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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - पुरोऽनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त
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    ये अ॒ग्नयो॑ अ॒प्स्वन्तर्ये वृ॒त्रे ये पुरु॑षे॒ ये अश्म॑सु। य आ॑वि॒वेशौष॑धी॒र्यो वन॒स्पतीं॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नय॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ये । वृ॒त्रे । ये । पुरु॑षे । ये । अश्म॑ऽसु । य: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । ओष॑धी: । य: । वन॒स्पती॑न् । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्नयो अप्स्वन्तर्ये वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु। य आविवेशौषधीर्यो वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्नय: । अप्ऽसु । अन्त: । ये । वृत्रे । ये । पुरुषे । ये । अश्मऽसु । य: । आऽविवेश । ओषधी: । य: । वनस्पतीन् । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (5)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ [ईश्वर के तेज] (अप्सुअन्तः) जल के भीतर, (ये) जो (वृत्रे) मेघ में, (ये) जो (पुरुषे) पुरुष [मनुष्य शरीर] में और (ये) जो (अश्मसु) शिलाओं में हैं। (यः) जिस [अग्नि] ने (ओषधीः) औषधियों [अन्न, सोम लता आदि] में, और (यः) जिसने (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [वृक्ष आदि] में (आ विवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वर तेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥१॥

    भावार्थ

    इस सूक्त में गुणों के वर्णन से गुणी परमेश्वर का ग्रहण है, अर्थात् जिस परमेश्वर की शक्ति से समुद्र में बड़वानल, मेघ में बिजुली, मनुष्य में अन्न पाचक अग्नि और पत्थर में चकमक, ओषधियों में फलपाक अग्नि आदि अद्भुत उपकारी शक्तियाँ वर्त्तमान हैं, उनके प्रेरक परमेश्वर को हमारा प्रणाम है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अग्नयः) ईश्वरतेजांसि। (अप्सु) उदकेषु। (अन्तः) मध्ये। (वृत्रे) अ० २।५।३। वृत्रो वृणोतेर्वा वर्ततेर्वा वर्द्धतेर्वा-निरु० २।१७। मेघे-निघ० १।१०। (पुरुषे) अ० १।१६।४। मानुषशरीरे। (अश्मसु) अ० १।२।२। पाषाणशिलासु। (आविवेश) प्रविष्टवान्। (ओषधीः) व्रीहियवादिरूपाः। (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। सेवकरक्षकान्। वृक्षान्। (हुतम्) हु दाने-क्त। हविः। आत्मसर्पणम् ॥

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    विषय

    विविध अग्रियों की अनुकूलता

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (अग्नयः) = अग्नियाँ (अप्सु-अन्त:) = जलों'वाडवाग्नि' के रूप में है, (ये) = जो (वत्रे) = मेघ में 'विद्याद्रप' से, (ये) = जो (पुरुषे) = पुरुष में अशित-पीत परिणाम हेतुत्वेन 'वैश्वानर' रूप से हैं और (ये) = जो (अश्मसु) = सूर्यकान्त आदि शिलाओं में है, इसीप्रकार (य:) = जो अग्नि (ओषधी:) = जौ-चावल आदि ओषधियों में (आविवेश) = प्रविष्ट हुआ है, (य:) = जो (वनस्पतीन) = वृक्षों में प्रविष्ट है, (तेभ्यः) = उन सब जगदनुग्राहक अग्नियों के लिए (एतत्) = यह (हुतम् अस्तु) = हवन हो।

    भावार्थ

    संसार में विविध पदार्थों में विविध रूप से अग्नि का निवास है। अग्निहोत्र करने से इन सब अग्नियों की अनुकूलता प्राप्त होती है।

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    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    व्याख्याःशृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज-बड़वानल अग्नि

