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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
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    प्रसू॑त इन्द्र प्र॒वता॒ हरि॑भ्यां॒ प्र ते॒ वज्रः॑ प्रमृ॒णन्ने॑तु॒ शत्रू॑न्। ज॒हि प्र॒तीचो॑ अ॒नूचः॒ परा॑चो॒ विष्व॑क्स॒त्यं कृ॑णुहि चि॒त्तमे॑षाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽसू॑त: । इन्द्र: । प्र॒ऽवता॑ । हरि॑ऽभ्याम् । प्र । ते॒ । वज्र॑: । प्र॒ऽमृ॒णन् । ए॒तु॒ । शत्रू॑न् ।ज॒हि । प्र॒तीच॑: । अ॒नूच॑: । परा॑च: । विष्व॑क् । स॒त्यम् । कृ॒णु॒हि॒ । चि॒त्तम् । ए॒षा॒म्॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रसूत इन्द्र प्रवता हरिभ्यां प्र ते वज्रः प्रमृणन्नेतु शत्रून्। जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विष्वक्सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽसूत: । इन्द्र: । प्रऽवता । हरिऽभ्याम् । प्र । ते । वज्र: । प्रऽमृणन् । एतु । शत्रून् ।जहि । प्रतीच: । अनूच: । पराच: । विष्वक् । सत्यम् । कृणुहि । चित्तम् । एषाम्॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    युद्ध विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले राजन् ! (प्रवता) उत्तम गति वा मार्ग से (हरिभ्याम्) स्वीकरण और प्रापण [ग्रहण और दान] के साथ (ते) तेरा (प्रसूतः) चलाया हुआ (वज्रः) वज्र अर्थात् दण्ड (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) पीड़ा देता हुआ (प्र, एतु) आगे चले। (प्रतीचः) सन्मुख आते हुए, (अनूचः) पीछे से आते हुए और (पराचः) तिरस्कार करके चलते हुए [शत्रुओं] को (जहि) नाश कर दे और (एषाम्) इन [शत्रुओं] के (चित्तम्) चित्त को (विष्वक्) सब प्रकार (सत्यम्) सत्पुरुषों का हितकारी (कृणु) बना दे ॥४॥

    भावार्थ

    नीतिज्ञ राजा-प्रजा और शत्रुओं से कर लेकर उनके हितकार्य में लगावे, जिससे सब बाहिरी-भीतरी शत्रु लोग नष्ट होकर दबे रहें और श्रेष्ठों का पालन किया करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(प्रसूतः)। षू क्षेपे-क्त। प्रेरितः। प्रवर्त्तितः। (इन्द्र)। हे प्रतापिन् राजन्। (प्रवता)। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गात् साधने धात्वर्थे वर्त्तमानात् स्वार्थे वतिः प्रत्ययः। प्रवत उद्वतो निवत इत्यवतिर्गतिकर्मा-निरु० १०।२०। प्रकृष्टगत्या मार्गेण, प्रावनेन वा। (हरिभ्याम्)। हृपिषिरुहि०। उ० ४।११९। इति हृञ् हरणे-इन्। हरणं स्वीकारः प्रापणं स्तेयं नाशनं च। हरिः स्वीकारो ग्रहणं, प्रापणं दानं च ताभ्यां ग्रहणदानाभ्याम्। (ते)। तव (वज्रः)। दण्डरूपः। (प्रमृणन्)। प्रकर्षेण हिंसन्। (प्र, एतु)। प्रगच्छतु। (शत्रून्)। अरातीन्। (जहि)। हन वधगत्योः। विनाशय। (प्रतीचः)। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति प्रति+अञ्चतेः क्विन् अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति न लोपः। शसि। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। प्रतिमुखमागच्छतः शत्रून्। (अनूचः)। अनु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। पूर्ववत् सिद्धिः। अनु पश्चाद् आगच्छतः। (पराचः)। परा+अञ्चु-क्विन्। पूर्ववत् सिद्धिः। परा तिरस्कृत्य पराङ्मुखं वा गच्छतः। (विष्वक्)। विषु+अञ्चु-क्विन्। सर्वतः। (सत्यम्)। सद्भ्यो हितम्। (कृणुहि)। उतश्च प्रत्ययाच्छन्दसि वा वचनम्। वा० पा० ६।४।१०६। इति हेरलुक्। कृणु, कुरु। (चित्तम्)। अन्तःकरणम् (एषाम्)। शत्रूणाम् ॥

