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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रात्रिः, धेनुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
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    यां दे॒वाः प्र॑ति॒नन्द॑न्ति॒ रात्रिं॑ धे॒नुमु॑पाय॒तीम्। सं॑वत्स॒रस्य॒ या पत्नी॒ सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । दे॒वा: । प्र॒ति॒ऽनन्द॑न्ति । रात्रि॑म् । धे॒नुम् । उ॒प॒ऽआ॒य॒तीम् । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । या । पत्नी॑ । सा । न॒: । अ॒स्तु॒ । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्। संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । देवा: । प्रतिऽनन्दन्ति । रात्रिम् । धेनुम् । उपऽआयतीम् । सम्ऽवत्सरस्य । या । पत्नी । सा । न: । अस्तु । सुऽमङ्गली ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।

    पदार्थ

    (देवाः) महात्मा पुरुष, वा सूर्य, वायु चन्द्रादि दिव्य पदार्थ (उपायतीम्) पास आती हुई (धेनुम्) तृप्त करनेवाली (याम्) जिस (रात्रिम्) दानशीला और ग्रहणशीला शक्ति, वा रात्रिरूप [प्रकृति] को (प्रतिनन्दन्ति) अभिनन्दन करते [धन्य मानते] हैं और (या) जो (संवत्सरस्य) यथावत् निवास देनेवाले [परमेश्वर] की (पत्नी) पालनशक्ति है, (सा=सा सा) वह ईश्वरी (नः) हमारेलिये (सुमङ्गली) बड़े-२ मङ्गल करनेवाली (अस्तु) होवे ॥२॥

    भावार्थ

    प्रकृति ईश्वरनियम से पदार्थों को उत्पन्न करके जीवों को सुख देकर उनका दुःख हरती है और अनन्त होने से वह रात्रि वा अन्धकाररूप है। विज्ञानी पुरुष खोज लगा-लगाकर उससे उपकार लेकर विविध उन्नति करते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(याम्)। (देवाः)। विद्वांसः। सूर्यवायुचन्द्रादिदिव्यपदार्थाः। (प्रतिनन्दन्ति)। टुनदि आनन्दे। प्रतिनद अभिनन्दने, धन्यवादे। अभिनन्दयन्ति। स्तुवन्ति। (रात्रिम्)। राशदिभ्यां त्रिप्। उ० ४।६७। इति रा दाने ग्रहणे च-त्रिप्। यद्वा। रमतेः-त्रिप्, मकारस्याकारश्च। रात्रिः कस्मात् प्ररमयति भूतानि नक्तञ्चारीण्युपरमयतीतराणि ध्रुवीकरोति रातेर्वा स्याद् दानकर्मणः प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः-निरु० २।१८। रात्रिः-भूस्थानदेवता-निरु० ९।२८। सुखदात्रीम्। दुःखहर्त्रीम् अनन्तत्वात्, निशारूपाम् अन्वेषणीयां वा प्रकृतिमित्यर्थः। (धेनुम्)। प्रीणयित्रीम्। (उपायतीम्)। उप+आङ्+इण् गतौ-शतृ। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। समीपम् आगच्छन्तीम् (संवत्सरस्य)। अ० ३।५।८। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। सम्यक् निवासकस्य। परमेश्वरस्य। (या)। रात्रिः (पत्नी)। पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। पा० ४।१।३२। इति इकारस्य नकारो ङीप् च। इन्द्राणीन्द्रस्य पत्नी-निरु० ११।३७। इन्द्रस्य विभूतिः-इति दुर्गाचार्यस्य टीका। देवपत्न्यो देवानां पत्न्यः-निरु० १२।४४। पालयित्र्यः पालनीया वा-इति तस्य टीका। पातीति पतिः पत्नी चा। पालयित्री शक्तिः। (सा)। सा सा। म० १। पूर्वोक्तेश्वरी। (नः)। अस्मभ्यम्। (अस्तु)। भवतु। (सुमङ्गली)। मङ्गेरलच्। उ० ५।७०। इति मगि सर्पणे-अलच्। ङीप्। शोभनं मङ्गलं यस्याः। अत्यन्तकल्याणकरी। सुभद्रा ॥