    स्वतः ही वायुमण्डल में शब्दों का विभाजन होता रहता है। जो यथार्थ शब्द हैं वे द्यौ लोक को जाते है, वे स्थिर हो जाते है। जो मिथ्यावादी शब्द है। रजोगुणी है, घृणित शब्द हैं वे इस अन्तरिक्ष में ओत प्रोत हो करके मानव के कण्ठ में उन शब्दों की पुररूक्ति होती है। पुनरूक्ति हो करके वही शब्द अन्तरिक्ष में जब छा जाते है, अन्तरिक्ष छायमान हो जाता है तो कहीं तो इस पृथ्वी से तरङ्गे, वे शब्द, भयंकर अग्नि बन करके जब मिलान करते हैं, तो पृथ्वी में एक बड़वानल अग्नि बड़वानल नाम की अग्नि समुद्रों में प्रदीप्त हो जाती है। वह अग्नि मनुष्यों का विनाश प्रारम्भ कर देती है, उसको दैवी प्रकोप कहते है।

    कही अन्तरिक्ष से कहीं पृथ्वी में जो ज्वालामुखी होता है वह विराट रुप बना करके, कहीं उग्र रुप धारण करके ग्रह ग्रह पृथ्वी के आङ्गन में, गर्भ में, समाहित हो जाते हैं। तो उसका परिणाम यह होता है, वे ही अनावृष्टि, अति वृष्टि है, वही उसके भागों का, उसकी आभा केन्द्र बन करके राष्ट्र में, समाज मे, एक अशान्ति के मूल कारण बनते हैं।

    वेद का ऋषि कहता है कि शब्द उच्चारण करते ही एक क्षण समय में यह पृथ्वी की ११७ परिक्रमा कर जाता है। एक ही शब्द, शब्द का आकार बन गया है परन्तु वह प्राण की आभा पर, प्राण की तरंगों पर विद्यमान हो करके उसमें कितनी गति आ जाती है? यदि प्राण नहीं होगा तो शब्द में गति नहीं होगी। वेद का आचार्य कहता है यह जो प्राण है इस प्राण का समन्वय जब समुद्रों से होता है और समुद्रों में जा करके जब यह प्राण विकृत हो जाता है तो मुनिवरों! जल को भी यह अपने में धारण कर लेता है और वहाँ प्राण की रश्मियों का सूर्य से समन्वय होता रहता है। सूर्य से समन्वित होता है और सूर्य ग्रीष्म ऋतु में जैसे जल को अपने में शोषण कर लेता है इसी प्रकार वहीं प्राण स्वरूप समुद्र में परणित हो जाता है तो समुद्र में बेटा! अग्नि को प्रभावित कर देता है। अग्नि प्रदीप्त हो जाती है जलों में। उसको बड़वानल नाम की अग्नि कहते हैं यह बड़वानल नाम की अग्नि क्या करती है? समुद्रों के जल को सूर्य की किरणों में आभायित कर देती है और आभायित करके यदि वह बड़वानल नाम की अग्नि जल को कृतियों में भ्रमण कराती है तो जलों के, समुद्रों के तटों पर रहने वाले प्राणी उस बड़वानल नाम की अग्नि में भस्म हो जाते हैं। तो यह मेरे देव का कितना उज्ज्वल विज्ञान है। यह कैसे शान्त होगा? मेरे प्यारे! अन्तरिक्ष में जब इन प्राणों का, शब्दों का, दोनों का समन्वय होता है तो इस अन्तरिक्ष के परमाणुओं में अग्नि प्रदीप्त हो जाती है, जैसे वन में एक काष्ठ दूसरे काष्ठ से समन्वित हो करके वनों में अग्नि प्रदीप्त कर देता है। इसी प्रकार यह जो अन्तरिक्ष है इसमें परमाणुओं के संघर्ष होने पर जब अग्नि प्रदीप्त हो जाती है तो अन्तरिक्ष में भंयकर अग्नि प्रदीप्त हो करके और वहीं अग्नि देखो, अनावृष्टि, अतिवृष्टि के रूप में प्राणीमात्र को दैवी प्रकोपों में परणित कर देती है।