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    विषय

    प्रबल आक्रमण से शत्रुओं की व्याकुलतारहित

    पदार्थ

    १.हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले सेनापति ! (हरिभ्याम्) = रथ का हरण करनेवाले रथ को तीव्र गति से ले-चलनेवाले अश्वों से (प्रसूत) = प्रेरित हुआ-हुआ तेरा रथ (प्रवता) = [प्रवत्-Easy passage] सरल मार्ग से-बाधाशून्य मार्ग से (एतु) = गतिवाला हो और (ते) = तेरा (वज्रः) = वज (शत्रून्) = शत्रुओं को (प्रमृणन्) = काटता हुआ (प्रएतु) = प्रकर्षेण गतिमय हो। २. तू (प्रतीच:) = अभिमुख प्राप्त होनेवाले, (अनूच:) = पीछे की ओर से आनेवाले (पराच:) = भागकर दूर जानेवाले शत्रु-सैन्यों को (जहि) = नष्ट कर । (एषाम्) = इन शुत्रओं के (सत्यम्) = शत्रुहनन लक्षणमात्र कार्य में उद्यत व व्यवस्थित (चित्तम्) = चित्त को (विष्यक) = सर्वतः अञ्चनशील, अर्थात् अव्यवस्थित, कार्याकार्य विभाग-ज्ञान शून्य (कृणुहि) = कर दे, अर्थात् उन्हें घबराहट में डाल दे।

    भावार्थ

    सेनापति का वन शत्रुओं में इसप्रकार मार-काट करनेवाला हो कि वे घबरा जाएँ।

     

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट् ! (प्रसूतः) प्रेरित हुआ तू (हरिभ्याम्) दो अश्वों से युक्त (प्रवता) प्रकृष्ट गतिवाले रथ द्वारा [प्रयाण कर], (ते) तेरा (वज्रः) वध (शत्रून् प्रमृणन्) शत्रुओं को मारता हुआ (प्र एतु) प्रगति करे। (जहि) वि+नष्ट कर (प्रतिचः) हमारे प्रति गमन करनेवालों को, (अनुचः) हमारा पीछा करनेवालों को, (पराचः) युद्धस्थल छोड़कर परे भाग जाने वालों को। (एषाम्) इन शत्रुओं के (विष्वक्) नानामुखी (चित्तम्) चित्त को (सत्यम्) सत्यमार्गी (कृणुहि) तू कर दे।

    टिप्पणी

    [प्रसूतः= प्रेरित हुआ। प्र+ षू प्रेरण (तुदादि); प्रजा द्वारा या सैन्य द्वारा युद्धार्थ प्रेरित हुआ सम्राट्। सत्यम्="युद्ध न करना" यह चित्त का सत्यमार्गी होना है। विषु + अक्=विष्बक्; युद्ध करें या न करें, यह चित्तवृत्ति नानामुखी है।]

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    विषय

    शत्रु सेनाओं के प्रति सेनापति के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (ते) तेरा (वज्रः) शस्त्र (हरिभ्यां प्रसूतः) शत्रुसंहारी अग्नि शक्ति और विद्युत् शक्ति द्वारा प्रेरित हुआ (प्रवता) ऊंचाई से गिराया गया (प्र एतु) शत्रु की ओर आगे बढ़े, (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणत्) विनाश करता हुआ (प्र एतु) आगे २ बढ़ता जाय। और तू (प्रतीचः) सामने से लड़ाई करने वाले, (अनूचः) पीछे से आक्रमण करने वाले और (पराचः) दूर देश से आक्रमण करने वाले सब शत्रुओं को (जहि) विनाश कर और (एषां) इनके (चित्तम्) चित्त को (सत्यं) सचमुच (विष्वक्) अव्यवस्थित (कृणुहि) कर दे । अथवा—(विष्वक्) सब प्रकार से इनके चित्त को (सत्यं कृणुहि) सत्यपथानुगामी बना दे, जिससे वे शत्रुभाव छोड़ कर श्रेष्ठ पुरुष हो जायं ।

    टिप्पणी

    ‘विश्वे सत्यं कृणुहि विष्टमस्सु’ इति ऋ० । ‘विश्वं विष्टं कृणुहि सत्यमेषाम्’ इति पैप्प० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । अग्निमरुदिन्द्रादयो वहवो देवताः । सेनामोहनम् । १ त्रिष्टुप् । २ विराड् गर्भा भुरिक् । ३, ६ अनुष्टुभौ । विराड् पुरोष्णिक् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Storm the Enemy

    Meaning

    Indra, ruler and commander of power and glory, let your thunderbolt of justice and punishment powered by judgment and passion for rectitude fall upon the enemies of humanity, breaking down all elements of negativity and destruction. Let it eliminate these elements up front, behind and far away, and turn the distracted minds of adversaries to follow truth and the rule of law.

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    Translation

    O resplendent ‘king, may your chariot drawn by two bay steeds move smooth and fast. May your bolt go forth slaying the enemies. Smite the on-coming, the following ones, that is coming from behind, and the fleeing far. Make their minds utterly confused. (Indra = resplendent king)

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    Translation

    O’ Mighty Ruler; you deadly weapon launched by fire and electricity from high place go forward against foes and killing them go further. You kill the enemies who come in front, who attack from behind and who besiege from far away and fulfill their intention onn all sides.

