अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
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व्या॑कूतय एषामि॒ताथो॑ चि॒त्तानि॑ मुह्यत। अथो॒ यद॒द्यैषां॑ हृ॒दि तदे॑षां॒ परि॒ निर्ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठवि । आ॒ऽकू॒त॒य॒: । ए॒षा॒म् । इ॒त॒ । अथो॒ इति॑ । चि॒त्तानि॑ । मु॒ह्य॒त॒ । अथो॒ इति॑ । यत् । अ॒द्य । ए॒षा॒म् । हृ॒दि । तत् । ए॒षा॒म् । परि॑ । नि: । ज॒हि॒ ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याकूतय एषामिताथो चित्तानि मुह्यत। अथो यदद्यैषां हृदि तदेषां परि निर्जहि ॥
स्वर रहित पद पाठवि । आऽकूतय: । एषाम् । इत । अथो इति । चित्तानि । मुह्यत । अथो इति । यत् । अद्य । एषाम् । हृदि । तत् । एषाम् । परि । नि: । जहि ॥२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
हे (एषाम्) इन [शत्रुओं] के (आकूतयः) विचारो ! (वि) उलट-पलट होकर (इत) चले जाओ, (अथो) और हे (चित्तानि) इनके चित्तो ! (मुह्यत) व्याकुल हो जाओ। (अथो) और [हे राजन्] (यत्) जो कुछ [मनोरथ] (अद्य) अब (एषाम्) इनके (हृदि) हृदय में है, (एषाम्) इनके (तत्) उस [मनोरथ] को (परि) सर्वथा (निर्जहि) नाश कर दे ॥४॥
भावार्थ
नीतिकुशल राजा दुराचारियों में परस्पर मतभेद करा दे और उनका मनोरथ सिद्ध न होने दे ॥४॥
टिप्पणी
४−(आकूतयः)। म० ३। हे सङ्कल्पाः। मनोरथाः। (एषाम्)। शत्रूणाम्। (वि, इत्)। विरोधेन गच्छत। (अथो)। अपि च। (चित्तानि)। मनांसि। (मुह्यत)। व्याकुलानि भवत। (यत्)। प्रयोजनम्। (अद्य)। इदानीम्। (हृदि)। मनसि। (तत्)। प्रयोजनम्। (परि)। परितः। सर्वतः। (निः)। नितराम्। (जहि)। नाशय ॥
विषय
शत्रु-संकल्प-विनाश
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार ये शत्रु ऐसे घबरा जाएँ कि हे (व्याकृतयः) = बिरुद्ध संकल्पो! तुम (एषाम्) = इन शत्रुओं के मनों को (इत) = प्राप्त होओ। शत्रुपक्ष का कोई व्यक्ति कुछ कहे और कोई कुछ। उनमें मतैक्य न हो। (अथ उ) = और अब (चित्तानि) = हे शत्रुओं के चित्तो! (मुहात) = तुम भी किंकर्तव्यमूढ़ हो जाओ। इनके चित्त इसप्रकार व्याकुल हो जाएँ कि ये कुछ समझ ही न सकें ये किसी निश्चय पर न पहुँच सकें। २. हे इन्द्र! तू इनपर इसप्रकार प्रबल आक्रमण कर कि (अथ उ) = अब निश्चय से (यत्) = जो (अद्य) = आज (एषां हदि) = इनके हृदय में हो (एषाम्) = इनके (तत्) = उस संकल्प को (परिनिर्जहि) = सर्वथा नष्ट कर दे। ये ऐसे घबरा जाएँ कि अपने सारे संकल्पों को भूलकर ये अपने जीवन को बचाने के लिए भाग खड़े हों।
भावार्थ
सेनापति शत्रुओं पर ऐसा प्रबल आक्रमण करे कि उनके युद्ध-विषयक सब संकल्प विलीन हो जाएँ।
भाषार्थ
(व्याकूतयः) हे परस्पर विरुद्ध संकल्पों! (एषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (इत) तुम प्राप्त होओ, (अथो) तथा (चित्तानि) हे शत्रुओं के चित्तों ! (मुह्यत) तुम मोहग्रस्त हो जाओ, कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित हो जाओ। (अथो) तथा (अद्य) आज (यद्) जो (एषाम् हृदि) इन शत्रुओं के हृदय में है, (एषाम्) इन शत्रुओं के (तत्) उस संकल्प को (परि निर्जहि) सर्वथा नष्ट कर दे।
टिप्पणी
[मन्त्र में इन्द्र के प्रति कहा है "निर्जहि"।]
विषय
शत्रु सेना के प्रति सेनापति के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (आकूतयः) दृढ़ संकल्पो ! अर्थात् पराक्रम करने के संकल्पो ! (एषां) इन शत्रुओं से तुम (वि इत) पृथक् हो जाओ (अथो) और इनके (चित्तानि) चित्तों को (मुह्यत) मूढ़ कर दो । (अथो) और (यद्) जो (अद्य) आज (एषां) इनके (हृदि) हृदय में चिन्तित मनोरथ है (तद्) वह भी (एषां) इनका (परि निर्जहि) सब प्रकार से नाश कर ।
टिप्पणी
‘वि आऽकूतयः’—ऐसा पदपाठ होने पर भी ‘व्याकूतयः’ सायण ने एक पद माना है। ‘व्याकूतय’ इत्येकं पदम् सा० भा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । सेनासंमोहनम् । अग्न्यादयो बहवो देवताः । १, ५, ६ त्रिष्टुभः। २-४ अनुष्टुभौ। षडृचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Storm the Enemy
Meaning
Let their plans and strategies be uprooted from here. Let their mind and morale be stupefied and gone astray, and then whatever else now is at their heart, frustrate all that too.
