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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
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    अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒स्मानैत्य॒भ्योज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां वि॑ध्यत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथै॑षाम॒न्यो अ॒न्यं न जा॒नात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । या । सेना॑ । म॒रु॒त॒: । परे॑षाम् । अ॒स्मान् । आ॒ऽएति॑ । अ॒भि । ओज॑सा । स्पर्ध॑माना ।ताम् । वि॒ध्य॒त॒ । तम॑सा । अप॑ऽव्रतेन । यथा॑ । ए॒षा॒म् । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । न । जा॒नात् ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ । या । सेना । मरुत: । परेषाम् । अस्मान् । आऽएति । अभि । ओजसा । स्पर्धमाना ।ताम् । विध्यत । तमसा । अपऽव्रतेन । यथा । एषाम् । अन्य: । अन्यम् । न । जानात् ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे शूर पुरुषों ! (परेषाम्) वैरियों की (असौ) वह (या) जो (सेना) सेना (अस्मान्) हम पर (अभि) चारों ओर से (ओजसा) बल के साथ (स्पर्धमाना) ललकारती हुई (आ-एति) चढ़ी आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन) क्रियाहीन कर देनेवाले (तमसा) अन्धकार से (विध्यत) छेद डालो, (यथा) जिससे (एषाम्) इनमें से (अन्यः) कोई (अन्यम्) किसी को (न)(जानात्) जाने ॥६॥

    भावार्थ

    सेनापति अपनी पलटनों को घातस्थानों में इस प्रकार खड़ा करे कि आती हुई शत्रुसेना को रोककर सब नष्ट कर देवें ॥६॥ (मरुतः) शब्द के लिये अ० १।२०।१। देखो ॥ यह मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है−अ॒सौ या सेना॑ मरु॒तः परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ ओज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां गू॑हत तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मी ऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन् ॥ यजु०। १७।४७ ॥ (मरुतः) हे शूरों ! (परेषाम्) वैरियों की (असौ या सेना) वह जो सेना (नः) हमको (अभि) चारों ओर से (ओजसा स्पर्धमाना) बल के साथ ललकारती हुई (आ, एति) चली आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन तमसा) क्रियाहीन कर देनेवाले अन्धकार से (गूहत) ढक दो, (यथा) जिससे (अमी) वे लोग (अन्यः, अन्यम्) एक दूसरे को (न जानन्) न जानें ॥

    टिप्पणी

    ६−(असौ)। परिदृश्यमाना। (वा सेना)। सू० १ म० १। सैन्यम्। (मरुतः)। अ० १।२०।१। हे शत्रुमारणशीलाः। शूराः। (आ-एति)। आगच्छति। (अभि)। सर्वतः। (ओजसा)। बलेन। (स्पर्धमाना)। स्पर्ध संघर्षे-लटः शानच्। संघर्षं युद्धोद्यमं कुर्वाणा। (ताम्)। सेनाम्। (विध्यत)। ताडयत। छिन्त। (तमसा)। अन्धकारेण। (अपव्रतेन)। व्रतं कर्म-निघ० २।१। अपगतकर्मणा। सर्वव्यापारविघातकेन। (यथा)। येन प्रकारेण। (एषाम्)। उपस्थिनां शत्रूणाम्। (अन्यः)। कश्चित्। (अन्यम्)। कमपि। (न)। निषेधे। (जानात्)। ज्ञा अवयोधने-लेट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। जानीयात् ॥

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    विषय

    अँधेरा-ही-अँधेरा

    पदार्थ

    १. (मरुत:) = हे सैनिको! (असौ या) = वह जो (परेषां सेना) = शत्रुओं की सेना (स्पर्धमाना) = हमारे साथ संघर्षण की कामना करती हुई (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (अस्मान् अभि एति) = हमारी ओर आती है (ताम्) = उसे (अपव्रतेन तमसा) = जिसमें कर्मों का सम्भव ही न हो ऐसे अन्धकार से (विध्यत) = बींध डालो। ऐसे बींध डालो (यथा) = जिससे (एषाम्) = इनमें से (अन्यः अन्यम्) = एक दूसरे को (न जानात्) = न जान पाये। इतना घना अन्धकार हो जाए कि शत्रु एक-दूसरे को भी न देख सकें। २. इसप्रकार ये मरुत् प्रबल आक्रमण करें कि शत्रुओं को अन्धकार-ही-अन्धकार प्रतीत हो-उन्हें कुछ दिखे ही नहीं। व्याकुलता के कारण उन्हें अँधेरा-ही-अंधेरा प्रतीत हो।