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    Translation

    O King, may thy bolt shot from a high place, with the swiftness of fireand lightning, go forth, destroying foes. Slay those who stand in front andfollow, slay those who fly in all directions. In every way, lead the mind ofthese enemies on the path of virtue!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(प्रसूतः)। षू क्षेपे-क्त। प्रेरितः। प्रवर्त्तितः। (इन्द्र)। हे प्रतापिन् राजन्। (प्रवता)। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गात् साधने धात्वर्थे वर्त्तमानात् स्वार्थे वतिः प्रत्ययः। प्रवत उद्वतो निवत इत्यवतिर्गतिकर्मा-निरु० १०।२०। प्रकृष्टगत्या मार्गेण, प्रावनेन वा। (हरिभ्याम्)। हृपिषिरुहि०। उ० ४।११९। इति हृञ् हरणे-इन्। हरणं स्वीकारः प्रापणं स्तेयं नाशनं च। हरिः स्वीकारो ग्रहणं, प्रापणं दानं च ताभ्यां ग्रहणदानाभ्याम्। (ते)। तव (वज्रः)। दण्डरूपः। (प्रमृणन्)। प्रकर्षेण हिंसन्। (प्र, एतु)। प्रगच्छतु। (शत्रून्)। अरातीन्। (जहि)। हन वधगत्योः। विनाशय। (प्रतीचः)। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति प्रति+अञ्चतेः क्विन् अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति न लोपः। शसि। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। प्रतिमुखमागच्छतः शत्रून्। (अनूचः)। अनु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। पूर्ववत् सिद्धिः। अनु पश्चाद् आगच्छतः। (पराचः)। परा+अञ्चु-क्विन्। पूर्ववत् सिद्धिः। परा तिरस्कृत्य पराङ्मुखं वा गच्छतः। (विष्वक्)। विषु+अञ्चु-क्विन्। सर्वतः। (सत्यम्)। सद्भ्यो हितम्। (कृणुहि)। उतश्च प्रत्ययाच्छन्दसि वा वचनम्। वा० पा० ६।४।१०६। इति हेरलुक्। कृणु, कुरु। (चित्तम्)। अन्तःकरणम् (एषाम्)। शत्रूणाम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে সম্রাট্ ! (প্রসূতঃ) প্রেরিত তুমি (হরিভ্যাম্) দুই অশ্ব যুক্ত (প্রবতা) প্রকৃষ্ট গতিশীল রথ দ্বারা [যাত্রা করো], (তে) তোমার (বজ্রঃ) বজ্র (শত্রূন্ প্রমৃণন্) শত্রুদের মেরে/বিনাশ করে (প্র এতু) প্রগতি করুক। (জহি) বিনষ্ট করো (প্রতি) আমাদের প্রতি অগ্রসরকারীদের, (অনূচঃ) আমাদের অনুধাবনকারীদের, (পরাচঃ) যুদ্ধস্থল ত্যাগ করে পলায়নকারীদের। (এষাম্) এই শত্রুদের (বিষ্বক্) নানামুখী (চিত্তম্) চিত্তকে (সত্যম্) সত্যমার্গী (কৃণুহি) তুমি করে দাও/করো।

    टिप्पणी

    [প্রসূতঃ= প্রেরিত হওয়া। প্র+ষূ প্রেরণে (তুদাদিঃ); প্রজা দ্বারা বা সৈন্য দ্বারা যুদ্ধার্থে প্রেরিত হওয়া সম্রাট্। সত্যম্ = "যুদ্ধ না করা" ইহা চিত্তের সত্যমার্গী হওয়া। বিষু + অক্ = বিষ্বক্; যুদ্ধ করবো নাকি করবো না, এই চিত্তবৃত্তি নানামুখী।]

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    मन्त्र विषय

    যুদ্ধবিদ্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমৈশ্বর্যবান রাজন্ ! (প্রবতা) উত্তম গতি বা মার্গ থেকে (হরিভ্যাম্) স্বীকরণ এবং প্রাপণ [গ্রহণ এবং দান] এর সাথে (তে) তোমার (প্রসূতঃ) প্রেরিত (বজ্রঃ) বজ্র অর্থাৎ দণ্ড (শত্রূন্) শত্রুদের (প্রমৃণন্) পীড়া দিয়ে (প্র, এতু) এগিয়ে চলে। (প্রতীচঃ) সন্মুখে আগত, (অনূচঃ) পেছন থেকে আগত এবং (পরাচঃ) তিরস্কার করে চলমান/পলায়মান [শত্রুদের] (জহি) বিনাশ করো এবং (এষাম্) এই [শত্রুদের] (চিত্তম্) চিত্তকে (বিষ্বক্) সমস্ত প্রকারে (সত্যম্) সৎপুরুষদের হিতকারী (কৃণু) করো ॥৪॥

    भावार्थ

    নীতিজ্ঞ রাজা-প্রজা এবং শত্রুদের থেকে কর নিয়ে তাঁদের হিতকার্যে প্রয়োগ করবে, যাতে সমস্ত বর্হি-অন্তবর্তী শত্রু বিনষ্ট হয়ে দমিত থাকে এবং শ্রেষ্ঠদের পালন করে॥৪॥

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