    बेटा! तुम्हें ज्ञान होगा, तुम्हें स्मरण होगा जब उद्दालक गोत्र के ऋषि सम्भालिक ऋषि महाराज का रेवक मुनि महाराज के साथ मिलान हुआ तो उन्होंने अपनी योग स्थली पर विद्यमान हो करके यही निर्णय कराया कि इस अन्तरिक्ष में शब्दों की, प्राणों की, दोनों की आभा से अग्नि प्रदीप्त हो जाती है, परमाणु आपस में धृष्ट होने लगते हैं तो वे अतिवृष्टि के रूप में, अनावृष्टि के रूप में परणित हो जाते हैं। तो ऋषि कहते हैं कि अग्नि कैसे शान्त होगी? यही अग्नि मानव के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है जो अग्नि बाह्य जगत में, ब्रह्माण्ड में कार्य कर रही है, जो प्राणमयी वहीं समुद्रों में बड़वानल नाम की अग्नि बन कर जलों को विकृत कर रही है। यही मेरे प्यारे! इस मानव के शरीर में भी उसी प्रकार की प्रतिक्रिया होती है।

    यह शब्दों का संघर्ष किस काल में होता है? जिस काल में, समाज में मिथ्यावादी पुरुष हो जाते हैं और जितने भी मिथ्यावादी, अभिमानी, विषैले प्राणी हो जाते हैं इनकी विचारधारा, इनका विषैलापन अन्तरिक्ष में प्रवेश करता है तो परमाणुओं के द्वारा और संग्राम होता रहता है एक समय ऐसा भयंकर संग्राम होता है कि देवी प्रकोप के रूप में वह मानव के समीप परणित हो जाती है। मैं एक आख्यायिका अर्थात कथा प्रकट किया करता हूँ बहुत पुरातन काल की वार्ताओं में बेटा! एक आलंकारिक चर्चा है।

