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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रात्रिः, यज्ञः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराड्गर्भातिजगती सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
    0

    आ मा॑ पु॒ष्टे च॒ पोषे॑ च॒ रात्रि॑ दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म। पू॒र्णा द॑र्वे॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒ पुन॒रा प॑त। सर्वा॑न्य॒ज्ञान्त्सं॑भुञ्ज॒तीष॒मूर्जं॑ न॒ आ भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒ । पु॒ष्टे । च॒ । पोषे । च॒ । रात्रि॑ । दे॒वाना॑म् । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ । पू॒र्णा । द॒र्वे॒ । परा॑ । प॒त॒ । सुऽपू॑र्णा । पुन॑: । आ । प॒त॒ ।सर्वा॑न् । य॒ज्ञान् । स॒म्ऽभु॒ञ्ज॒ती । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । न॒: । आ । भ॒र॒ ॥१०.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मा पुष्टे च पोषे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम। पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। सर्वान्यज्ञान्त्संभुञ्जतीषमूर्जं न आ भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मा । पुष्टे । च । पोषे । च । रात्रि । देवानाम् । सुऽमतौ । स्याम । पूर्णा । दर्वे । परा । पत । सुऽपूर्णा । पुन: । आ । पत ।सर्वान् । यज्ञान् । सम्ऽभुञ्जती । इषम् । ऊर्जम् । न: । आ । भर ॥१०.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।

    पदार्थ

    (रात्रि) हे सुख देनेवाली वा दुःख हरनेवाली, वा रात्रीरूप [प्रकृति] (पुष्टे) धन की समृद्धि (च) और (पोषे) अन्नादि की वृद्धि में (च) निश्चय करके (मा) मुझको (आ=आ भर) भर दे, [जिससे] (देवानाम्) देवताओं की (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम रहें। (दर्वे) हे दुःख दलनेवाली ! [वा चमसारूप !] (पूर्णा) भरी-भराई (परापत) ऊपर आ और (पुनः) बार-२ (सुपूर्णा) भले प्रकार भरी-भराई (आ पत) पास आ ! (सर्वान्) सब (यज्ञान्) पूजनीय गुणों का (सम्भुञ्जती) ठीक-ठीक पालन करती हुई तू (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) बल (नः) हमें (आ भर) लाकर भर दे ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के गुण साक्षात् करके जितना-२ आगे बढ़ता है, उतना-२ ही वह धनी और बली होकर देवताओं का प्रिय होता और आनन्द भोगता है ॥७॥ ‘पूर्णा दर्वे.... पुनरापत’ इतना भाग यजुर्वेद अ० ३।४९ में है, वहाँ ‘दर्वे’ के स्थान पर ‘दर्वि’ पद है ॥

    टिप्पणी

    ७−(आ)। आ भर-इति मन्त्रस्थान्तपदेन सम्बन्धः। (मा)। माम्। (पुष्टे)। पुष पोषणे-भावे क्त। धनसमृद्धौ। (च)। समुच्चये। अवधारणे। (पोषे)। अन्नादिवृद्धौ। (रात्रि)। म० २। हे सुखदात्रि। दुःखहर्त्रि, रात्रिरूपे, एकाष्टके प्रकृते (देवानाम्)। विदुषाम्। (सुमतौ)। कल्याण्यां बुद्धौ। (स्याम)। भवेम। (पूर्णा)। पॄ पूर वा पूर्त्तौ-क्त। वा दान्तशान्तपूर्णदस्त०। पा० ७।२।२७। इति इडभावो निपात्यते। पूरिता। (दर्वे)। वृदृभ्यां विन्। उ० ४।५३। इथि दृङ् आदरे, यद्वा, दृ विदारणे-विन्। आद्रियते विदारयतीति वा। हे दुःखदलनशीले। हे चमसरूपे वा। (परा)। प्राधान्ये। त्यागे। विक्रमे। गतौ। भङ्गे। (पत)। पत्लृ गतौ। आगच्छ। (सुपूर्णा)। परिपूर्णा। (पुनः)। बारम्बारम्। (सर्वान्)। सकलान्। (यज्ञान्)। अ० १।९।४। यष्टव्यान् पूज्यान् देवान् दिव्यगुणान्। (सम्भुञ्जती)। भुज पालने-शतृ, ङीप्। सम्यक् पालयन्ती। (इषम्)। इषु इच्छायाम्, गतौ वा-क्विप्। अन्नम्-निघ० २।७। (ऊर्जम्)। आ० २।२९।३। ऊर्ज बलप्राणनयोः-क्विप्। बलम्। पराक्रमम्। (नः)। अस्मभ्यम्। (आ भर)। आनीय धर ॥

