अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - गोष्ठः, अहः, अर्यमा, पूषा, बृहस्पतिः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गोष्ठ सूक्त
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सं वः॑ सृजत्वर्य॒मा सं पू॒षा सं बृह॒स्पतिः॑। समिन्द्रो॒ यो ध॑नंज॒यो मयि॑ पुष्यत॒ यद्वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । व॒: । सृ॒ज॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । सम् । पू॒षा । सम् । बृह॒स्पति॑: । सम् । इन्द्र॑: । य: । ध॒न॒म्ऽज॒य: । मयि॑ । पु॒ष्य॒त॒ । यत् । वसु॑ ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं वः सृजत्वर्यमा सं पूषा सं बृहस्पतिः। समिन्द्रो यो धनंजयो मयि पुष्यत यद्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । व: । सृजतु । अर्यमा । सम् । पूषा । सम् । बृहस्पति: । सम् । इन्द्र: । य: । धनम्ऽजय: । मयि । पुष्यत । यत् । वसु ॥१४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गोरक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(वः) तुमको (अर्यमा) अरि अर्थात् हिंसकों का नियामक [गोपाल] (सम्) मिलाकर (पूषा) पोषण करनेवाला [गृहपति] (सम्) मिलाकर और (बृहस्पतिः) बड़े-बड़ों का रक्षक [विद्वान् वैद्यादि पुरुष] (सम्) मिलाकर और (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा, (यः धनंजयः) जो धनों का जीतनेवाला है, (सम् सृजतु) मिलाकर रक्खे। (मयि) मुझमें (यत्) पूजनीय (वसु) धन को (पुष्यत) तुम पुष्ट करो ॥२॥
भावार्थ
सब प्रजागण और प्रजापालक राजा राजनियम से गौओं की वृद्धि करें जिससे कृषि, व्यापारादि द्वारा संसार में धन बढ़े ॥२॥
टिप्पणी
२−(वः)। युष्मान्। (सं सृजतु)। संयोज्य पालयतु। (अर्यमा)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति ऋ हिंसायाम्-विच्। पुगन्तलघूपधस्य च। पा० ७।३।८६। इति गुणः। ऋणोति हिनस्तीति अर् अरिः। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्क्लेदन्स्नेहन्मज्जन्मूर्धन्नर्यमन्०। उ० १।१५९। इति अर्+यम नियमे-कनिन्। अर्यमादित्योऽरीन्नियच्छतीति-निरु० ११।२३। अराम् अरीणां हिंसकानां नियामकः। गोपालः। (पूषा)। अ० १।९।१। पुष पुष्टौ-कनिन्। पोषकः। गृहपतिः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। बृहतां वेदादिशास्त्राणां पालकः। वैद्यादिविद्वान् पुरुषः। (इन्द्रः)। परमैश्वर्यवान् राजा। (धनंजयः)। संज्ञायां भृतॄवृजिधा०। पा० ३।२।४६। इति धन+जि जये खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम्। धनानां जेता। (पुष्यत)। पोषयत। वर्धयत। (यत्)। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज पूजायाम्-अदि, स च डित्। यजनीयं पूजनीयम्। (वसु)। धनम् ॥
विषय
'अर्यमा, पूषा, बृहस्पति, इन्द्र'
पदार्थ
१. हे गौओ! (अर्यमा) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नियमन करनेवाला (वः) = तुम्हें (संसृजतु) = अपने साथ संसृष्ट करे। गोदुग्ध के प्रयोग से सात्त्विक वृत्तिवाला बनकर यह काम, क्रोध आदि को वश में करनेवाला बनता है। (पूषा) = अपना पोषण करनेवाला (सम्) = इन गौओं को अपने साथ संसृष्ट करे। गोदुग्ध शरीर का उत्तम पोषण करनेवाला है। (बृहस्पति:) = ज्ञानियों का भी ज्ञानी (सम्) = तुम्हें अपने साथ जोड़े। गोदुग्ध से सात्विक बुद्धि होती है। इसप्रकार यह गोदुग्ध हमें शरीर के दृष्टिकोण से 'पूषा', मन के दृष्टिकोण से 'अर्यमा' व मस्तिष्क के दृष्टिकोण से बृहस्पति बनता है। २. (यः) = जो (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (धनञ्जयः) = धनों का विजय करनेवाला है वह (सम्) = इन गौओं को अपने साथ संसृष्ट करे, अर्थात् गोदुग्ध हमें 'धनञ्जय इन्द्र' बनने में सहायक होता है। हे गौओ! तुम (यत् वसु) = जो भी वसु है, निवास के लिए आवश्यक धन है, उसे (मयि पुष्यत) = मुझमें पोषित करो। गोदुग्ध मुझे सब वसुओं को प्राप्त करानेवाला हो।