    एक समय देखो, अतिवृष्टि हो गई। जब अतिवृष्टि हुई तो प्रजा का सर्वत्र विनाश हो गया। द्रव्य से, गृह वंचित्त हो गए तो प्रजा ने अपना एक समाज एकत्रित किया और समाज ने कहा, चलो प्रजापति के द्वार पर चलते हैं। हमारे लिए ऐसा क्यों हुआ? तो देखो, वह भ्रमण करते हुए प्रजापति के द्वार पर पहुंचे। प्रजापति ने कहा, कहो प्रजाओं, तुम्हारा कैसे आगमन हुआ? उन्होंने कहा कि महाराज! हम इसलिए आए है कि अतिवृष्टि हो गई है, अतिरूप में हुई है। हम यह जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? इसके मूल को जानना चाहते हैं। प्रजापति ने कहा, यह वृष्टि कहाँ से हुई। प्रजा ने कहा, मेघमण्डलों से हुई है। मेघों की उत्पत्ति हुई और उससे वृष्टि हो गई। तो मुनिवरों! कहते हैं कि प्रजापति ने मेघों को एकत्रित किया, निमन्त्रण दिया। अब निमन्त्रण के अनुसार जब वह पहुंचे। प्रजापति ने कहा कि हे प्रजा ब्रहे मृताम् मेघा। हे मेघ! तुमने प्रजा के विनाश के लिए अतिवृष्टि क्यों की? उन्होंने कहा, प्रभु! हम इसमें दोषी नहीं है हमें तो आज्ञा प्राप्त हुई, हमने वृष्टि की। आज्ञा तुम्हें कहाँ से मिली? उन्होंने कहा कि इन्द्र से। तो मेरे प्यारे! प्रजापति ने इन्द्र को निमन्त्रण दिया और इन्द्र से कहा, दोषी हे इन्द्र! यह तुमने बिना समय वृष्टि क्यों की, क्यों प्रेरणा दी है मेघों को? उन्होंने कहा, प्रभु! मैं इसमें दोषी नहीं हूँ। उन्होंने कहा, कौन है? महाराज! मेरे से तो शचि ने कहा था। प्रजापति ने बेटा! शचि को निमन्त्रण दिया और शचि से कहा, हे शचि! तुमने बिना समय के इन्द्र को प्रेरणा दी और इन्द्र ने मेघों को प्रेरित किया और वृष्टि हो गई, प्रजा का विनाश हो गया है। शचि बोली, प्रभु! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। मैं तो निर्दोष हूँ, मेरे से तो आदित्य ने कहा था। मेरे प्यारे! आदित्याम् ब्रह्मा पुत्रों! देवाः, कहते हैं आदित्य को निमन्त्रण दिया और आदित्य से कहा, हे आदित्य! यह तुमने बिना समय के वृष्टि क्यों कराई? यह समुद्रों को प्रेरणा क्यों दी? उन्होंने कहा, प्रभु! मेरा कोई दोष नहीं है। यह पृथ्वी पापों से सन जाती है। इस पृथ्वी ने कहा कि वृष्टि होनी चाहिए। अब प्रजापति ने बेटा! पृथ्वी को निमन्त्रण दिया और पृथ्वी से कहा, हे पृथ्वी! यह तुमने बिना समय के वृष्टि की इच्छा क्यों प्रकट की? उन्होंने कहा, प्रभु! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है! मेरे ऊपर जब यह प्रजा पाप कर्म करती है तो मैं क्या करूं। मेरे ऊपर उन्होंने पाप कर्म किया। मैं पापों में सन जाती हूँ, उस समय मेरी प्रबल इच्छा होती है। मैंने अपनी प्रेरणा सूर्य आदि को प्रदान की। आदित्य ने वही प्रेरणा समुद्र को प्रदान की। समुद्रों ने वहीं प्रेरणा शचि को दी और शचि ने वही प्रेरणा इन्द्र को दी और वहीं प्रेरणा मेघों को दे करके मेघों से वृष्टि हो गई और वह जो वृष्टि हुई है वह जब नदियों के रूप में समुद्रों में चली गई और प्रजा ने अपने किए हुए पाप पुण्य कर्मों का फल भोग लिया। तो यह क्या है? यह सर्वत्र मैंने तुम्हें एक आख्यायिका प्रकट की। इससे विचार आता है कि जब मानव के प्राणों में विकृति आ जाती है तो मेरे प्यारे! यह मेघ क्या है? यह जलों की आभा हैं। इन्द्र नाम वायु को कहा गया है। शचि नाम विद्युत का है और आदित्य नाम सूर्य का है। यह सर्वत्र विचार जब एक आभा में कटिबद्ध हो समुद्रों में परणित हो जाते हैं। तो इसमें यह प्रतीत होता है, हे मानव! तू इस संसार में आया है, प्रभु की सृष्टि में आया है, तुझे महान और पवित्र कर्म करना है, तुझे अपने मानवत्व को ऊँचा बनाना है।

    आज कहाँ हो तुम? परन्तु कहाँ हो और किसलिए आए हो संसार में, और क्या तुम्हारा उद्देश्य था, क्या बन गया संसार, परन्तु देखो, यहाँ यदि मानव शुद्धता नहीं करेगा, आप जानते हो कि प्रकृति के कितने प्रकोप है। मुझे प्रतीत है मुझे गुरुदेव की अनुपम कृपा से मुझे सूक्ष्मसा ज्ञान है, वास्तव में तो किञ्चित है। परन्तु बुद्धिमानो की सभा में, तो बहुत ही सूक्ष्म है। आज मैं जैमनियों की सभा में विराजमान हो करके, तो बहुत ही सूक्ष्मसा किन्तु मेरा आदेश है। परन्तु जानते हो कि प्रकृति का प्रकोप है, यह क्यों है? आज, हम संसार की क्रिया करते है, प्रकृति का प्रकोप क्या है, कोई जल का प्रवाह आ रहा है देखो, आज अन्तरिक्ष में जल की वृष्टि हो जाती है, देखो, बिना समय के वृष्टि हो जाती है, आज कहीं देखो, वायु का प्रकोप आता है, कहीं अग्नि का प्रकोप आता है, ये सब कुछ क्या हो रहा है? कहीं देखो, भूमि में आ करके राष्ट्र की निधि नष्ट हो जाती है, यह क्या है? मानो देखो, वह जो तुम्हारा स्वार्थ, इस अन्तरिक्ष में सूक्ष्म रूपों से रमण कर रहा है, वह सूर्य की किरणों में, वह समुद्रों में जा करके वैसा ही तुम्हारे द्वारा पाप आज तुम्हारे समक्ष आता चला जा रहा है। आज तुम कहाँ हो? परन्तु विचारो, तो सही सिद्धान्त को, आज तुम वैदिक साहित्य को देखो, तो इसमें क्या है।