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    विषय

    पुष्टे च पोषे च

    पदार्थ

    १. हे (रात्रि) = रात्रि! तू (मा) = मुझे (पुष्टे) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग की दृढ़ता में (च) = और (पोषे च) = धनादि आवश्यक साधनों के पोषण में (आ) = [स्थापित]-स्थापित कर । हम सदा (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों की (सुमतो) = कल्याणी मति में (स्याम) = हों, सदा देवों की भाँति शुभ विचारोंवाले बनें। २. यज्ञ के समय हे (दर्वे) = घृत के चम्मच ! (पूर्णा) = पूरा भरा हुआ तू (परापत) = दूर अग्नि की ओर जा अग्नि के द्वारा सारे वायुमण्डल में तू सूक्ष्म कणों के रूप में पहुँचनेवाला हो। वहाँ इन देवों से (सपूर्णा) = उत्तम अन्न आदि से पूर्ण हुआ-हुआ तू (पुनः आपत) = फिर हमें प्राप्त हो। हे देवि! (सर्वान् यज्ञान्) = सब यज्ञों का (संभुञ्जती) = सम्यक् पालन करती हुई तू (न:) = हमारे लिए (इषम् ऊर्जम्) = अन्न व रस को (आभर) = समन्तात् प्रास करानेवाली हो।

    भावार्थ

    हम रात्रि में पूर्ण निद्रा लेकर स्वस्थ बनें। धनों को प्राप्त करके सदा यज्ञशील होते हुए उत्तम अन्न-रस के भागी बनें।

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    भाषार्थ

    (रात्रि) हे रात्रि ! (मा) मुझे (पुष्टे च पोषे च) पुष्ट पदार्थों में, और [उन द्वारा प्राप्त] पुष्टि में (आ) आस्थापित कर, ताकि (देवानाम्) दिव्य व्यक्तियों की (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम हों। (दर्वे) हे दारु द्वारा निर्मित कड़छी! (परापत) अग्नि की ओर तु जा गिर, तदनन्तर (सुपूर्णा) और अभिमत फलों से पूर्ण हुई, भरी हुई (पुनः) फिर (आ पत) हमारी ओर आ गिर। (सर्वान यज्ञान्) सब यज्ञों को (संभुञ्जती) सम्यक सफल करती हुई (नः) हमारे लिये (इषम्) अभीष्ट अन्न, (च) और (ऊर्जम्) बल और प्राण (आ भर=आ हर) ला।

    टिप्पणी

    [रात्री है संवत्सर की प्रथमा रात्री, जिस रात्री से संवत्सर का प्रारम्भ होता है। उस रात्री में सांवत्सरिक यज्ञ करना चाहिए (मन्त्र ५)। इस यज्ञ में यज्ञकर्त्ताओं को दिव्य व्यक्तियों की सुमति के अनुसार जीवनचर्या करनी चाहिए। घृत तथा हवियों को यज्ञाग्नि में डालने के लिए दारुनिर्मित कड़छी चाहिए, ताकि आहुतियाँ प्रभूतमात्रा में दी जा सकें, कड़छी को पूर्ण भरकर आहुतियां दी जा सकें, उसका फल भी प्रभुत होगा। सब यज्ञों के पूर्णतया परिपालित होने पर हमें अभीष्ट अन्न और उस द्वारा बल और प्राणशक्ति प्राप्त होगी। ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)। भुञ्जती = भुज पालने (रुधादिः), भोजन से पालन होता ही है। यज्ञों और यज्ञियाग्नियों को समुचित भोजन मिलने पर ये भी परिपालित होंगे।]