भावार्थ
गोदुग्ध का प्रयोग हमें 'अर्यमा, पूषा, बृहस्पति व इन्द्र' बनाता है। यह हमारे जीवन में वसुओं का पोषण करता है। गौ को अर्थवेद ७.७३.८ में 'वसुपत्नी वसूनाम्' कहा गया है।
भाषार्थ
[हे गौओ!] (व:) तुम्हारा (सं सृजतु) संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १] (अर्यमा) राष्ट्र का न्यायाधीश (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (पूषा) राष्ट्र के पोषण का अधिकारी, (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे (बृहस्पतिः) बृहती-वेदवाणी का अर्थात् धर्म शिक्षा का अधिकारी। (यः) जो (धनंजयः) धनाधिपति (इन्द्रः) सम्राट् है वह (सम्) तुम्हारा संसर्ग करे [शुद्ध उदक आदि के साथ, मन्त्र १], (मयि) ताकि मुझ [प्रत्येक राष्ट्रवासी] में, (पुष्यत) हे गौओ! परिपुष्ट करो (यद्) जो कि (वसु) क्षीरघृतादि तुम्हारी सम्पत्ति है।
टिप्पणी
[जैसे राष्ट्र की मनुष्यप्रजा के खाद्य-पेय तथा सुरक्षा के लिए नियम होते हैं, वैसे राष्ट्र के अधिकारी, गौ आदि पशु प्रजा के लिए भी नियम बनाएँ-यह अभिप्राय है।]
विषय
गौओं और प्रजाओं की वृद्धि का उपदेश ।
भावार्थ
हे प्रजाओ और गौओ ! (वः) तुम को (अर्यमा) न्यायाधीश, स्वाभी (सं सृजतु) पालन करे, बढ़ावे। (पूषा) भागधुक्=करसंग्राहक नामक अधिकारी और (बृहस्पतिः) विद्वान् पुरोहित और (इन्द्रः) इन्द्र, सेनापति (यः धनंजयः) जो शत्रुओं से धन को विजय करके लावे वह भी (सं, सं, सं, सम्) तुम्हें पालन करे तुम लोग (मयि) मुझ राजा के (यद् वसु) सब प्रकार के धन धान्य सामर्थ्य को (सं पुष्यत) पुष्ट करो ।
टिप्पणी
(च०) ‘मयि पुष्यतु’ इति लेन्मेन कामितः पाठः । ‘इह पुष्यति’ इति पेप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । गावो देवताः उत गोष्ठो देवता। १, ६ अनुष्टुभः । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । षडृर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Cows and Cow Development
Meaning
Let Aryama, the sun, help you grow. Let natural nourishment help you grow. Let Brhaspati, the vast space, help you grow. Let Indra and Dhananjaya, natural energy and prana energy help you grow. Bring to me and let me grow with the wealth of nature and gifts of the cow.
Translation
May the ordainēr Lord make you procreate, may the nourisher Lord, may the Lord supreme,and may the resplendent one , winner of wealth, make you procreate. May you, O cows, nourish me with your richness of milk.
Translation
Let the Sun give them Strength, let the Productive force of nature nourish them, let the cloud foster them, let the all-pervading electricity bring them vigor and let the vital breath keep them safe. Let these cows strengthen our Prosperity.
Translation
May the cowherd, the domestic lord, the learned, veterinary doctor and the king, thewinner of wealth, rear ye. Be nourished under my care, you are a nice wealth.
