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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, गोष्ठः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गोष्ठ सूक्त
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    शि॒वो वो॑ गो॒ष्ठो भ॑वतु शारि॒शाके॑व पुष्यत। इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मया॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒व: । व॒: । गो॒ऽस्थ: । भ॒व॒तु॒ । शा॒रि॒शाका॑ऽइव । पु॒ष्य॒त॒ । इ॒ह । ए॒व । उ॒त । प्र । जा॒य॒ध्व॒म् । मया॑ । व॒: । सम् । सृ॒जा॒म॒सि॒ ॥१४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवो वो गोष्ठो भवतु शारिशाकेव पुष्यत। इहैवोत प्र जायध्वं मया वः सं सृजामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिव: । व: । गोऽस्थ: । भवतु । शारिशाकाऽइव । पुष्यत । इह । एव । उत । प्र । जायध्वम् । मया । व: । सम् । सृजामसि ॥१४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गोरक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला (शिवः) मङ्गलदायक (भवतु) होवे। (शारिशाका इव) शालि [साठी चावल] की शाखा [उपज] के समान (पुष्यत) पोषण करो। (उत) और (इह एव) यहाँ ही (प्रजायध्वम्) बच्चों से बढ़ो। (मया=अस्माभिः) अपने साथ (वः) तुमको (संसृजामसि=०−मः) हम मिलाकर रखते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे ‘शारि, शालि’ साठी चावल की शालि ‘शाका’ थोड़े प्रयत्न से साठ दिन में ही पक जाती है, वैसे ही मनुष्य यत्नपूर्वक थोड़े परिश्रम से पालन करके गौओं से दूध, घी और खेती के लिये बैल आदि पाकर बहुत लाभ उठाते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(शिवः) सुखकरः। (वः)। युष्माकम्। (गोष्ठः)। गोशालः। (शारिशाका)। जनिघसिभ्यामिण्। उ० ४।१३०। इति शल गतौ-इञ्। लस्य रत्वम्। शल्यते प्राप्यतेऽसौ शालिः। षष्टिकादिधान्यम्। शक सामर्थ्ये घञ्, टाप्। शक्नोति कर्षको यया सा शाका, साखा, इति भाषा। अन्नोत्पत्तिः। (पुष्यत)। पोषयत। (मया)। एकवचनं बहुवचने। (अस्माभिः)। अन्यद् व्याख्यातं म० ४, १ ॥

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    विषय

    शिवः गोष्ठः

    पदार्थ

    १. हे गौओ! (गोष्ठ:) = यह गोशाला (व:) = तुम्हारे लिए (शिवः भवतु) = कल्याणकर हो। इसमें स्थित हुई-हुई तुम (शारिशाका इव) = शालिधान्य की शक्ति की भाँति (पुष्यत) = हमारा पोषण करनेवाली होओ। जैसे यह धान्य हमारे रोगों को शीर्ण करता हुआ हमारी शक्ति का वर्धन करता है, उसी प्रकार ये गौएँ अपने दूध से हमारा पोषण करें। २. (उत) = और हे गौओ! (इह एव) = यहाँ ही (प्रजायध्यम) = सन्तानों से वृद्धि को प्राप्त होओ। हम (मया) = अपने साथ (व:) = तुम्हें (संसृजामसि) = संसृष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    गौओं के लिए गोष्ठ सुखद हो। इस गोष्ठ में स्थित गौएँ शालिधान्य की शक्ति की भाँति हमें शक्ति प्राप्त करानेवाली हों। इन बढ़ती हुई गौओं का हमारे साथ सम्बन्ध हो।

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    भाषार्थ

    [हे गौओ!] (गोष्ठः) गोशाला (व:) तुम्हारे लिए (शिव:) सुखकारी (भवतु) हो, (शारिशाकेव१) मैना और [शाका] शुक अर्थात् तोते के सदृश (पुष्यत) गोशाला में परिपुष्ट होओ। (उत) तथा (इह एव) इस गोशाला में ही (प्रजायध्वम्) तुम सन्ताने उत्पन्न करो, (वः) तुम्हारा (मया) मेरे अर्थात् अपने साथ (सं सृजामसि) मैं संसर्ग करता हूँ। [मन्त्र ४ में शका पाठ है, शाका पाठ नहीं।]

