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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी सूक्तम् - सूक्त-९५
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    वि षु विश्वा॒ अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त नो॒ धियः॑। अस्ता॑सि॒ शत्र॑वे व॒धं यो न॑ इन्द्र॒ जिघां॑सति॒ या ते॑ रा॒तिर्द॒दिर्वसु॑। नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वा॑: । अरा॑तय: । अ॒र्य: । न॒श॒न्त॒ । न॒: । धिय॑: ॥ अस्ता॑ । अ॒सि॒ । शत्र॑वे । व॒धम् । य: । न॒: । इ॒न्द्र॒ । जिघां॑सति । या । ते॒ । रा॒ति: । द॒दि: । वसु॑ । नम॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि षु विश्वा अरातयोऽर्यो नशन्त नो धियः। अस्तासि शत्रवे वधं यो न इन्द्र जिघांसति या ते रातिर्ददिर्वसु। नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वा: । अरातय: । अर्य: । नशन्त । न: । धिय: ॥ अस्ता । असि । शत्रवे । वधम् । य: । न: । इन्द्र । जिघांसति । या । ते । राति: । ददि: । वसु । नमन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारे (अर्यः) शत्रु की (विश्वाः) सब (अरातयः) कंजूस प्रजाएँ और (धियः) बुद्धियाँ (सु) सर्वथा (वि नशन्त) नष्ट हो जावें। (इन्द्रः) हे इन्द्र [महाप्रतापी राजन्] तू (शत्रवे) उस वैरी पर (वधम्) शस्त्र (अस्ता) चलानेवाला (असि) है, (यः) जो (नः) हमें (जिघांसति) मारना चाहता है, (या) जो (ते) तेरी (रातिः) दान शक्ति है, [वह] (वसु) धन को (ददिः) देनेवाली है। (अन्यकेषाम्) दूसरे खोटे लोगों की (ज्याकाः) निर्बल डोरियाँ (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ी हुई (नभन्ताम्) टूट जावें ॥४॥

    भावार्थ

    राजा ऐसा प्रबन्ध करे कि दुष्ट लोग उपद्रव न मचावें और सदाचारी राजभक्त सन्तुष्ट होकर सुखी रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(वि) विविधम् (सु) सर्वथा (विश्वाः) सर्वाः (अरातयः) अदात्र्यः प्रजाः (अर्यः) अरेः। शत्रोः (नशन्त) नश्यन्तु (नः) अस्माकम् (धियः) बुद्धयः (अस्ता) क्षेप्ता (असि) (शत्रवे) (वधम्) आयुधम् (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (इन्द्रः) महाप्रतापिन् राजन् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (या) (ते) तव (रातिः) दानशक्तिः (ददिः) ददातेः-किप्रत्ययः। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।२।६९। इति वसुशब्दात् षष्ठ्यभावः। दात्री (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत्-म० २ ॥

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    विषय

    वज्र व धन की चोट से

    पदार्थ

    १.(विश्वा:) = सब (अरातयः) = न देने की वृत्तिवाले-कृपण (अर्य:) = शत्रु (सु) = अच्छी प्रकार (विनशन्त) = विनष्ट हो जाएँ। (नः) = हमें (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्म (नशन्त) = प्राप्त हों। शत्रुभय के न होने पर हम सब कार्यों को स्वस्थ मस्कि से करनेवाले हों। २. हे (इन्द्र) = सेनापते! (यः) = जो (न:) = हमें (जिघांसति) = मारना चाहता है, उस (शत्रवे) = शत्रु के लिए तू (वधम्) = वन को (अस्तासि) = फेंकनेवाला है और समय-समय पर (या) = जो (ते) = तेरी (राति:) = दानशीलता है, उसे भी तू शत्रु के लिए फेंकनेवाला होता है, अर्थात् धन देकर भी तु शत्रुओं पर विजय पाने का प्रयत्न करता है। कई बार जो कार्य तोपों के गोलों की मार से नहीं होता, वह सोने के एक भार से हो जाता है, इसलिए आवश्यकता होने पर तु (वसददि:) = धन देनेवाला होता है। इसप्रकार (अन्यकेषां ज्याका:) = शत्रुओं के धनुषर्षों की डोरियों (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    शत्र भय के अभावों में हमारे सब कार्य बुद्धिपूर्वक हों। सेनापति शस्त्रों से व धनों से शत्रुविजय के लिए यत्नशील हो। शत्रभयरहित राष्ट्र के शान्त वातावरण में बुद्धिपूर्वक कार्यों को करता हुआ यह व्यक्ति अपनी न्यूनताओं को दूर करता है और अपना पुरण करता है, अत: 'पूरणः' नामवाला हो जाता है। यही अगले सूक्त के प्रथम पाँच मन्त्रों का ऋषि है। 'पूरण' का साधन सोम-रक्षण ही है -