    भावार्थ

    हमारे सैनिकों का आक्रमण इतना प्रबल हो कि शत्रु-सैन्य को अँधेरा-ही-अँधेरा लगे। वे कुछ भी न देख सकें।

    विशेष

    सम्पूर्ण सूक्त राष्ट्र-रक्षा का वर्णन कर रहा है। अगले सूक्त में राष्ट्ररक्षक राजा के लिए कहते हैं कि -

    सूचना

    यहाँ ऐसे अस्त्र के प्रयोग का भी संकेत है जो चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार कर देता है।

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    भाषार्थ

    (मरुतः)१ मारने में कुशल है सैनिकों ! (परेषाम्) शत्रुओं की (या) जो (असौ) बह (सेना) सेना (ओजसा) बलातिशय के कारण (स्पर्धमाना) स्पर्धा करती हुई (अस्मान् अभि) हमारे अभिमुख (इति) आती है (ताम्) उसे (अपव्रतेन) कर्महीन कर देनेवाले (तमसा) अन्धकारास्त्र द्वारा (विध्यत) बींधो, (यथा) जिस प्रकार कि (एषाम्) इन शत्रुओं के मध्य में (अन्यः) एक सैनिक (अन्यम्) दूसरे निज सैनिक को (न जानात्) न पहचान सकें।

    टिप्पणी

    [मरुतः = मारने में कुशल हमारे सैनिक (यजु० १७।४०)। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१)।] [१. म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा १।९४ दयानन्द)।]

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    विषय

    अग्नि, वायव्य और तमसास्त्र

    शब्दार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) मोहित कर दे, किंकर्तव्यविमूढ़ बना दे और (अग्ने: ध्राज्या) आग्नेयास्त्र से (वातस्य) वायव्यास्त्र से (तान्) उन सब सैनिकों को (विषूच:) छिन्न-भिन्न करके (विनाशय) नष्ट कर डाल ।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में ग्राग्नेय और वायव्यास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । (मरुतः) हे वीर सैनिको ! (या असौ) जो वह (परेषां सेना) शत्रुओं की सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) आक्रमण करती हुई (अस्मान्) हमारी ओर (अभि एति) चली आ रही है (ताम् ) उस सेना को (अपव्रतेन तमसा ) आच्छादक तमसास्त्र से, धूमास्त्र से (विध्यत) वेध डाल (यथा) जिससे (एषां) इनमें से (अन्यः अन्यम्) एकदूसरे को, कोई किसीको (न जानात्) न जाने, न पहचान पाए । इस मन्त्र में तमसा अथवा धूमास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । वेद में युद्ध के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है । वेद के आधार पर ही महाभारत काल में ऐसे-ऐसे अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण किया गया था कि बीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक भी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। महाभारत में नारायणास्त्र का वर्णन आता है। आज के वैज्ञानिक अभी तक इस प्रकार का आविष्कार करने में असमर्थ रहे हैं ।

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    विषय

    शत्रु सेना के प्रति सेनापति के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (मरुतः) हे सेना के वायु समान प्रचण्ड, वेगवान् सुभट पुरुषो ! (या) जो (असौ) यह (परेषां) शत्रुओं की (सेना) सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्द्धमाना) स्पर्द्धा करती हुई (अस्मान्) हम पर (अभि एति) चलती चली आ रही हैं (तां) उसको (अपव्रतेन) कार्यव्यापार में शिथिल कर देने वाले (तमसा) अन्धकार से ऐसा (विध्यत) पीड़ित करो कि (यथा) जिस प्रकार (एषां) इनमें से (अन्यः) एक (अन्यं) दूसरे को भी (न जानात्) न जान पावे ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘अम्मानभ्येति नः’ यजु० साम०। (तृ०) ‘तां गूहत’ इति सा० । (च०) ‘अमीषां’ ऋ० प० । ‘एतेषां’ साम० । ‘च जानन्’ यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । सेनासंमोहनम् । अग्न्यादयो बहवो देवताः । १, ५, ६ त्रिष्टुभः। २-४ अनुष्टुभौ। षडृचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Storm the Enemy

    Meaning

    O Maruts, brave warriors, that army of the alien forces which comes upon us advancing with equal pride, valour and vaulting enthusiasm, penetrate, disarray and cover with frustrative darkness and confusion so that no one may know and distinguish between one and another, friend or foe.

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    Subject

    Marutah

    Translation

    There comes the army of enemies challenging our might. May you pierce it with confounding darkness so that none of - them may recognize the other.

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    Translation

    O’ Ye armed men ; meet that army of our foes which comes against us contending with its might and strike it with confounding darkness in such a Way that not even one of them may recognize another,

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    Translation

    O valiant soldiers, ever ready to die, meet ye that army of our enemies,that comes against us with its might, defying us; and strike it with unwelcomedarkness 0 that not one of them may know another.