Translation
O determinations ( of our enemies), go away. O minds (of our enemies), be confounded. Also whatever plan they have in their mind today, let you foil that completely.
Translation
Let the firm intentions of motive of these enemies be away from them, let their mind be perplexed and whatever desire they have be frustrated and vanished.
Translation
Vanish, ye hopes and plans of theirs, be ye confounded, all theirthoughts! Whatever wish is in their heart, do thou, O King, expel it utterly.
Footnote
Theirs' refers to enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(आकूतयः)। म० ३। हे सङ्कल्पाः। मनोरथाः। (एषाम्)। शत्रूणाम्। (वि, इत्)। विरोधेन गच्छत। (अथो)। अपि च। (चित्तानि)। मनांसि। (मुह्यत)। व्याकुलानि भवत। (यत्)। प्रयोजनम्। (अद्य)। इदानीम्। (हृदि)। मनसि। (तत्)। प्रयोजनम्। (परि)। परितः। सर्वतः। (निः)। नितराम्। (जहि)। नाशय ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ব্যাকূতয়ঃ) হে পরস্পর বিরুদ্ধ সংকল্প-সমূহ ! (এষাম্) এই শত্রুদের (চিত্তানি) চিত্তকে (ইত) তোমরা প্রাপ্ত হও, (অথো) এবং (চিত্তানি) হে শত্রুদের চিত্ত-সমূহ! (মুহ্যত) তোমরা মোহগ্রস্ত হয়ে যাও, কর্তব্যাকর্তব্যেরর জ্ঞান রহিত হয়ে যাও। (অথো) এবং (অদ্য) আজ (যদ্) যা (এষাম্, হৃদি) এই শত্রুদের হৃদয়ে রয়েছে, (এষাম্) এই শত্রুদের (তৎ) সেই সংকল্পকে (পরি নির্জহি) সর্বথা/সম্পূর্ণরূপে নষ্ট কর দাও।
टिप्पणी
[মন্ত্রে ইন্দ্রের প্রতি বলা হয়েছে "নির্জহি"।]
मन्त्र विषय
সেনাপতিকৃত্যমুপদিশ্যতেঃ
भाषार्थ
হে (এষাম্) এই [শত্রুদের] (আকূতয়ঃ) বিচারসমূহ ! (বি) ব্যাকুল হয়ে (ইত) চলে যাও, (অথো) এবং হে (চিত্তানি) এঁদের চিত্ত! (মুহ্যত) ব্যাকুল হয়ে যাও। (অথো) এবং [হে রাজন্] (যৎ) যা কিছু [মনোরথ] (অদ্য) এখন (এষাম্) এঁদের (হৃদি) হৃদয়ে রয়েছে/বর্তমান, (এষাম্) এঁদের (তৎ) সেই [মনোরথ]কে (পরি) সর্বতোভাবে (নির্জহি) নাশ করো/করে দাও ॥৪॥
भावार्थ
নীতিকুশল রাজা দুরাচারীদের মধ্যে পরস্পর মতভেদ সৃষ্টি করুক এবং এঁদের মনোরথ সিদ্ধ যেন না হতে দেয় ॥৪॥
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