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (विश्वा अरातयः) सब प्रकार की अदान-भावनाएँ (अर्यः) अरिरूप हैं, शत्रुरूप हैं, आपकी कृपा से ये (सु) सम्यक् प्रकार से (वि नशन्त) हम से विगत हो जाएँ, दूर हट जाएँ, और (नः) हमारी (धियः) बुद्धियाँ, कर्म तथा ध्यानवृत्तियाँ (वि) विशेषरूप में (नशन्त) आपको व्याप्त कर लें। हे परमेश्वर! (यः) जो अदान आदि भाव (नः) हमारी (जिघांसति) हिंसा करने में उन्मुख होता है, उस (शत्रवे) हमारे शत्रु के प्रति आप (वधम्) अपना वज्र (अस्ता असि) प्रहार करते हैं। हे परमेश्वर! (ते) आपका (या) जो (रातिः) दान है, वह (वसु) श्रेष्ठ दान (ददिः) सबके प्रति दान के योग्य है। (नभन्ताम्...) शेष पूर्ववत् (मन्त्र २ के सदृश)

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Indra, may the facts and forces of enmity, adversity and ungenerosity be eliminated from life and the world. May all our thoughts and actions be inspired by love and generosity. You strike the thunderbolt of justice and punishment upon the enemy who wants to destroy us or frustrate our love and generosity. May your grace and generosity bring us wealth, honour and excellence of life. Let the strings of enemy bows snap by the tension of their own negativities.

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    Translation

    Let all our miseries and bad designs be destroyed, you, O mighty ruler, chast bolt upon that foe who desires;to kill us and your generous bounty gives us wealth. Let the weak bow-strings of wicked break upon bow.

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    Translation

    Let all our miseries and bad designs be destroyed, you, O mighty ruler, chast bolt upon that foe who desires to kill us and your generous bounty gives us wealth. Let the weak bow-strings of wicked break upon bow.

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    Translation

    O king or soul, destroyer of evil foes or forces, drink deep this bliss, strong and fully equipped with fruition of noble acts, and let loose the horsesin the form of Prana and Apana, reveling in various bodies, Let not the other objects of senses leading thee on the wrong path, entangle thee into evil. Here are these internal sources of bliss created for thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(वि) विविधम् (सु) सर्वथा (विश्वाः) सर्वाः (अरातयः) अदात्र्यः प्रजाः (अर्यः) अरेः। शत्रोः (नशन्त) नश्यन्तु (नः) अस्माकम् (धियः) बुद्धयः (अस्ता) क्षेप्ता (असि) (शत्रवे) (वधम्) आयुधम् (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (इन्द्रः) महाप्रतापिन् राजन् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (या) (ते) तव (रातिः) दानशक्तिः (ददिः) ददातेः-किप्रत्ययः। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।२।६९। इति वसुशब्दात् षष्ठ्यभावः। दात्री (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत्-म० २ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের (অর্যঃ) শত্রুর (বিশ্বাঃ) সকল (অরাতয়ঃ) কৃপণ প্রজা এবং (ধিয়ঃ) বুদ্ধি (সু) সর্বদা (বি নশন্ত) নষ্ট/ব্যর্থ হোক। (ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী রাজন্] তুমি (শত্রবে) সেই শত্রুর বিরুদ্ধে (বধম্) শস্ত্র (অস্তা) নিক্ষেপকারী (অসি) হও, (যঃ) যারা (নঃ) আমাদের (জিঘাংসতি) হত্যা/বিনাশ করতে চায়, (যা) যা (তে) তোমার (রাতিঃ) দান শক্তি, [তা] (বসু) ধন (দদিঃ) দাতা। (অন্যকেষাম্) অন্য কুৎসিত শত্রুর (জ্যাকাঃ) নির্বল জ্যা (ধন্বসু অধি) ধনুষে গুণ সংযোগের পূর্বেই (নভন্তাম্) বিছিন্ন হোক ॥৪॥

    भावार्थ

    রাজা এমন ব্যবস্থা করবে যেন দুষ্ট লোক উপদ্রব করতে না পারে এবং সদাচারী রাজভক্ত সন্তুষ্ট হয়ে সুখী থাকে ॥৪॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (বিশ্বা অরাতয়ঃ) সকল প্রকারের অদান-ভাবনা (অর্যঃ) অরিরূপ, শত্রুরূপ, আপনার কৃপায় এগুলো (সু) সম্যক্ প্রকারে (বি নশন্ত) আমাদের থেকে বিগত হোক, দূর হোক, এবং (নঃ) আমাদের (ধিয়ঃ) বুদ্ধি, কর্ম তথা ধ্যানবৃত্তি (বি) বিশেষরূপে (নশন্ত) আপনাকে ব্যাপ্ত করুক। হে পরমেশ্বর! (যঃ) যে অদান আদি ভাব (নঃ) আমাদের (জিঘাংসতি) হিংসা/নাশ করার ক্ষেত্রে উন্মুখ হয়, সেই (শত্রবে) আমাদের শত্রুর প্রতি আপনি (বধম্) নিজ বজ্র (অস্তা অসি) প্রহার করেন। হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার (যা) যে (রাতিঃ) দান আছে, তা (বসু) শ্রেষ্ঠ দান (দদিঃ) সকলের প্রতি দানের যোগ্য। (নভন্তাম্...) শেষ পূর্ববৎ (মন্ত্র ২ এর সদৃশ)

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