    Footnote

    See Yajur, 17-47.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(असौ)। परिदृश्यमाना। (वा सेना)। सू० १ म० १। सैन्यम्। (मरुतः)। अ० १।२०।१। हे शत्रुमारणशीलाः। शूराः। (आ-एति)। आगच्छति। (अभि)। सर्वतः। (ओजसा)। बलेन। (स्पर्धमाना)। स्पर्ध संघर्षे-लटः शानच्। संघर्षं युद्धोद्यमं कुर्वाणा। (ताम्)। सेनाम्। (विध्यत)। ताडयत। छिन्त। (तमसा)। अन्धकारेण। (अपव्रतेन)। व्रतं कर्म-निघ० २।१। अपगतकर्मणा। सर्वव्यापारविघातकेन। (यथा)। येन प्रकारेण। (एषाम्)। उपस्थिनां शत्रूणाम्। (अन्यः)। कश्चित्। (अन्यम्)। कमपि। (न)। निषेधे। (जानात्)। ज्ञा अवयोधने-लेट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। जानीयात् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (মরুতঃ)১ মারার ক্ষেত্রে কুশল হে সৈনিকগণ! (পরেষাম্) শত্রুদের (যা) যে (অভী) সেই (সেনা) সেনা (ওজসা) বলাতিশয়ের কারণে (স্পর্ধমানা) স্পর্ধা করে (অস্মান অভি) আমাদের অভিমুখে (এতি) আসে (তাম্) তাঁদের (অপবর্তন) কর্মহীনকারী (তমসা) অন্ধকার-অস্ত্র দ্বারা (বিধ্যত) বিদ্ধ করো, (যথা) যাতে (এষাম্) এই শত্রুদের মধ্যে (অন্যঃ) এক সৈনিক (অন্যম্) অপর নিজ সৈনিককে (ন জানা) না চিনতে পারে।

    टिप्पणी

    [মরুতঃ= মারার ক্ষেত্রে কুশল আমাদের সৈনিক (যজু০ ১৭।৪০)। ব্রতম্ কর্মনাম (নিঘং০ ২।১)।] [১. ম্রিয়তে মারয়তি বা স মরুৎ, মনুষ্যজাতিঃ (উণা০ ১।৯৪; দয়ানন্দ)।]

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    मन्त्र विषय

    সেনাপতিকৃত্যমুপদিশ্যতেঃ

    भाषार्थ

    (মরুতঃ) হে বীর পুরুষগণ ! (পরেষাম্) শত্রুদের (অসৌ) সেই (যা) যে (সেনা) সেনা (অস্মান্) আমাদের প্রতি (অভি) চারিদিক থেকে (ওজসা) শক্তির সাথে (স্পর্ধমানা) গর্জন করে (আ-এতি) আক্রমণ করতে আসে। (তাম্) তাঁদের (অপব্রতেন) নিষ্ক্রিয়কারী (তমসা) অন্ধকার দ্বারা (বিধ্যত) ছেদন করো, (যথা) যাতে (এষাম্) এঁদের মধ্যে (অন্যঃ) কেউ (অন্যম্) কাউকে (ন) না (জানাৎ) জানতে পারে ॥৬॥

    भावार्थ

    সেনাপতি নিজের সেনাবাহিনীকে যুদ্ধক্ষেত্রে এমনভাবে স্থাপন করুক যাতে আগত শত্রুসেনাকে রোধ করে তাঁদের বিনষ্ট করে দেওয়া যায় ॥৬॥ (মরুতঃ) শব্দ এর জন্য অ০ ১।২০।১। দেখো ॥ এই মন্ত্র যজুর্বেদে এই প্রকারের− অসৌ যা সেনা মরুতঃ পরেষামভ্যৈতি ন ওজসা॒ স্পর্ধমানা। তাং গূহত তমসাপব্রতেন যথামী অন্যো অন্যং ন জানন্ ॥ যজু০। ১৭।৪৭ ॥ (মরুতঃ) হে বীরগণ ! (পরেষাম্) শত্রুদের (অসৌ যা সেনা) সেই যে সেনা (নঃ) আমাদের (অভি) চারিদিক থেকে (ওজসা স্পর্ধমানা) শক্তির সাথে গর্জন করে (আ, এতি) চলে আসে। (তাম্) তাঁদের (অপব্রতেন তমসা) ক্রিয়াহীন কারী অন্ধকার দ্বারা (গূহত) আবৃত করো, (যথা) যাতে (অমী) তাঁরা (অন্যঃ, অন্যম্) একে অপরকে (ন জানন্) না জানতে পারে।।

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