अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - दधिक्रावा, अश्वसमूहः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
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सम॑ध्व॒रायो॒षसो॑ नमन्त दधि॒क्रावे॑व॒ शुच॑ये प॒दाय॑। अ॑र्वाची॒नं व॑सु॒विदं॒ भगं॑ मे॒ रथ॑मि॒वाश्वा॑ वा॒जिन॒ आ व॑हन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒ध्व॒राय॑ । उ॒षस॑: । न॒म॒न्त॒ । द॒धि॒क्रावा॑ऽइव । शुच॑ये । प॒दाय॑ । अ॒र्वा॒ची॒नम् । व॒सु॒ऽविद॑म् । भग॑म् । मे॒ । रथ॑म्ऽइव । अश्वा॑: । वा॒जिन॑: । आ । व॒ह॒न्तु॒ ॥१६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
समध्वरायोषसो नमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय। अर्वाचीनं वसुविदं भगं मे रथमिवाश्वा वाजिन आ वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । अध्वराय । उषस: । नमन्त । दधिक्रावाऽइव । शुचये । पदाय । अर्वाचीनम् । वसुऽविदम् । भगम् । मे । रथम्ऽइव । अश्वा: । वाजिन: । आ । वहन्तु ॥१६.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
बुद्धि बढ़ाने के लिये प्रभात गीत।
पदार्थ
(उषसः) उषायें [प्रभात वेलायें] (अध्वराय) मार्ग देने के लिए, अथवा हिंसारहित यज्ञ के लिए (सम् नमन्त=०-न्ते) झुकती हैं, (दधिक्रावा इव) जैसे चढ़ाकर चलनेवाला, वा हींसनेवाला घोड़ा (शुचये) शुद्ध [अचूक] (पदाय) पद रखने के लिये। (वाजिनः) अन्नवान् वा बलवान् वा ज्ञानवान् (अर्वाचीनम्) नवीन नवीन और (वसुविदम्) धन प्राप्त करानेवाले (भगम्) ऐश्वर्य को (मे) मेरे लिये (आ वहन्तु) लावें (अश्वाः इव) जैसे घोड़े (रथम्) रथ को [लाते हैं] ॥६॥
भावार्थ
जैसे उषा देवी अन्धकार हटाकर मार्ग खेलती चलती है अथवा, जैसे बली और वेगवान् घोड़ा अपने अश्ववार वा रथको मार्ग चलकर ठिकाने पर शीघ्र पहुँचाता है, इसी प्रकार पुरुषार्थी पुरुष बड़े-बड़े महात्माओं के सत्सङ्ग और अनुकरण से अपना ऐश्वर्य बढ़ाते रहें ॥६॥ ‘मे’ के स्थान पर ऋग् और यजुर्वेद में ‘नः’ पद है ॥
टिप्पणी
६−(अध्वराय) अ० १।४।१। अध्वन्+रा-क। यद्वा, न+ध्वृ हिंसने-अच्। अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतिर्हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० १।८। मार्गदानाय। अहिंसामयाय व्यवहाराय यज्ञाय। (उषसः) प्रभाताः। (सं नमन्त) छान्दसो लट्। संनमन्ते। प्रह्वीभवन्ति। (दधिक्रावा) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः-कि, स च लिड्वत्। इति दधिः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति दधि+क्रमु, पादविक्षेपे वा क्रदि आह्वाने, क्रन्द सातत्यशब्दे-वनिप्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। दधिक्रावा=अश्वः-निघ० १।१४। दधत् क्रामतीति वा दधत् क्रन्दतीति वा दधदाकारी भवतीति वा-निरु० २।२७। दधिः, धारयिता सन् क्रामतीति वा क्रन्दतीति वा दधिक्रावा। दधिक्राः। अश्वः। (शुचये) शुद्धाय। प्रमादशून्याय। (पदाय) गमनाय। (अर्वाचीनम्) अर्वाच्-ख। इदानीन्तनम्। नूतनम्। (वसुविदम्) इगुपध०। पा० ३।१।१३५। इति वसु+विद लाभे-क। धनानां लम्भकं प्रापकम्। (भगम्) ऐश्वर्यम्। (मे) मह्यम्। (रथमिव) हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२। इति रमु क्रीडने-क्थन्। यानं यथा। (अश्वाः) घोटाः। (वाजिनः) वज गतौ-घञ्। वाजः=अन्नम्, निघ० २।७। बलम्, निघ० २।९। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति इनि। अन्नवन्तः। बलवन्तः। ज्ञानवन्तः। (आ वहन्तु) आगमयन्तु ॥