    टिप्पणी

    [शारि:=A bird called sarika (आप्टे)। शारि अर्थात् सारिका स्त्रीलिङ्गी पद है, अत: सम्भवतः मैना-पक्षिणी है। शाका=शुकः, तोता?। इस सम्बन्ध में कहा है कि "आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः", सारिका पंजरस्था (आप्टे) अर्थात् अपने मुखदोष के कारण शुक और सारिका बाँधे जाते हैं। सारिका है पिञ्जरे में स्थित। मुखदोष है मनुष्य के सदृश बोलना। शुक और शारि [सारिका] दोनों मनुष्य के सदृश बोल सकते हैं। सृजामसि=सृजामि मैना और शुक का परिपोषण गृहस्थी प्रायः प्रेम से करते हैं, इसी प्रकार गौओं का परिपोषण भी प्रेमपूर्वक करना चाहिए,—यह सूचित किया है।] [१. शारिशाकेव=शारि है शकुनिः, अर्थात् पक्षिणी (दशपाद्युणादिवृत्तिः १।५६)। तथा शारि: पक्षी (उणा० ४।१२९, दयानन्द)। शारि के सहयोग द्वारा शाका भी पक्षिणी प्रतीत होती है, सम्भवत: मैना। "शुकशारिकम्" भी पाठ है (उणा० ४।१२९, दयानन्द)। इस द्वन्द्व समास द्वारा शाका पद शुक अर्थात् तोता या तोती अर्थ सूचित करता है।]

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    विषय

    गौओं और प्रजाओं की वृद्धि का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे गौवो ! (वः) तुम्हारे लिये (गोष्ठः) यह गोशाला (शिवः) कल्याणकारी (भवतु) होवे । और तुम (शारिशाका इव) मधुमक्षियों के समान (पुष्यत) वृद्धि को प्राप्त होओ । (उत) और (इह एव) यहां ही (प्रजायध्वं) प्रजा आदि उत्पन्न करो । (वः) आपको मैं (मया) अपने से (सं सृजामसि) और भी सम्बद्ध करता हूं। राजा का प्रजा के प्रति वचन भी स्पष्ट है ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘शारिशाका श्व’ इति पैप्प० सं०। ‘शारिः शाका इव’ इति रोथकामितः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । गावो देवताः उत गोष्ठो देवता। १, ६ अनुष्टुभः । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । षडृर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cows and Cow Development

    Meaning

    Let this stall be good for you. Grow here like honey bees. And breed here itself. With me myself like a head of family, we develop the cow wealth of the nation.

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    Translation

    May this cow-stall be auspicious for you. Let you flourish like cultivated rice. May you procreate and multiply herē. We provide you with happiness. (Sārišākā = an animal unidentified (Sāyaņa);, since sali means rice also it may be cultivated - rice - Griffith)

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    Translation

    Let the stable be the abode of happiness for the cows. Let them grow there like the bees, May they multiply their progeny and may we domesticate them.

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    Translation

    Auspicious be this stall to you. Prosper like cultivated rice. Even here increase and multiply. I take you with me for roaming.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(शिवः) सुखकरः। (वः)। युष्माकम्। (गोष्ठः)। गोशालः। (शारिशाका)। जनिघसिभ्यामिण्। उ० ४।१३०। इति शल गतौ-इञ्। लस्य रत्वम्। शल्यते प्राप्यतेऽसौ शालिः। षष्टिकादिधान्यम्। शक सामर्थ्ये घञ्, टाप्। शक्नोति कर्षको यया सा शाका, साखा, इति भाषा। अन्नोत्पत्तिः। (पुष्यत)। पोषयत। (मया)। एकवचनं बहुवचने। (अस्माभिः)। अन्यद् व्याख्यातं म० ४, १ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    [হে গাভী-সমূহ !] (গোষ্ঠঃ) গোশালা (বঃ) তোমাদের জন্য (শিবঃ) সুখকারী (ভবতু) হোক, (শারিশাকেব১) ময়না ও [শাকা] শুক অর্থাৎ তোতাপাখির সদৃশ (পুষ্যত) গো-শালাতেই পরিপুষ্ট হও। (উত) এবং (ইহ এব) এই গো-শালাতেই (প্রজায়ধ্বম্) তোমরা সন্তানদের উৎপন্ন করো, (বঃ) তোমাদের (ময়া) আমার অর্থাৎ নিজের সাথে (সং সৃজামসি) আমি সংসর্গ করি। [মন্ত্র ৪ এ শকা পাঠ আছে, শাকা পাঠ নয়।]

