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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९०
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    बृह॒स्पतिः॒ सम॑जय॒द्वसू॑नि म॒हो व्र॒जान्गोम॑तो दे॒व ए॒षः। अ॒पः सिषा॑स॒न्त्स्वरप्र॑तीतो॒ बृह॒स्पति॒र्हन्त्य॒मित्र॑म॒र्कैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑: । सम् । अ॒ज॒य॒त् । वसू॑नि । म॒ह: । व्र॒जान् । गोऽम॑त: । दे॒व: । ए॒ष: ॥ अ॒प: । सिसा॑सन् । स्व॑: । अप्र॑तिऽइत: । बृह॒स्पति॑: । हन्ति॑ । अ॒मित्र॑म् । अ॒र्कै: ॥९०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिः समजयद्वसूनि महो व्रजान्गोमतो देव एषः। अपः सिषासन्त्स्वरप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति: । सम् । अजयत् । वसूनि । मह: । व्रजान् । गोऽमत: । देव: । एष: ॥ अप: । सिसासन् । स्व: । अप्रतिऽइत: । बृहस्पति: । हन्ति । अमित्रम् । अर्कै: ॥९०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवः) विजय चाहनेवाले (एषः) इस (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (वसूनि) धनों को और (महः) बड़े, (गोमतः) विद्याओं से युक्त (वज्रान्) मार्गों को (सम् अजयत्) जीत लिया है, (अपः) कर्म और (स्वः) सुख को, (सिषासन्) पूरे करने की इच्छा करता हुआ, (अप्रतीतः) बे-रोक (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक राजा] (अर्कैः) वज्रों [शस्त्रों] से (अमित्रम्) सतानेवाले को (हन्ति) नाश करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो विजय चाहनेवाला पुरुष धन और विद्याओं को बढ़ा लेता है, वह अपने सुकर्म से दुष्टों को हराकर आनन्द पाता है ॥३॥

    टिप्पणी

    इति सप्तमोऽनुवाकः ॥ ३−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (सम्) सम्यक् (अजयत्) जयेन प्राप्तवान् (वसूनि) धनानि (महः) महतः। विशालान् (व्रजान्) मार्गान् (गोमतः) विद्यायुक्तान् (देवः) विजिगीषुः (एषः) (अयं) कर्म (सिषासन्) षो अन्तकर्मणि-सन्, शतृ। समाप्तिं कर्तुमिच्छन् (स्वः) सुखम् (अप्रतीतः) अप्रतिगतः (बृहस्पतिः) (हन्ति) नाशयति (अमित्रम्) पीडकं पुरुषम् (अर्कैः) अर्को वज्रनाम-निघ० २।२०। वज्रैः। शस्त्रैः ॥

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    विषय

    अर्कों द्वारा अमित्र-हनन

    पदार्थ

    १. (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (वसूनि) = निवास के लिए आवश्यक सब धनों को हमारे लिए (समजयत्) = जीतते हैं। (एषः देव:) = ये हमारे लिए शत्रुओं को पराजित करने की कामनावाले प्रभु [दिव विजिगीषायाम्] (महः) = महत्त्वपूर्ण (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (व्रजान्) = बाड़ों को [cow shed] हमारे लिए जीतते हैं, अर्थात् प्रभु सब वसुओं को प्राप्त कराते हैं और हमें प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाते हैं। २. (अप्रतीत:) = ये किसी से भी प्रतिगत न होनेवाले-न रोके जानेवाले प्रभु अप: रेत:कणरूप जलों को तथा (स्व:) = प्रकाश को (सिषासन) = हमारे साथ संभक्त करने की कामनावाले हैं। (बृहस्पति:) = ये ज्ञान के स्वामी प्रभु (अर्कैः) = अर्चना के साधकभूत मन्त्रों के द्वारा (अमित्रम्) = हमारा विनाश करनेवाली द्वेष आदि की भावनाओं को हन्ति नष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    ज्ञान के स्वामी प्रभु हमें वसुओं को प्राप्त कराते हैं, प्रशस्त इन्द्रियों देते हैं। रेतःकणों को व प्रकाश को प्रास कराते हुए ये ज्ञान के स्वामी प्रभु मन्त्रों द्वारा द्वेष आदि अमित्रभूत भावनाओं को विनष्ट करते हैं। वसुओं, प्रशस्त इन्द्रियों तथा रेत:कणों व प्रकाश को प्राप्त करता हुआ यह उपासक अयास्य' बनता है-यह शत्रुओं से खिन्न नहीं किया जाता। यह शत्रुओं से अजष्य [invincible] होता है। अयास्य ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह अयास्य प्रार्थना करता है कि -

