। अनुनासिकलोपः। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। अ० ६।१।७१। तुगागमः। प्रकर्षेण समन्तात् प्रतापस्य सेवनकर्ता (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (आ) व्याप्य (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षिताऽपाम्-निरु० ४।८। मेघः (रोरवीति) भृशं रौति। अभिगर्जति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে (অদ্রিভিৎ) পর্বতশ্রেণী ছেদনকারী, (প্রথমজাঃ) মুখ্য পদে প্রাদুর্ভূত, (ঋতাবা) সত্যবান্, (আঙ্গিরসঃ) বিদ্বান্ পুরুষের পুত্র (হবিষ্মান্) দাতব্য-গ্রাহ্য পদার্থযুক্ত (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বিদ্যার রক্ষক রাজা], সে (দ্বিবর্হজ্মা) দুইয়ের [বিদ্যা ও পুরুষার্থ] দ্বারা প্রাধান্য প্রাপ্তকারী, (প্রাঘর্মসৎ) উৎকৃষ্ট প্রকারে সর্বতোভাবে প্রতাপ সেবনকর্তা (নঃ) আমাদের (পিতা) পালনকর্তা , [যেমন] (বৃষভঃ) জল বর্ষণকারী মেঘ (রোদসী) আকাশ ও পৃথিবীতে (আ) ব্যাপ্ত হয়ে (রোরবীতি) বলের সহিত গর্জন করে ॥১॥
भावार्थ
রাজার উচিত, পর্বত আদি কঠিন স্থানে মার্গ প্রস্তুত করে প্রজার উপকার করা, যেভাবে মেঘ গর্জনের সহিত বর্ষণ করে সংসারের উপকার করে ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে -৬।৭৩।১-৩। চতুর্থ পাদ এসেছে -অ০ ১৮।৩।৬৫ ॥
भाषार्थ
(যঃ) যে (বৃহস্পতিঃ) মহাব্রহ্মাণ্ডপতি, (অদ্রিভিৎ) অবিদ্যার পর্বত ছিন্ন-ভিন্ন করেন, (ঋতাবা) সত্য এবং নিয়মের নিয়ন্তা, (আঙ্গিরসঃ) আমাদের অঙ্গ-অঙ্গ তথা সমগ্র শরীরের রসরূপ, (হবিষ্মান্) উপাসকদের আত্মসমর্পণরূপী হবি-সমূহ স্বীকার করেন, (দ্বিবর্হজ্মা) সাংসারিক এবং আধ্যাত্মিক উভয় দৃষ্টিতে পৃথিবীকে বর্ধিত করেন, (প্রাঘর্মসৎ) এবং প্রতপ্ত সূর্যাদিলোকে স্থিত, তিনি (নঃ পিতা) আমাদের পিতা, (প্রথমজাঃ) প্রথম প্রকট হয়ে, (রোদসী) মস্তক থেকে পা পর্যন্ত (আ রোরবীতি) অন্তর্নাদ দ্বারা গুঞ্জরিত করেন, এবং (বৃষভঃ) আনন্দরসের বর্ষণ করেন।
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