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    विषय

    रात्रि [संवत्सरपत्नी]

    पदार्थ

    १. (देवा:) = देववृत्ति के लोग (उपायतीम) = समीप आती हुई (यां रात्रिं धेनुम्) = जिस रात्रिरूप धेनु का (प्रतिनन्दन्ति) = स्वागत करते हैं, (सा) = वह रात्रि (नः) = हमारे लिए (सुमङ्गली) = उत्तम मङ्गल करनेवाली हो। रात्रि धेनु है। धेनु दुग्ध देती है, दुग्ध द्वारा हमारा वर्धन करती है। इसीप्रकार रात्रि भी हमारा आप्यायन करती है-हमें पुन: स्फूर्तिमय बना देती है, इसी से यह धेनु कहाती है। रात्रि में ओषधियों में रस का सञ्चार होता है। यह रात्रि रमयित्री है, परन्तु राक्षसी वृत्तिवालों के लिए यह अमङ्गलों व पापों का आधार बन जाती है। २. (या) = जो रात्रि (संवत्सरस्य) = संवत्सर की (पत्नी) = पत्नी है-('संवसन्ति अस्मिन् इति संवत्सरः') = उत्तम निवासवाले वर्ष की यह रात्रि पत्नी है। रात्रि संवत्सर को संवत्सर बनाती है। रात्रि प्रतिदिन हममें शक्ति का सञ्चार करती हुई हमारे जीवन के वर्षों को उत्तम बनाती है। यह रात्रि हमारे लिए सुमङ्गली हो।

     

    भावार्थ

    रात्रि धेन है। यह हमारी शक्तियों का फिर से आप्यायन करती है। यह संवत्सर की पत्नी है-हमारे निवास को प्रतिदिन उत्तम बनाती हुई हमारे जीवन के वर्षों को सचमुच 'संवत्सर' बनाती है।

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    भाषार्थ

    (उपायतीम्) समीप आती हुई (याम्) जिस (धेनुम्, रात्रिम्) धेनुरूपा रात्री को [प्राप्त कर] (देवाः) दिव्य शक्तियां (प्रतिनन्दन्ति) समृद्ध होती हैं, तथा (या) जो रात्री (संवत्सरस्य पत्नी) संवत्सर की पत्नी है, (सा) वह (नः) हमें (सुमज्ली अस्तु) उत्तम-मङ्गलकारिणी हो।

    टिप्पणी

    [संवत्सर है सौर वर्ष। मन्त्र में समाम् द्वारा चान्द्रवर्ष का कथन हुआ है। सौर वर्ष का प्रारम्भ रात्री द्वारा कहा है। दिन, रात्री के १२ बजे की समाप्ति पर, आनेवाली रात्री के १२ बजे तक होता है। इस आनेवाली रात्री के पश्चात् दिन का प्रारम्भ होता है जोकि नववर्ष को प्रारम्भ करता है। इस नववर्ष के आते भूमण्डल की दिव्य शक्तियां समृद्ध होने लगती हैं। यह रात्री नववर्ष की पत्नी होती है, नववर्ष की दिव्य शक्तियों की उत्पादिका होती है। नन्दन्ति=टुनदि समृद्धौ (भ्वादिः)। इस प्रथमा रात्री को संवत्सर की पत्नी कहा है। इस प्रथमा रात्री से संवत्सर प्रारब्ध होता है, सम्भवतः यह अभिप्राय है।]