Footnote
Ye: cows.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(वः)। युष्मान्। (सं सृजतु)। संयोज्य पालयतु। (अर्यमा)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति ऋ हिंसायाम्-विच्। पुगन्तलघूपधस्य च। पा० ७।३।८६। इति गुणः। ऋणोति हिनस्तीति अर् अरिः। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्क्लेदन्स्नेहन्मज्जन्मूर्धन्नर्यमन्०। उ० १।१५९। इति अर्+यम नियमे-कनिन्। अर्यमादित्योऽरीन्नियच्छतीति-निरु० ११।२३। अराम् अरीणां हिंसकानां नियामकः। गोपालः। (पूषा)। अ० १।९।१। पुष पुष्टौ-कनिन्। पोषकः। गृहपतिः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। बृहतां वेदादिशास्त्राणां पालकः। वैद्यादिविद्वान् पुरुषः। (इन्द्रः)। परमैश्वर्यवान् राजा। (धनंजयः)। संज्ञायां भृतॄवृजिधा०। पा० ३।२।४६। इति धन+जि जये खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम्। धनानां जेता। (पुष्यत)। पोषयत। वर्धयत। (यत्)। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज पूजायाम्-अदि, स च डित्। यजनीयं पूजनीयम्। (वसु)। धनम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[হে গাভী-সমূহ!] (বঃ) তোমাদের (সং সৃজতু) সংসর্গ করুক (অর্যমা) রাষ্ট্রের ন্যায়াধীশ (সম্) তোমাদের সাথে সংসর্গ করুক (পূষা) রাষ্ট্রের পোষনের অধিকারী, (সম্) তোমার সংসর্গ করুক (বৃহস্পতিঃ) বৃহতী-বেদবাণীর অর্থাৎ ধর্ম শিক্ষার অধিকারী। (যঃ) যে (ধনংজয়ঃ) ধনাধিপতি (ইন্দ্রঃ) সম্রাট্, সে (সম্) তোমাদের সংসর্গ করাবে/করুক [শুদ্ধ উদক আদির সাথে, মন্ত্র ১]। (ময়ি) আমার [প্রত্যেক রাষ্ট্রবাসীর] মধ্যে, (পুষ্যত) হে গাভী-সমূহ! পরিপুষ্ট করো (যদ্) যা (বসু) ক্ষীর-ঘৃতাদি তোমাদের সম্পত্তি।
टिप्पणी
[যেমন রাষ্ট্রের মনুষ্যপ্রজার খাদ্য-পানীয় এবং সুরক্ষার জন্য নিয়ম হয়/থাকে, তেমনই রাষ্ট্রের অধিকারী, গাভী আদি পশু প্রজার জন্যেও নিয়ম তৈরি করুক—এই অভিপ্রায়।]
मन्त्र विषय
গোরক্ষোপদেশঃ
भाषार्थ
(বঃ) তোমাদের (অর্যমা) অরি অর্থাৎ হিংসকদের নিয়ামক [গোপাল] (সম্) সংযুক্ত/সম্বন্ধযুক্ত করে (পূষা) পোষণকারী [গৃহপতি] (সম্) সংযুক্ত/সম্বন্ধযুক্ত করে এবং (বৃহস্পতিঃ) বৃহৎ-মহৎদের রক্ষক [বিদ্বান্ বৈদ্যাদি পুরুষ] (সম্) সংযুক্ত/সম্বন্ধযুক্ত করে এবং (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যশালী রাজা, (যঃ ধনংজয়ঃ) যে ধন-সম্পদ জয় করে, (সম্ সৃজতু) সংযুক্ত/সম্বন্ধযুক্ত করে রাখি। (ময়ি) আমার মধ্যে (যৎ) পূজনীয় (বসু) ধন (পুষ্যত) তোমরা পুষ্ট করো ॥২॥
भावार्थ
সমস্ত প্রজাগণ ও প্রজাপালক রাজা রাজনিয়মে গাভীর বৃদ্ধি করুক যাতে কৃষি, বাণিজ্য দ্বারা সংসারে ধন-সম্পদের বৃদ্ধি হয় ॥২॥
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