विषय
यज्ञ व ध्यान
पदार्थ
१. (उषस:) = उषाकाल (अध्वराय) = यज्ञ के लिए (संनमन्त) = संगत हो, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (दधिक्रावा) = [दधत् क्रामति] धारण करते हुए गति करनेवाले प्रभु (शुचये पदाय) = हृदयरूप पवित्र स्थान के लिए संगत होते हैं, अर्थात् उषाकालों में ध्यान द्वारा हृदयों को पवित्र बनाते हुए प्रभु दर्शन करें और यज्ञादि उत्तम कमों में प्रवृत्त हों। २. (वाजिनः) = शक्तिशाली घोड़े (इव) = जिस प्रकार (रथम्) = रथ को लक्ष्य पर पहुंचाते हैं, उसी प्रकार (न:) = हमारे लिए (अश्वा:) = ये इन्द्रिय-अश्व उस (भगम्) = ऐश्वर्य के पुञ्ज (वसुविदम्) = सब धनों को प्राप्त करानेवाले, (अर्वाचीनम्) = [अर्वाग् अञ्चति] हमारे हृदयों में गति करनेवाले प्रभु को मे मुझे हमें आवहन्तु-प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
हम उषाकाल में उठकर यज्ञ करें, प्रभु-उपासना से प्रभु-दर्शन करें। हमारी इन्द्रियाँ हमें प्रभु की ओर ले-चलें।
भाषार्थ
(अध्वराय) हिंसारहित यज्ञ के लिए (उषसः) उपाएँ (सम् नमन्त) सन्नत होती हैं, प्रह्वीभूत होती हैं, झुकती हैं, (इव) जैसेकि (शुचये पदाय) शुद्ध पवित्र स्थान के लिए (दधिक्रावा) आदित्य झुकता है। उषाएँ (मे) मेरे लिए (वसुविदम्) वसुओं को प्राप्त करानेवाले (भगम्) भजनीय परमेश्वर को (अर्वाचीनम्) मेरी ओर (आ वहन्तु) प्राप्त कराएं, (इव) जैसेकि (वाजिनः अश्वाः) वेगवाले अश्व (रथम्) रथ को (आ वहन्तु) हमारे अभिमुख प्राप्त कराते हैं।
टिप्पणी
[अध्वराय=ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (निरुक्त १।३।८)। दधिक्रावा है आदित्यः, "दधत् क्रामतीति वा" (निरुक्त २।७।२७), अर्थात् जो सौरलोक का "धारण" करता हुआ "पादविक्षेप” करता है; क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। आदित्य की रश्मियों का प्रसार है पादविक्षेप। शुचिपद है द्युलोक, आदित्य उदित हुआ लोक में रश्मियों का विक्षेप करता है। निरुक्त में "दधिक्राः" पद की व्याख्या की है और अथर्व में दधिक्रावा पद पठित है। दोनों का अर्थ समान है। अध्वर के लिए उप:काल तथा आदित्यकाल दोनों उपयुक्त हैं, रात्रीकाल में अध्वर या यज्ञ नहीं होते।]
विषय
नित्य प्रातः ईश्वरस्तुति का उपदेश ।
भावार्थ
उषो देवता । (उषसः) विशोका प्रज्ञाएं, प्रातःकाल की उषाओं के समान (अध्वराय) ब्रह्मयज्ञ के लिये उसी प्रकार (सम् नमन्त) प्रकट होती हैं जिस प्रकार (दधिक्रावा) निरन्तर ध्यान धारणा करने हारा योगाभ्यासी (शुचये पदाय) शुद्ध, ज्योतिर्मय, परम पद ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये कटिबद्ध होता है । (रथमिव वाजिनः अश्वाः) जिस प्रकार वेगवान् अश्व रथ को ऐसे देश में ले जाते हैं जहां बहुत धन आदि प्राप्त हों, ठीक उसी प्रकार (वाजिनः) ज्ञानसम्पन्न उषाएं = पापदाहिका ज्योतिष्मती प्रज्ञाएं (मे) मेरे अणिमादि योगशक्तियों से सम्पन्न (रथं) ईश्वर में रत आत्मा को (अर्वाचीनं) साक्षात् (वसुविदं) आवासयोग्य, शरण के देने हारे (भगम्) परमब्रह्म के प्रति (आवहन्तु) ले जाय ।
टिप्पणी