    टिप्पणी

    [শারিঃ= A bird called sarika (আপ্টে)। শারি অর্থাত সারিকা স্ত্রীলিঙ্গ পদ, অতঃ সম্ভবত ময়না-হলো পক্ষিণী। শাকা=শুকঃ, তোতা?। এই সম্বন্ধে বলা হয়েছে "আত্মনো মুখদোষেণ বধ্যন্তে শুকসারিকাঃ", সারিকা পংজরস্থা (আপ্টে) অর্থাৎ নিজের মুখদোষের কারণে শুক ও সারিকা বন্ধনে পড়ে যায়। সারিকা হলো পিঞ্জরে স্থিত। মুখদোষ হলো মনুষ্যের সদৃশ বলা। শুক ও শারি [সারিকা] উভয়েই মনুষ্যের সদৃশ কথা বলতে পারে। সৃজামসি=সৃজামি। ময়না ও শুক-এর পরিপোষণ/পালন-পোষণ গৃহস্থী প্রায়ঃ প্রেমপূর্বক করে, এইভাবে গোরুর পরিপোষণও প্রেমপূর্বক করা উচিৎ– এটি সূচিত হয়েছে।] [১. শারিশাকেব=শারি হলো শকুনিঃ, অর্থাৎ পক্ষিণী (দশপাদ্যুণাদিবৃত্তিঃ ১।৫৬)। এবং শারিঃ পক্ষী (উণা০ ৪।১২৯, দয়ানন্দ)। শারির সহযোগ দ্বারা শাকাও পক্ষিণী প্রতীত হয়, সম্ভবতঃ ময়না। "শুকশারিকম্" ও পাঠ আছে (উণা০ ৪।১২৯, দয়ানন্দ)। এই দ্বন্দ্ব সমাস দ্বারা শাকা পদ শুক অর্থাৎ তোতা বা তোতী অর্থ সূচিত করে।]

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    मन्त्र विषय

    গোরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বঃ) তোমাদের (গোষ্ঠঃ) গো-শালা (শিবঃ) মঙ্গলদায়ক (ভবতু) হোক। (শারিশাকা ইব) শালি [সাঠী চাল/ষাট দিনের উৎপন্ন চাল] এর শাখা [উৎপাদ] এর সমান (পুষ্যত) পোষণ/পরিপুষ্ট করো। (উত) এবং (ইহ এব) এখানেই (প্রজায়ধ্বম্) সন্তানদের সাথে বৃদ্ধি/বর্ধিত/সমৃদ্ধ হও। (ময়া=অস্মাভিঃ) নিজেদের সাথে (বঃ) তোমাদের (সংসৃজামসি=০−মঃ) আমরা সংযুক্ত করে রাখি ॥৫॥

    भावार्थ

    যেভাবে ‘শারি, শালি’ সাঠী চাল এর সাখা ‘শাকা’ সামান্য প্রচেষ্টাতেই ষাট দিনেই পরিপক্ক হয়ে যায়, তেমনই মনুষ্য যত্নপূর্বক সামান্য পরিশ্রম দ্বারা পালন করে গাভীর থেকে দুধ, ঘী ও কৃষির জন্য বলদ আদি প্রাপ্ত করে অনেক লাভ করে।।৫॥

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