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    विषय

    अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (रात्रि) रमणसाधनसम्पन्न गृहपति ! तू मुझ गृहस्थ के (पुष्टे) अति अधिक पुष्टि देने योग्य, बढ़े हुए धन में और (पोषे च) बालकों के पालन पोषण कार्य में सहायक हो । हम सब (देवानां) विद्वान् पुरुषों की (सुमतौ) शुभ मति में ही (स्याम) रहें। यज्ञ का उपदेश करते हैं—हे (दर्वे) घृतपूर्ण चमस ! तू (पूर्णा) पूर्ण होकर (परापत) अग्निहोत्र की अग्नि में पड़ और (सुपूर्णा) उत्तम रीति से पूर्ण होकर (पुनः आ पत) वार २ आहुति डाल । तू (सर्वान्) समस्त (यज्ञान्) पुण्यकार्यों को (संभुञ्जती) पालन करती हुई (ऊर्जं) रस और बल को (इषम्) पुष्टिकारक अन्न को (नः) हमें (आ भर) प्राप्त करा । दर्वि की उपमा से यह मन्त्र गृहपत्नी का कर्तव्य भी कहता है कि—हे (दर्वे) सब दुःखों का दलन करने हारी ! तू (पूर्णा) शरीर में पूर्ण होकर (परा पत) घर के कार्यों में लग और (सुपूर्णा) खूब हृष्ट पुष्ट होकर (पुनः आ पत) वार २ हमारे प्रति आ, अथवा प्रसन्न चित्त से तू माता पिता के पास जा और भी अधिक प्रसन्नता से पुनः अपने पतिगृह में लौट कर आ और सब पुण्य कर्मों का पालन करती हुई हमारे लिये पुष्टिकर पदार्थों को प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    ‘पूर्णा दवि’ इति यजु०। (प्र०) ‘सम्पृञ्चती’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kalayajna for Growth and Prosperity

    Meaning

    Bless us, O Mother Nature, divine giver, with health, nourishment and increasing prosperity. May we ever abide and enjoy the favour and good will of the devas, generous powers of divinity and nobilities of humanity. O dispeller of darkness and misfortune, mother perfect and abundant, come from far and near, come ever more abundant with perfection again and again. Joining and enjoying all our yajnas of creative action with surrender in homage, bring us abundance of food, energy, knowledge and enlightenment.

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    Translation

    O (Ekāstakā) night, may you set me in prosperity and nourishment. May we be in good books of the enlightened — ones. A spoon, go thither full of oblations and come back filled up to brim. Consuming all the oblations at the sacrifice, may you bring food and vigour to us.

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    Translation

    May the fire of Yajna take every day the reverberating word of Ida, the Vedic speech full of ghee and accompanied by oblation material. May we attain the pleasure of having seven animals (cow, goats, sheep, elephant, ass, horse and camel) which are domestic and of various colors.

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    Translation

    O Mistress of the house, comforting like night, help me in acquiring wealth and rearing children. May we all follow the sound advice of the learned.O subduer of all affictions, fully devoloped in body, devote thyself to domestic duties; with a strong physique go to thy parental house, and return tothy father-in-law's, again and again, bringing food and energy to us. Just asa ladle filled fall with butter empties itself in the yajna's fire again and again.

    Footnote

    Me refers to the husband, subduer of afflictions: consort.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(आ)। आ भर-इति मन्त्रस्थान्तपदेन सम्बन्धः। (मा)। माम्। (पुष्टे)। पुष पोषणे-भावे क्त। धनसमृद्धौ। (च)। समुच्चये। अवधारणे। (पोषे)। अन्नादिवृद्धौ। (रात्रि)। म० २। हे सुखदात्रि। दुःखहर्त्रि, रात्रिरूपे, एकाष्टके प्रकृते (देवानाम्)। विदुषाम्। (सुमतौ)। कल्याण्यां बुद्धौ। (स्याम)। भवेम। (पूर्णा)। पॄ पूर वा पूर्त्तौ-क्त। वा दान्तशान्तपूर्णदस्त०। पा० ७।२।२७। इति इडभावो निपात्यते। पूरिता। (दर्वे)। वृदृभ्यां विन्। उ० ४।५३। इथि दृङ् आदरे, यद्वा, दृ विदारणे-विन्। आद्रियते विदारयतीति वा। हे दुःखदलनशीले। हे चमसरूपे वा। (परा)। प्राधान्ये। त्यागे। विक्रमे। गतौ। भङ्गे। (पत)। पत्लृ गतौ। आगच्छ। (सुपूर्णा)। परिपूर्णा। (पुनः)। बारम्बारम्। (सर्वान्)। सकलान्। (यज्ञान्)। अ० १।९।४। यष्टव्यान् पूज्यान् देवान् दिव्यगुणान्। (सम्भुञ्जती)। भुज पालने-शतृ, ङीप्। सम्यक् पालयन्ती। (इषम्)। इषु इच्छायाम्, गतौ वा-क्विप्। अन्नम्-निघ० २।७। (ऊर्जम्)। आ० २।२९।३। ऊर्ज बलप्राणनयोः-क्विप्। बलम्। पराक्रमम्। (नः)। अस्मभ्यम्। (आ भर)। आनीय धर ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (রাত্রি) হে রাত্রি ! (মা) আমাকে (পুষ্টে চ পোষে চ) পুষ্ট পদার্থে, এবং [তা দ্বারা প্রাপ্ত] পুষ্টিতে (আ) আস্থাপিত করো, যাতে (দেবানাম) দিব্য ব্যক্তিদের (সুমতৌ) সুমতির মধ্যে (স্যাম) আমরা হই/থাকি। (দর্বে) হে কাষ্ঠ দ্বারা নির্মিত স্রুব! (পূর্ণা) পূর্ণ তুমি (পরা পত) অগ্নির দিকে তুমি গিয়ে পতিত হও, তদনন্তর (সুপূর্ণা) এবং অভিমত ফল দ্বারা পূর্ণ হয়ে, পরিপূর্ণ হয়ে (পুনঃ) পুনরায়/আবার (আ পত) আমাদের দিকে এসে পতিত হও। (সর্বান্ যজ্ঞান্) সমস্ত যজ্ঞকে (সংভুঞ্জতী) সম্যক্ সফল করে (নঃ) আমাদের জন্য (ইষ্টম্) অভীষ্ট অন্ন, (চ) এবং (ঊর্জম্) বল ও প্রাণ (আ ভর=আ হর) নিয়ে এসো।