(तृ०) ‘भग नो’ इति पाठभेदः, ऋ०, पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । बृहस्पत्यादयो नाना देवताः । १ आर्षी जगती । ४ भुरिक् पंक्तिः । २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(उषसः-अध्वराय सन्नमन्त) उपाएं ब्रह्मयज्ञ और होमयज्ञ के लिए मनुष्यों को झुकाती हैं-प्रवृत्त कराती है (दधिक्रावा-इव शुचये पदाय) जैसे मनुष्य को धारण किये हुए घोड़ा शोभमान प्राप्त स्थान के लिये प्रवृत्त कराता है (वसुविदं भगं नः) वे उषाएं प्रतिदिन प्रवर्तमान वसु-धन के प्राप्त कराने वाले भजनीय परमात्मा को हमें प्राप्त करावें (अर्वाचीनं रथम्इव वाजिनः-अश्वाः-आवहन्तु) जैसे बलवान् घोड़े प्राप्त रथ को प्राप्तव्य स्थान की ओर समस्त रूप से ले जावें ॥६॥
विशेष
अथर्ववेदानुसार ऋषि:- अथर्वा (स्थिरस्वभाव जन) देवता- लिङ्गोक्ता: (मन्त्रों में कहे गए नाम शब्द) ऋग्वेदानु सार ऋषिः- वसिष्ठ: (अत्यन्तवसने वाला उपासक) देवता- १ मन्त्रे लिङ्गोक्ताः (मन्त्रगत नाम) २–६ भग:- (भजनीय भगवान्) ७ उषाः (कमनीया या प्रकाशमाना प्रातर्वेला) आध्यात्मिक दृष्टि से सूक्त में 'भग' देव की प्रधानता है बहुत पाठ होने से तथा 'भग एव भगवान्' (५) मन्त्र में कहने से, भगवान् ही भिन्न-भिन्न नामों से भजनीय है। तथा व्यावहारिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं व्यवहार में भिन्न-भिन्न रूप में उपयुक्त होने से।
इंग्लिश (4)
Subject
Morning Prayer
Meaning
The lights of the dawn, inspired and inspiring to silence and prayer, advancing like the sun’s golden chariot for the performance of yajnic acts of love and creation, may, we pray, bring us the most modern treasures of honour and prosperity just like fastest horses flying chariot-loads of a hero’s trophies of victory.
Translation
May the dawns come to bless our worship with the speed of cyclone (dadhikrau) moving to its target. As strong steeds draw a chariot, may they (these dawns) bring me hitherward grace, the bestower of prosperity. (Cf. Rv. VII.41.6)
Translation
The dawns appear fixedly for purpose of our prayer and performance of Yajna like a horse which carefully fixes its hoops for unmistakable galloping. The men of wisdom lead us towards God who is the object of adoration and the shelter of all, as the horses draw nicely fashioned chariot.
Translation
The Dawns incline to our non-violent sacrifice, just as a yogi resolves to visualize God. Just as swift steeds take a chariot afar, so may wise judgements, equipped with my yogic powers, take the soul devoted to God, directly to the Almighty Father, the Afforder of shelter.
Footnote
Griffith considers Dadhikrava as a mystical being. He is described as a kind of divine horse. This interpretation is illogical, as there is no history in the Vedas. The word means a yogi.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अध्वराय) अ० १।४।१। अध्वन्+रा-क। यद्वा, न+ध्वृ हिंसने-अच्। अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतिर्हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० १।