    मुनिवरों! देखो, महर्षि जैमिनी जी ने क्या और देखो, यह मानव जब वृति हो जाता है, अपने कर्तव्य से दूरी हो जाता है, आज के यह प्रकृति के प्रकोप आते है, अन्न नष्ट हो जाता है। आज तुम्हारा देखो, और नाना प्रकार की सम्पति समाप्त हो जाती है। परन्तु यह सब कुछ तुम्हारे पाप और पुण्य कर्मों से ही होता है। परमात्मा तो क्या करता है, परमात्मा तो निर्लेप है, परमात्मा तो तुम्हारे पाप पुण्य कर्मों की लेखनी बद्ध कर रहा है। और कहाँ उसका वह लेखनी बद्ध वाला स्थल कहाँ है, मुनिवरों! वह न्यायालय कहाँ है? वह न्यायालय प्रकृति में और, न्यायालय तुम्हारा जो अन्तःकरण है, उसी पर तुम्हारे पाप पुण्य कर्म अंकित हो जाते है और अंकित हो करके वह पाप अग्रणी बन करके, उस समय तुम्हारे जीवन का विनाश कर देते है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर हैं, (ये) जो (वृत्रे) आकाश के आवरण करनेवाले मेघ हैं, (ये) जो (पुरुष) पुरुष में, (ये) जो (अश्मसु) नामाविध व्यापी-मेघों में या सूर्यकान्तादिशिलाओं में हैं। (यः) जो अग्नि (ओषधीः आविवेश) ओषधियों में प्रविष्ट है, (यः) जो अग्नि (वनस्पतीन्) वनस्पतियों में प्रविष्ट है (तेभ्यः अग्निभ्यः) उन अग्नियों के लिए (एतत्) यह हविः (हुतमस्तु) प्रदत्त हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "ये""बहुवचन" द्वारा नाना अग्नियाँ प्रत्येक वस्तु में दर्शाकर, उन अग्नियों के "एकत्व" को "यः" द्वारा मन्त्र के उत्तरार्ध में दर्शाया है। एकवचन द्वारा एक परमेश्वराग्नि को दर्शाया है, यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः" (यजु:० ३२।१); और बहुवचन द्वारा परमेश्वराग्नियों को परमेश्वर की इच्छा, ज्ञान और कृति रूप में दर्शाया है। परमेश्वर एकाग्निरूप में भी सब में प्रविष्ट है, और इच्छा, ज्ञान, और कृतिरूप में भी सब में प्रविष्ट है। एक परमेश्वराग्नि के स्वरूप का स्पष्टीकरण मन्त्र (३) आदि में "देवः" आदि पदों द्वारा हुआ है। अश्मा मेघनाथ (निघं० १।१०)। पुरुष में भी इच्छा, ज्ञान और कृतिरूप में अग्नियां१ प्रविष्ट हैं, जोकि परमेश्वर की इच्छा, ज्ञान और कृतिरूप अग्नियों द्वारा अभिव्यक्त होती हैं। पुरुष की इच्छा आदि की अभिव्यक्ति शरीर के होते होती है, और शरीर का निर्माण परमेश्वर द्वारा होता है।] [१. ज्ञान, इच्छा, कृति अर्थात् संकल्प विषयों का प्रकाश करते हैं, अतः ये अग्नियाँ हैं, "अग्निवत् प्रकाशिका है"]