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    विषय

    अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    गृहपत्नी नवबधू को रात्रि और गौ से उपमा देकर उसका वर्णन करते हैं । (यां) जिस (रात्रिं) रमण करने योग्य सब को प्रसन्न करने एवं सुख देने हारी रात्रि के समान और (उप आयतीम्) स्वामी के पास प्रेम से स्वयं आने हारी, (धेनुं) नाना सुखों को उत्पन्न करने हारी गौ के समान गार्हस्थ्य सुख को प्राप्त कराने हारी वधू को (देवाः) विद्वान् पुरुष (प्रतिनन्दन्ति) देख कर बहुत प्रसन्न होते हैं (या) जो (संवत्सरस्य) उत्तम रीति से वत्स = बालकों को अन्नादि से पुष्ट करने हारे अपने स्वामी के गृह की पत्नी अर्थात् स्वामिनी होकर रहती है वह (नः) हमारे समाज के लिये (सुमङ्गली) उत्तम शुभ मङ्गल करने हारी हो । नवोढ़ा को आशीर्वाद दिया जाता है ‘सुमङ्गलीरियं वधूः इमां सभेत पश्यत ।’ अन्यत्र भी “सुमङ्गली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये वशुराय शम्भूः।” (अथर्व० १०। २। २६)

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यां जनाः’ (द्वि०) ‘इवायतीम्’ इति मै० ब्रा०। (द्वि०) ‘घेनुरात्रिमुपा’ (च०) सुमंगला’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kalayajna for Growth and Prosperity

    Meaning

    May the Ratri, abundant and generous Prakrti, and Dhenu, mother cow creative of existence, which is come up at the new dawn, whom the Devas celebrate with enthusiastic response, and which is the creative and sustaining partner Shakti of the Lord of Time through cosmic dynamics of the Law, be good and auspicious to us in the new age.

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    Translation

    Whom the enlightened ones welcome with joy, the (Ekāstakā) night as she approaches as a cow, who is the consort of the year ; may she be propitious to us.

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    Translation

    In the control of nature’s law the first night dawned like the cow giving the plenty of milk or full dews. Let that night be full of dews to pour down prosperity for us through many subsequent years.

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    Translation

    The learned feel delighted to see that newly married girl, who affords comfort to all like Night, is a source of happiness in domestic life like a cow, and goes full of love towards her husband. She is the mistress of the house ofher husband, who nourishes the children with food. May she bring abundant happiness to our society.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(याम्)। (देवाः)। विद्वांसः। सूर्यवायुचन्द्रादिदिव्यपदार्थाः। (प्रतिनन्दन्ति)। टुनदि आनन्दे। प्रतिनद अभिनन्दने, धन्यवादे। अभिनन्दयन्ति। स्तुवन्ति। (रात्रिम्)। राशदिभ्यां त्रिप्। उ० ४।६७। इति रा दाने ग्रहणे च-त्रिप्। यद्वा। रमतेः-त्रिप्, मकारस्याकारश्च। रात्रिः कस्मात् प्ररमयति भूतानि नक्तञ्चारीण्युपरमयतीतराणि ध्रुवीकरोति रातेर्वा स्याद् दानकर्मणः प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः-निरु० २।१८। रात्रिः-भूस्थानदेवता-निरु० ९।२८। सुखदात्रीम्। दुःखहर्त्रीम् अनन्तत्वात्, निशारूपाम् अन्वेषणीयां वा प्रकृतिमित्यर्थः। (धेनुम्)। प्रीणयित्रीम्। (उपायतीम्)। उप+आङ्+इण् गतौ-शतृ। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। समीपम् आगच्छन्तीम् (संवत्सरस्य)। अ० ३।५।८। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। सम्यक् निवासकस्य। परमेश्वरस्य। (या)। रात्रिः (पत्नी)। पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। पा० ४।१।३२। इति इकारस्य नकारो ङीप् च। इन्द्राणीन्द्रस्य पत्नी-निरु० ११।३७। इन्द्रस्य विभूतिः-इति दुर्गाचार्यस्य टीका। देवपत्न्यो देवानां पत्न्यः-निरु० १२।४४। पालयित्र्यः पालनीया वा-इति तस्य टीका। पातीति पतिः पत्नी चा। पालयित्री शक्तिः। (सा)। सा सा। म० १। पूर्वोक्तेश्वरी। (नः)। अस्मभ्यम्। (अस्तु)। भवतु। (सुमङ्गली)। मङ्गेरलच्। उ० ५।७०। इति मगि सर्पणे-अलच्। ङीप्। शोभनं मङ्गलं यस्याः। अत्यन्तकल्याणकरी। सुभद्रा ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (উপায়তীম্) সমীপে আগত (যাম্) যে (ধেনুম্, রাত্রিম্) ধেনুরূপা রাত্রীকে [প্রাপ্ত করে] (দেবাঃ) দিব্য শক্তিসমূহ (প্রতিনন্দন্তি) সমৃদ্ধ হয়, এবং (যা) যে রাত্রী (সংবৎসরস্য পত্নী) সংবৎসরের পত্নী, (সা) তা (নঃ) আমাদের (সুমঙ্গলী অস্তু) উত্তম-মঙ্গলকারিণী হোক।