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    भाषार्थ

    (एषः) यह (बृहस्पतिः देवः) ब्रह्माण्डपति-देव (वसूनि) ८ वसुओं पर (समजयत्) सम्यक् विजय पाए हुए हैं, और (गोमतः) इन्द्रियोंवाले (महः व्रजान्) महा प्राणिवर्गों पर भी (समजयत्) सम्यक् विजय पाए हुए हैं। (अप्रतीतः) प्रतीत न होता हुआ भी (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्डपति, (अपः) प्राणों तथा (स्वः) सुखों का (सिषासन्) महादान करता हुआ, (अर्कैः) निज तेजों द्वारा (अमित्रम्) शत्रुरूप कामादि का (हन्ति) हनन करता है।

    टिप्पणी

    [वसूनि=अग्नि पृथिवी; वायु अन्तरिक्ष; चन्द्र सूर्य; नक्षत्र तारागण। गोः=इन्द्रियां (उणा০ कोष २.६७), वैदिक यन्त्रालय, अजमेर। (महः व्रजान्=कीट, पतङ्ग, पशु, पक्षी, मनुष्य—ये महा प्राणिवर्ग। अपः=प्राणान्, यथा “सप्तापः स्वपतो लोकमीयुः”, षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी (निरु০ १२.४.३७)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    This divine and illustrious lord of the universe, Brhaspati, overcomes the enemies, wins wealth and happiness, and reveals mighty treasures of lands and light of knowledge. Ruling over the dynamics of waters, energies and the karmic flow of nature’s law and light of heaven and bliss of life, himself unseen and undefeated, Brhaspati destroys all unfriendly forces confronting humanity by the strikes of his thunderbolt of justice and punishment by law.

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    Translation

    This wonderous fire conquer wealth and great stalls of cattles (causing rains) and it unchecked pouring pleasant rainy waters dispels by its thunder-bold the cloud which is unfavourable to people.

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    Translation

    This wondrous fire conquer wealth and great stalls of cattle’s (causing rains) and it unchecked pouring pleasant rainy waters dispels by its thunder-bold the cloud which is unfavorable to people.

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    Translation

    The chief, Tranquil and Untiring Protector and Nourisher invests us with this great, Severn headed, truth-generating intelligence and energy of actions, generates the fourth stage of salvation, beneficial to all and instructs the soul with Vedic teachings.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इति सप्तमोऽनुवाकः ॥ ३−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षको राजा (सम्) सम्यक् (अजयत्) जयेन प्राप्तवान् (वसूनि) धनानि (महः) महतः। विशालान् (व्रजान्) मार्गान् (गोमतः) विद्यायुक्तान् (देवः) विजिगीषुः (एषः) (अयं) कर्म (सिषासन्) षो अन्तकर्मणि-सन्, शतृ। समाप्तिं कर्तुमिच्छन् (स्वः) सुखम् (अप्रतीतः) अप्रतिगतः (बृहस्पतिः) (हन्ति) नाशयति (अमित्रम्) पीडकं पुरुषम् (अर्कैः) अर्को वज्रनाम-निघ० २।२०। वज्रैः। शस्त्रैः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দেবঃ) বিজয় অভিলাষী (এষঃ) এই (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [উৎকৃষ্ট বিদ্যার রক্ষক পুরুষ] (বসূনি) ধন ও (মহঃ) বৃহৎ (গোমতঃ) বিদ্যা যুক্ত (বজ্রান্) মার্গকে (সম্ অজয়ৎ) জয় করেছে, (অপঃ) কর্ম ও (স্বঃ) সুখ (সিষাসন্) পূরণের অভিলাষী, (অপ্রতীতঃ) অপ্রতিরোধ্য (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বিদ্যার রক্ষক রাজা] (অর্কৈঃ) বজ্র [শস্ত্র] দ্বারা (অমিত্রম্) উৎপীড়ককে (হন্তি) বিনাশ করে ॥৩॥

    भावार्थ

    যে বিজয় অভিলাষী পুরুষ ধন ও বিদ্যার উত্তরোত্তর বৃদ্ধি করে, সে নিজ সুকর্ম দ্বারা দুষ্টদের বিনাশ করে আনন্দ প্রাপ্ত হয় ॥৩॥ ইতি সপ্তমোঽনুবাকঃ ॥

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    भाषार्थ

    (এষঃ) এই (বৃহস্পতিঃ দেবঃ) ব্রহ্মাণ্ডপতি-দেব (বসূনি) ৮ বসুর ওপর (সমজয়ৎ) সম্যক্ বিজয় প্রাপ্ত এবং (গোমতঃ) ইন্দ্রিয়যুক্ত (মহঃ ব্রজান্) মহা প্রাণিবর্গের ওপর (সমজয়ৎ) সম্যক্ বিজয় প্রাপ্ত। (অপ্রতীতঃ) অপ্রতীত হয়েও (বৃহস্পতিঃ) ব্রহ্মাণ্ডপতি, (অপঃ) প্রাণ তথা (স্বঃ) সুখের (সিষাসন্) মহাদান করে, (অর্কৈঃ) নিজ তেজ দ্বারা (অমিত্রম্) শত্রুরূপ কামাদির (হন্তি) হনন করে।

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