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    विषय

    लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ये (अग्नयः) जो अग्नियां (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर समुद्र में वाडवाग्नि रूप में और जलों उद्रजन के रूप में हैं या विद्युत् रूप में हैं और (ये वृत्रे) जो अग्नियां वृत्र-आवरणकारी मेघ में भी विद्युत् रूप से हैं और (ये) जो (पुरुषे) पुरुषों में ज्ञानरूप से, उत्साह, बल पराक्रम और जठराग्नि रूप से या विद्वान् आत्मा और इन्द्रिय रूप से वर्त्तमान हैं (ये अश्मसु) और जो प्रस्तरों में और (ये) जो (ओषधीः) रोग नाशक वनस्पतियों में रस रूप से और (यः) जो (वनस्पतीन्) वनस्पतियों में (आ-विवेश) प्रविष्ट हैं (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) सब अग्नियों का सब अग्नियों का (एतत्) यह इस प्रकार (हुतम्) उचित प्रयोग (अस्तु) हो ।

    टिप्पणी

    यो अप्स्वन्तर्योवृत्रेऽन्तर्यः पुरुष योश्मनि। यो विवेश ओषधी०, इति पैप्प० सं। ‘आविवेशोषधी’ इति मै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Energy, Kama Fire and Peace

    Meaning

    In honour and service to those fires, forms of divine energy, which are in the waters, in the cloud, in the human being, in the rocks, and which have entered into herbs and trees and inspire them to play their role in life, to these fires is this oblation offered in homage for peace.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    The fires, that exist within waters, that exist in clouds, that in man, that in rocks, and that have entered the plants and the trees, to those fires let this oblation be offered.

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    Translation

    Let this oblation be offered to all those fires which are in Waters, which are in clouds of sky, which are contained in man, which are in the stones, which have entered in herbs and which remain in plants.

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    Translation

    All Fires that are in water and cloud, all those that man and stones contain in them, that which hath entered herbs and trees and bushes, may all these Fires be put to proper use.

