अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
कदू॒ न्वस्याकृ॑त॒मिन्द्र॑स्यास्ति॒ पौंस्य॑म्। केनो॒ नु कं॒ श्रोम॑तेन॒ न शु॑श्रुवे ज॒नुषः॒ परि॑ वृत्र॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊं॒ इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । अकृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । अ॒स्ति॒ । पौंस्य॑म् ॥ केनो॒ इति॑ । नु । क॒म् । श्रोम॑तेन । न । शु॒श्रु॒वे॒ । ज॒नुष॑: । परि॑ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥९७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कदू न्वस्याकृतमिन्द्रस्यास्ति पौंस्यम्। केनो नु कं श्रोमतेन न शुश्रुवे जनुषः परि वृत्रहा ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । ऊं इति । नु । अस्य । अकृतम् । इन्द्रस्य । अस्ति । पौंस्यम् ॥ केनो इति । नु । कम् । श्रोमतेन । न । शुश्रुवे । जनुष: । परि । वृत्रऽहा ॥९७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
वीर के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले वीर] का (नु) अब (कत् उ) कौन सा (पौंस्यम्) पौरुष (अकृतम्) बिना किया हुआ (अस्ति) है ? (केनो) किस (श्रोमतेन) श्रुति [वेद] माननेवाले करके (नु) अब (जनुषः परि) जन्म से लेकर (वृत्रहा) शत्रुनाशक [वीर पुरुष] (कम्) सुख से (न) नहीं (शुश्रुवे) सुना गया है ॥३॥
भावार्थ
जब मनुष्य विश्वकर्मा होकर अपना सब धार्मिक कर्तव्य कर लेता है, तब वह वीर समस्त संसार से बड़ाई पाता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(कत्) किम् (उ) एव (नु) इदानीम् (अस्य) (अकृतम्) अनाचारितम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो वीरस्य (अस्ति) (पौंस्यम्) पौरुषम् (केनो) केनापि (नु) इदानीम् (कम्) सुखेन (श्रोमतेन) गमेर्डोः। उ० २।६७। श्रु श्रवणे-डोप्रत्ययः+मन ज्ञाने पूजायां च-क्त। श्रोः श्रवणीयो वेदो मतः संमानितो येन तेन (न) निषेधे (शुश्रुवे) श्रु श्रवणे-कर्मणि लिट्। श्रूयते स्म (जनुषः) जन्मनः सकाशात् (परि) (वृत्रहा) शत्रुनाशकः ॥
विषय
'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य'
पदार्थ
१. (कत् उ नु) = कौन-सा निश्चय से (पौंस्यम्) = पौरुष का काम-वृत्र आदि का विनाशरूप (कर्म अस्य इन्द्रस्य) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (अकृतमस्ति) = न किया हुआ है? अर्थात् वृत्र वध आदि सब पौरुष के काम प्रभु द्वारा ही तो किये जाते हैं । २. (केन उ नु श्रोमतेन) = और निश्चय से किस श्रवणीय पौरुष के कार्य से न (शुश्रवे) = वे प्रभु नहीं सुने जाते? (जनुष:परि) = जन्म से लेकर ही, अर्थात् जैसे ही प्रभु का हृदयों में कुछ प्रादुर्भाव होता है, तभी वे प्रभु (वृत्रहा) = वासना का विनाश करनेवाले हैं।
भावार्थ
वासना-विनाश [वृत्र-वध] आदि सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभु ही हैं। वे प्रभु हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते ही सब शत्रुओं का विनाश कर देते हैं। प्रभु की उपासना के द्वारा वासना-विनाश से शान्ति को अपने साथ जोड़नेवाला 'शंयु' अगले सूक्त का ऋषि है
भाषार्थ
(अस्य) इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (पौंस्यं कृतम्) वृद्धिप्रद कर्म (कद् उ नु न) कब नहीं (आशुश्रुवे) सर्वत्र सुने गये? (श्रोमतेन) श्रुतिसंमत (केन) किस विधि द्वारा (कम्) किस की प्रार्थना को (न शुश्रुवे) परमेश्वर ने नहीं सुना? (जनुषः) किस जन्मधारी उपासक के (वृत्रहा) पाप-वृत्रों का हनन, (परि) पूर्णरूप में, परमेश्वर ने [न कृतम्] नहीं किया? अभिप्राय यह कि परमेश्वर के वृद्धिप्रद कर्म सदा सुने गये हैं। यथार्थ विधि द्वारा की गई प्रार्थनाओं को परमेश्वर सदा सुनता है। तथा सच्चे उपासकों के पापों का हनन परमेश्वर पूर्णतया कर देता है।
टिप्पणी
[पौंस्यम्=पुंस् अभिवर्धने।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
What wonder work is that which is not the achievement of Indra’s valour? By which person hasn’t his glory been perceived through his wonder deeds? He is the destroyer of evil and darkness by his very nature.