८। मार्गदानाय। अहिंसामयाय व्यवहाराय यज्ञाय। (उषसः) प्रभाताः। (सं नमन्त) छान्दसो लट्। संनमन्ते। प्रह्वीभवन्ति। (दधिक्रावा) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः-कि, स च लिड्वत्। इति दधिः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति दधि+क्रमु, पादविक्षेपे वा क्रदि आह्वाने, क्रन्द सातत्यशब्दे-वनिप्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। दधिक्रावा=अश्वः-निघ० १।१४। दधत् क्रामतीति वा दधत् क्रन्दतीति वा दधदाकारी भवतीति वा-निरु० २।२७। दधिः, धारयिता सन् क्रामतीति वा क्रन्दतीति वा दधिक्रावा। दधिक्राः। अश्वः। (शुचये) शुद्धाय। प्रमादशून्याय। (पदाय) गमनाय। (अर्वाचीनम्) अर्वाच्-ख। इदानीन्तनम्। नूतनम्। (वसुविदम्) इगुपध०। पा० ३।१।१३५। इति वसु+विद लाभे-क। धनानां लम्भकं प्रापकम्। (भगम्) ऐश्वर्यम्। (मे) मह्यम्। (रथमिव) हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२। इति रमु क्रीडने-क्थन्। यानं यथा। (अश्वाः) घोटाः। (वाजिनः) वज गतौ-घञ्। वाजः=अन्नम्, निघ० २।७। बलम्, निघ० २।९। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति इनि। अन्नवन्तः। बलवन्तः। ज्ञानवन्तः। (आ वहन्तु) आगमयन्तु ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অধ্বরায়) হিংসারহিত যজ্ঞের জন্য (উষসঃ) ঊষা-সমূহ (সম্ নমন্ত) সন্নত হয়, প্রহ্বীভূত হয়, নত হয়, (ইব) যেমন (শুচয়ে পদায়) শুদ্ধ-পবিত্র স্থানের জন্য (দধিক্রাবা) আদিত্য নত হয়। ঊষা-সমূহ (মে) আমার জন্য (বসুবিদম্) বসু প্রাপ্ত করার ক্ষেত্রে সহায়তাকারী (ভগম্) ভজনীয় পরমেশ্বরকে (অর্বাচীনম্) আমার দিকে (আ বহন্তু) নিয়ে আসুক, (ইব) যেমন (বাজিনঃ অশ্বাঃ) বেগবান অশ্ব (রথম) রথকে (আ বহন্তু) আমাদের অভিমুখে প্রাপ্ত করায়/নিয়ে আসে।
टिप्पणी
[অধ্বরায় =ধ্বরতি হিংসাকর্মা তৎপ্রতিষেধঃ (নিরুক্ত ১।৩।৮)। দধিক্রাবা হলো আদিত্য; "দধৎ ক্রামতীতি বা" (নিরুক্ত ২।৭।২৭), অর্থাৎ যে সৌরলোকের “ধারণ" করে "পাদবিক্ষেপ" করে; ক্রমু পাদবিক্ষেপে (ভ্বাদিঃ)। আদিত্যের রশ্মির প্রসার হলো পাদবিক্ষেপ। শুচিপদ হলো দ্যুলোক, আদিত্য উদিত হয়ে দ্যুলোকে রশ্মির বিক্ষেপ করে। নিরুক্তে "দধিক্রাঃ" পদের ব্যাখ্যা করা হয়েছে, এবং অথর্ববেদে দধিক্রাবা পদ পঠিত আছে। দুটির অর্থই সমান। অধ্বর-এর জন্য উষাঃকাল ও আদিত্যকাল উভয়ই উপযুক্ত, রাত্রীকালে অধ্বর বা যজ্ঞ হয় না।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধিবর্ধনায় প্রভাতগীতিঃ
भाषार्थ
(উষসঃ) ঊষা-সমূহ [প্রভাত বেলাসমূহ] (অধ্বরায়) মার্গ প্রদানের জন্য, অথবা হিংসারহিত যজ্ঞের জন্য (সম্ নমন্ত=০-ন্তে) নত হয়, (দধিক্রাবা ইব) যেমন আরোহণ করিয়ে গমনকারী, বা ঘোড়া (শুচয়ে) শুদ্ধ [প্রমাদহীন] (পদায়) পদ রাখার জন্য। (বাজিনঃ) অন্নবান্ বা বলবান্ বা জ্ঞানবান্ (অর্বাচীনম্) নবীন নবীন এবং (বসুবিদম্) ধন প্রাপ্ত করার ক্ষেত্রে সহায়তাকারী (ভগম্) ঐশ্বর্যকে (মে) আমার জন্য (আ বহন্তু) নিয়ে আসুক (অশ্বাঃ ইব) যেমন ঘোড়া (রথম্) রথ কে [নিয়ে আসে] ॥৬॥
भावार्थ
যেমন ঊষা দেবী অন্ধকার দূরীভূত/অপসারিত করে মার্গ প্রকাশ করে অথবা, যেমন বলশালী এবং বেগবান্ ঘোড়া নিজের অশ্ববার বা রথকে মার্গের মধ্যে দিয়ে সঠিক জায়গায় শীঘ্র পৌঁছে দেয়, এভাবেই পুরুষার্থী পুরুষ মহত মহাত্মাদের সৎসঙ্গ ও অনুকরণে নিজের ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করতে থাকুক ॥৬॥ ‘মে’ এর স্থানে ঋগ্ ও যজুর্বেদে ‘নঃ’ পদ রয়েছে॥
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