    Footnote

    बड़वानल fire is found in the ocean, lightning in clouds, digestive fire is found in men, magnetic fire is found in stones, ripening fire is found in herbs and plants. All these forces should be properly utilized.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्नयः) ईश्वरतेजांसि। (अप्सु) उदकेषु। (अन्तः) मध्ये। (वृत्रे) अ० २।५।३। वृत्रो वृणोतेर्वा वर्ततेर्वा वर्द्धतेर्वा-निरु० २।१७। मेघे-निघ० १।१०। (पुरुषे) अ० १।१६।४। मानुषशरीरे। (अश्मसु) अ० १।२।२। पाषाणशिलासु। (आविवेश) प्रविष्टवान्। (ओषधीः) व्रीहियवादिरूपाः। (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। सेवकरक्षकान्। वृक्षान्। (हुतम्) हु दाने-क्त। हविः। आत्मसर्पणम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যে) যে (অগ্নয়ঃ) অগ্নি-সমূহ (অপ্সু অন্তঃ) জলের ভেতরে আছে, (যে) যা (বৃত্রে) আকাশের আবরণকারী মেঘের মধ্যে আছে, (যে) যা (পুরুষ) পুরুষের মধ্যে, (যে) যা (অশ্মসু) নানাবিধ ব্যাপী-মেঘের মধ্যে, যা সূর্যকান্তাদিশিলাতে আছে। (যঃ) যে অগ্নি (ঔষধিঃ আবিবেশ) ঔষধি-সমূহের মধ্যে প্রবিষ্ট , (যঃ) যে অগ্নি (বনস্পতীন্) বনস্পতি-সমূহের মধ্যে প্রবিষ্ট রয়েছে (তেভ্যঃ অগ্নিভ্যঃ) সেই অগ্নি-সমূহের জন্য (এতৎ) এই হবিঃ (হুতমস্তু) প্রদত্ত হোক।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে "যে" "বহুবচন" দ্বারা নানা অগ্নি-সমূহ প্রত্যেক বস্তুর মধ্যে প্রদর্শন করিয়ে, সেই অগ্নি-সমূহের "একত্ব" কে "যঃ" দ্বারা মন্ত্রের উত্তরার্ধে দর্শানো হয়েছে। একবচন দ্বারা এক-পরমেশ্বরাগ্নিকে দর্শানো হয়েছে, যথা "তদেবাগ্নিস্তদাদিত্যঃ" (যজু০ ৩২।১); এবং বহুবচন দ্বারা পরমেশ্বরাগ্নিসমূহকে পরমেশ্বরের ইচ্ছা, জ্ঞান ও কৃতি রূপে দর্শানো হয়েছে। পরমেশ্বর একাগ্নিরূপেও সবকিছুর মধ্যে প্রবিষ্ট রয়েছেন, এবং ইচ্ছা, জ্ঞান, ও কৃতিরূপেও সবকিছুর মধ্যে প্রবিষ্ট রয়েছেন। এক-পরমেশ্বরাগ্নির স্বরূপের স্পষ্টীকরণ মন্ত্র (৩) আদিতে "দেবঃ" আদি পদসমূহের দ্বারা হয়েছে। অশ্মা মেঘনাম (নিঘং০ ১।১০)। পুরুষের মধ্যেও ইচ্ছা, জ্ঞান ও কৃতিরূপে অগ্নি-সমূহ১ প্রবিষ্ট আছে, যা পরমেশ্বরের ইচ্ছা, জ্ঞান ও কৃতিরূপ অগ্নি-সমূহের দ্বারা অভিব্যক্ত হয়। পুরুষের ইচ্ছাদির অভিব্যক্তি শরীর থাকলেই হয়, এবং শরীরের নির্মাণ পরমেশ্বর দ্বারা হয়।] [১. জ্ঞান, ইচ্ছা, কৃতি অর্থাৎ সংকল্প বিষয়গুলির প্রকাশ করে, অতঃ এগুলো অগ্নি, "অগ্নিবৎ প্রকাশিকা"।]

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    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যে) যে (অগ্নয়ঃ) অগ্নিসমূহ [ঈশ্বরের তেজ] (অপ্সুঅন্তঃ) জলের অভ্যন্তরে/মধ্যে, (যে) যা (বৃত্রে) মেঘে, (যে) যা (পুরুষে) পুরুষ [মনুষ্য শরীর] এর মধ্যে এবং (যে) যা (অশ্মসু) শিলাতে রয়েছে। (যঃ) যে [অগ্নি] (ওষধীঃ) ঔষধি [অন্ন, সোমলতা আদি] তে, এবং (যঃ) যা (বনস্পতীন্) বনস্পতির [বৃক্ষাদির] মধ্যে (আ বিবেশ) প্রবেশ করেছে, (তেভ্যঃ) সেই (অগ্নিভ্যঃ) অগ্নিসমূহ [ঈশ্বর তেজ]কে (এতৎ) এই (হুতম্) দান [আত্ম সমর্পণ] (অস্তু) হোক ॥১॥

    भावार्थ

    এই সূক্তে গুণসমূহের বর্ণনার দ্বারা গুণী পরমেশ্বরের গ্রহণ হয়েছে, অর্থাৎ যে পরমেশ্বরের শক্তি দ্বারা সমুদ্রে জোয়ার, মেঘের মধ্যে বিদ্যুৎ, মনুষ্যের অন্ন পাচক অগ্নি এবং পাথরে চকমক, ঔষধিতে পরিপক্বতার অগ্নি আদি অদ্ভুত উপকারী শক্তি বর্তমান রয়েছে, তার প্রেরক পরমেশ্বরকে আমাদের প্রণাম॥১॥

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