Translation
What are those manly deed of vigour and admiration that this mighty ruler has not done ? _Who has not heard his glorious title as the Vritra-slayer from his inception ?
Translation
What are those manly deed of vigor and admiration that this mighty ruler has not done? Who has not heard his glorious title as the Vritra-slayer from his inception ?
Translation
O Mighty Lord of fortunes and riches, or king, we, the skilled mechanics or engineers, invoke Thee alone for the distribution of power, knowledge,'food, wealth and speed. The leaders of the people, being attacked by ''overpowering wicked enemies, call Thee, the Protector of the good and the pious. They seek Thee in various directions to be reached on horses or other means of speedy transport.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(कत्) किम् (उ) एव (नु) इदानीम् (अस्य) (अकृतम्) अनाचारितम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो वीरस्य (अस्ति) (पौंस्यम्) पौरुषम् (केनो) केनापि (नु) इदानीम् (कम्) सुखेन (श्रोमतेन) गमेर्डोः। उ० २।६७। श्रु श्रवणे-डोप्रत्ययः+मन ज्ञाने पूजायां च-क्त। श्रोः श्रवणीयो वेदो मतः संमानितो येन तेन (न) निषेधे (शुश्रुवे) श्रु श्रवणे-कर्मणि लिट्। श्रूयते स्म (जनुषः) जन्मनः सकाशात् (परि) (वृत्रहा) शत्रुनाशकः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বীরলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) এই (ইন্দ্রস্য) ইন্দ্র [শ্রেষ্ঠ ঐশ্বর্যবান্ বীর]-এর (নু) এখন (কৎ উ) কোন (পৌংস্যম্) পৌরুষ (অকৃতম্) অকৃত/অনৈতিক (অস্তি) রয়েছে ? (কেনো) কোন (শ্রোমতেন) শ্রুতি [বেদ] মান্যকারী কর্তৃক (নু) এখন (জনুষঃ পরি) জন্মের থেকে (বৃত্রহা) শত্রুনাশক [বীর পুরুষ] পর্যন্ত (কম্) সুখে (ন) নেই- এরূপ (শুশ্রুবে) শোনা গেছে ॥৩॥
भावार्थ
যখন মনুষ্য বিশ্বকর্মা হয়ে নিজের সকল ধার্মিক কর্তব্য সম্পূর্ণ করে, তখন সেই বীরপুরুষ সমস্ত সংসারে প্রশংসা প্রাপ্ত হয় ॥৩॥
भाषार्थ
(অস্য) এই (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (পৌংস্যং কৃতম্) বৃদ্ধিপ্রদ কর্ম (কদ্ উ নু ন) কখন না (আশুশ্রুবে) সর্বত্র শ্রবিত হয়েছে? (শ্রোমতেন) শ্রুতিসম্মত (কেন) কোন বিধি দ্বারা (কম্) কার প্রার্থনা (ন শুশ্রুবে) পরমেশ্বর শ্রবণ করেননি? (জনুষঃ) কোন জন্মধারী উপাসকের (বৃত্রহা) পাপ-বৃত্রের হনন, (পরি) পূর্ণরূপে, পরমেশ্বর [ন কৃতম্] করেননি? অভিপ্রায় হল পরমেশ্বরের বৃদ্ধিপ্রদ কর্ম সদা শ্রবিত হয়েছে। যথার্থ বিধি দ্বারা কৃত প্রার্থনা পরমেশ্বর সদা শ্রবণ করেন। তথা উপাসকদের পাপের হনন পরমেশ্বর পূর্ণরূপে করেন।
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