    टिप्पणी

    [সংবৎসর হলো সৌরবর্ষ। মন্ত্রে সমাম্ দ্বারা চান্দ্রবর্ষের কথন হয়েছে। সৌরবর্ষের প্রারম্ভ রাত্রী দ্বারা বলা হয়েছে। দিন, রাত্রির ১২ টার সমাপ্তিতে, আগামী রাত্রির ১২ টা পর্যন্ত হয়ে থাকে। এই আগত রাত্রীর পরে দিনের প্রারম্ভ হয় যা নববর্ষ শুরু করে। এই নববর্ষ এলেই ভূমণ্ডলের দিব্য শক্তিগুলি সমৃদ্ধ হতে শুরু করে। এই রাত্রী হলো নববর্ষের পত্নী, নববর্ষ দিব্য শক্তিগুলির উৎপাদিকা। নন্দন্তি= টুনদি সমৃদ্ধৌ (ভ্বাদিঃ)। এই প্রথমা রাত্রীকে সংবৎসরের পত্নী বলা হয়েছে। এই প্রথমা রাত্রী থেকে সংবৎসর প্রারম্ভ হয়, সম্ভবতঃ এটাই অভিপ্রায়।]

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    मन्त्र विषय

    পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্

    भाषार्थ

    (দেবাঃ) মহাত্মা পুরুষ, বা সূর্য, বায়ু চন্দ্রাদি দিব্য পদার্থ (উপায়তীম্) সমীপে আগত (ধেনুম্) তৃপ্তকারী (যাম্) যে (রাত্রিম্) দানশীলা এবং গ্রহণশীলা শক্তি, বা রাত্রিরূপ [প্রকৃতি] কে (প্রতিনন্দন্তি) অভিনন্দন করে [ধন্য মানে] এবং (যা) যে/যা (সংবৎসরস্য) যথাবৎ নিবাস প্রদায়ী [পরমেশ্বর] এর (পত্নী) পালনশক্তি আছে, (সা=সা সা) সেই ঈশ্বরী (নঃ) আমাদের জন্য (সুমঙ্গলী) উত্তম-উত্তম মঙ্গলকারী (অস্তু) হোক ॥২॥

    भावार्थ

    প্রকৃতি ঈশ্বরনিয়ম-এর দ্বারা পদার্থসমূহ উৎপন্ন করে জীবদের সুখ প্রদান করে, তাদের দুঃখ হরণ করে এবং অনন্ত হওয়ায় তা রাত্রি বা অন্ধকাররূপ। বিজ্ঞানী পুরুষ অনুসন্ধান করে তার [সেই প্রকৃতি] থেকে উপকার নিয়ে বিবিধ উন্নতি করে॥২॥

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