    टिप्पणी

    [রাত্রি হলো সংবৎসরের প্রথমা রাত্রী, যেই রাত্রি থেকে সংবৎসরের প্রারম্ভ হয়। সেই রাত্রিতে সাংবৎসরিক যজ্ঞ করা উচিৎ (মন্ত্র ৫)। এই যজ্ঞে যজ্ঞ কর্তাদের, দিব্য ব্যক্তিদের সুমতি অনুসারে জীবনচর্যা করা উচিৎ। ঘৃত এবং হবি-কে যজ্ঞাগ্নিতে প্রদানের জন্য কাষ্ঠ নির্মিত স্রুব দরকার, যাতে আহুতিগুলো প্রভূতমাত্রায় দেওয়া যেতে পারে, স্রুব-কে সম্পূর্ণরূপে পূর্ণ করে আহুতি দিলে, তার ফলও প্রভূত হবে। সকল যজ্ঞ পূর্ণরূপে পরিপালিত হলে আমাদের অভীষ্ট অন্ন ও তা দ্বারা বল এবং প্রাণশক্তির প্রাপ্তি হবে। ঊর্জ বলপ্রাণনয়োঃ (চুরাদিঃ)। ভুঞ্জতী=ভুজ পালনে (রুধাদিঃ), ভোজন দ্বারা পালন হয়। যজ্ঞ এবং যজ্ঞিয়াগ্নির সমুচিত ভোজন পেলেই তা পরিপালিত হবে।]

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    मन्त्र विषय

    পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্

    भाषार्थ

    (রাত্রি) হে সুখদাত্রী বা দুঃখহর্ত্রী, বা রাত্রীরূপ [প্রকৃতি] (পুষ্টে) ধন-সম্পদের সমৃদ্ধি (চ) এবং (পোষে) অন্নাদির বৃদ্ধিতে (চ) নিশ্চিতরূপে (মা) আমাকে (আ=আ ভর) পূরিত/পূর্ণ করো, [যাতে] (দেবানাম্) দেবতাদের (সুমতৌ) সুমতিতে (স্যাম) আমরা থাকি। (দর্বে) হে দুঃখ দমনকারী ! [বা চমসারূপ !] (পূর্ণা) পূর্ণ হয়ে (পরাপত) উপরে এসো এবং (পুনঃ) বার-বার (সুপূর্ণা) উত্তমরূপে পরিপূর্ণ হয়ে (আ পত) কাছে এসো ! (সর্বান্) সকল (যজ্ঞান্) পূজনীয় গুণের (সম্ভুঞ্জতী) সঠিকভাবে পালন করে তুমি (ইষম্) অন্ন এবং (ঊর্জম্) বল (নঃ) আমাদের প্রতি (আ ভর) নিয়ে এসে পূর্ণ করো ॥৭॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সৃষ্টির পদার্থ-সমূহের গুণ সাক্ষাৎ করে/জেনে যত অগ্রগামী হয়, ততই সে ধনী এবং বলশালী হয়ে দেবতাদের প্রিয় হয় এবং আনন্দ ভোগ করে ॥৭॥ ‘পূর্ণা দর্বে.... পুনরাপত’ এই ভাগ যজুর্বেদ অ০ ৩।৪৯ এ রয়েছে, সেখানে ‘দর্বে’ এর স্থানে ‘দর্বি’ পদ আছে ॥

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