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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी सूक्तम् - सूक्त-९५
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    त्वं सिन्धूँ॒रवा॑सृजोऽध॒राचो॒ अह॒न्नहि॑म्। अ॑श॒त्रुरि॑न्द्र जज्ञिषे॒ विश्वं॑ पुष्यसि॒ वार्यं॒ तं त्वा॒ परि॑ ष्वजामहे॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । सिन्धू॑न् । अव॑ । अ॒सृ॒ज॒: । अ॒ध॒राच॑: । अह॑न् । अहि॑म् ॥ अ॒श॒त्रु: । इ॒न्द्र॒ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒सि॒ । वार्य॑म् । तम् । त्वा॒ । परि॑ । स्व॒जा॒म॒हे॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम्। अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि वार्यं तं त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । सिन्धून् । अव । असृज: । अधराच: । अहन् । अहिम् ॥ अशत्रु: । इन्द्र । जज्ञिषे । विश्वम् । पुष्यसि । वार्यम् । तम् । त्वा । परि । स्वजामहे । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वम्) तूने (अधराचः) नीचे को बहनेवाले (सिन्धून्) नदी-नालों को (अ असृजः) छोड़ दिया है, (अहिम्) पारनेवाले विघ्न को (अहन्) तूने मारा है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] तू (अशत्रुः) निर्वैरी (जज्ञिषे) हो गया है, (विश्वम्) सब (वार्यम्) जल में होनेवाले [अन्न आदि] को (पुष्यसि) तू पुष्ट करता है, (तम्) उस (त्वाम्) तुझसे (परि ष्वजामहे) हम मिलते हैं। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की [मन्त्र २] ॥३॥

    भावार्थ

    राजा पहाड़ आदि जल स्थानों से नदी-नाले निकालकर खेती आदि उद्यम को बढ़ावें, जिससे प्रजागण उससे प्रीति करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(त्वम्) (सिन्धून्) स्यन्दनशीलान् जलपूरान्। नदीः कुल्याः (अव असृजः) अवसृष्टवान् निर्गमितवानसि (अधराचः) अधोमुखमञ्चतो गन्तॄन् (अहन्) हतवानसि (अहिम्) आहन्तारं विघ्नम् (अशत्रुः) शत्रुरहितः (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (जज्ञिषे) जनेर्लिट्। प्रादुर्बभूविथ (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यसि) वर्धयसि (वार्यम्) वार्-यत्। वारि जले भवमुत्पन्नमन्नादिकम् (तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (परि) परितः (स्वजामहे) ष्वञ्ज आलिङ्गने। आलिङ्गामः। संगच्छामहे। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    राष्ट्र रक्षा के लिए रक्तधाराओं का बहाना

    पदार्थ

    १. (अहिम्) = [आहन्ति] चारों ओर मारकाट करनेवाले शत्रु को (त्वम्) = तू (अहन्) = नष्ट करता है और (अथराच:) = नीचे की ओर बहनेवाली (सिन्धूम्) = रक्तनदियों को तू (अवासृज:) = उत्पन्न कर देता है। इसप्रकार शत्रुओं को समाप्त करके हे (इन्द्र) = सेनापते ! तू (अशत्रु: जज्ञिषे) = शत्रुरहित हो जाता है, तेरी शक्ति के कारण कोई भी तेरा विरोधी नहीं रहता। २. इसप्रकार शाओं से राष्ट्र की रक्षा करके तू (विश्वं वार्यम्) = सब वरणीय वस्तुओं का (पुष्यसि) = पोषण करता है। (तं त्वा) = उस तुझको हम (परिष्वजामहे) = आलिंगित करते हैं, अर्थात् तेरा उचित अभिनन्दन करते है। तेरे बल के सामने (अन्यकेषाम्) = कुत्सित वृत्तिवाले इन शत्रुओं की (ज्याका:) = डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    घात-पात करनेवाले शत्रुओं को मारकर सेनापति रक्तधाराएँ बहा दे। राष्ट्रोत्थान का यही तो मार्ग है-बाहा शत्रुओं का भय न होना तथा वरणीय तत्त्वों का वर्धन।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (त्वम्) आपने (अहिम्) अन्तरिक्षवर्ती मेघ का (अहन्) हनन किया, और (सिन्धून्) स्यन्दनशील मेघीय जल-धाराओं का (अवासृजः) नीचे की ओर सर्जन किया है, और उन्हें (अधराचः) नीचे पृथिवी पर बहाया है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (अशत्रुः) किसी के भी शत्रु नहीं हैं, (जज्ञिषे) यह गुण आपका स्वाभाविक है। आप (विश्वम्) सब (वार्यम्) वरण करने योग्य सद्गुणों का (परि पुष्यसि) परिपोषण करते रहते हैं। इसलिए (तं त्वा) उस आपका (परिष्वजामहे) हम परिष्वङ्ग करते हैं, आलिङ्गन करते हैं। (नभन्ताम्.....) शेष पूर्ववत् (मन्त्र २ के सदृश)

    टिप्पणी

    [उपासक समाधि में, शरीर की सुधबुध से रहित होकर जब निज आत्मरूप से परमेश्वर में लीन हो जाता है, तब यह लीन होना ही आलिङ्गन है। यह आत्मिक-आलिङ्गन है। यथा—“उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश” (यजुः০ ३२.११), अर्थात् सत्य के प्रथम-जनयिता का उपस्थान करके, उपासक आत्मस्वरूप से परमात्मा में प्रवेश पा जाता है, यही परिष्वङ्ग अर्थात् आलिङ्गन है। वार्यम्=अथवा वारि अर्थात् जल द्वारा पोषणयोग्य सभी प्रकार के पदार्थों का, ओषधि आदि का परिपोषण परमेश्वर करता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Indra, you release the floods of rivers to flow down on the earth. You destroy the demon of darkness, evil, want and ignorance. You are born without an equal, adversary and enemy, and you promote the choicest wealth and excellence of the world. Such as you are we love and embrace you as our closest loving friend and companion. Let the alien strings of the enemy bows snap upon their bows.

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    Translation

    O mighty ruler, you have made the stream flow down, you lhave destroyed the mortifying trouble, you have become foeless, you preserve the grain produced in water and we embrace that of you. Let the weak bow strings of wicked break upon bow.

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    Translation

    O mighty ruler, you have made the stream flow down, you have destroyed the mortifying trouble, you have become foeless, you preserve the grain produced in water and we embrace that of you. Let the weak bow strings of wicked break upon bow.

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    Translation

    Let all the fighting foes be thoroughly destroyed, and our prayers be with you. O Lord of destruction, thou throwest murderous missile on him, who wants to kill us. Whatever thy bounty, it gives us wealth and fortune. Let the bow-strings, break down.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(त्वम्) (सिन्धून्) स्यन्दनशीलान् जलपूरान्। नदीः कुल्याः (अव असृजः) अवसृष्टवान् निर्गमितवानसि (अधराचः) अधोमुखमञ्चतो गन्तॄन् (अहन्) हतवानसि (अहिम्) आहन्तारं विघ्नम् (अशत्रुः) शत्रुरहितः (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (जज्ञिषे) जनेर्लिट्। प्रादुर्बभूविथ (विश्वम्) सर्वम् (पुष्यसि) वर्धयसि (वार्यम्) वार्-यत्। वारि जले भवमुत्पन्नमन्नादिकम् (तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (परि) परितः (स्वजामहे) ष्वञ्ज आलिङ्गने। आलिङ्गामः। संगच्छामहे। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ত্বম্) তুমি (অধরাচঃ) অধোমুখে প্রবহমান (সিন্ধূন্) নদী-নালা (অ অসৃজঃ) উন্মুক্ত করেছো, (অহিম্) বাধা প্রদানকারী বিঘ্ন/শত্রুকে (অহন্) তুমি দূর/বিনাশ করেছো। (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [মহাপ্রতাপী রাজন্] তুমি (অশত্রুঃ) অশত্রু (জজ্ঞিষে) হয়েছো, (বিশ্বম্) বিশ্বে (বার্যম্) জলের সংযোগে উৎপন্ন হওয়া [অন্নাদি] (পুষ্যসি) তুমি পুষ্ট করো, (তম্) সেই (ত্বাম্) তোমার সঙ্গে (পরি ষ্বজামহে) আমরা মিলিত হই। (অন্যকেষাম্) অন্য কুৎসিত শত্রুর [মন্ত্র ২] ॥৩॥

    भावार्थ

    রাজা পর্বত আদি জলযুক্ত স্থান থেকে নদী-নালা নির্গত/প্রস্তুত করে চাষাবাদ আদি উদ্যম বৃদ্ধি করে, যাতে প্রজাগণ তাঁর প্রতি অত্যন্ত প্রীত-সন্তুষ্ট হয় ॥৩॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি (অহিম্) অন্তরিক্ষবর্তী মেঘের (অহন্) হনন করেছেন, এবং (সিন্ধূন্) স্যন্দনশীল/প্রবাহমান মেঘীয় জল-ধারাকে (অবাসৃজঃ) নীচের দিকে সৃষ্টি করেছেন, এবং উহাকে (অধরাচঃ) নীচে পৃথিবীতে প্রবাহিত করেছেন। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (অশত্রুঃ) কারোরই শত্রু নয়, (জজ্ঞিষে) এই গুণ আপনার স্বাভাবিক। আপনি (বিশ্বম্) সকল (বার্যম্) বরণ যোগ্য সদ্গুণের (পরি পুষ্যসি) পরিপোষণ করতে থাকেন। এইজন্য (তং ত্বা) সেই আপনার (পরিষ্বজামহে) আমরা পরিষ্বঙ্গ করি, আলিঙ্গন করি। (নভন্তাম্.....) শেষ পূর্ববৎ (মন্ত্র ২ এর সদৃশ)

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