अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
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दिवं॑ पृथि॒वीमन्व॒न्तरि॑क्षं॒ ये वि॒द्युत॑मनुसं॒चर॑न्ति। ये दि॒क्ष्व॑१न्तर्ये वाते॑ अ॒न्तस्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
स्वर सहित पद पाठदिव॑म् । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । ये । वि॒ऽद्युत॑म् । अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ति ।ये । दि॒क्षु । अ॒न्त: । ये । वाते॑ । अ॒न्त: । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्षं ये विद्युतमनुसंचरन्ति। ये दिक्ष्व१न्तर्ये वाते अन्तस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥
स्वर रहित पद पाठदिवम् । पृथिवीम् । अनु । अन्तरिक्षम् । ये । विऽद्युतम् । अनुऽसंचरन्ति ।ये । दिक्षु । अन्त: । ये । वाते । अन्त: । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो [तेज] (दिवम्) सूर्यलोक में, (पृथिवीम्) पृथिवी में और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (अनु) लगातार और (विद्युतम्) बिजुली में (अनुसंचरन्ति) लगातार चलते रहते हैं, (ये) जो (दिक्षु अन्तः) दिशाओं के भीतर और (ये) जो (वाते अन्तः) पवन के भीतर हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभिः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥७॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के तेज सब लोकों, सब पदार्थों और सब दिशाओं में हैं, उस जगदीश्वर को हमारा नमस्कार है ॥७॥
टिप्पणी
७−(दिवम्) सूर्यलोकम्। (पृथिवीम्) भूमिम्। (अनु) अनुप्रविश्य। (ये) अग्नयः। (विद्युतम्) अ० १।१३।१। विद्योतमानां तडितम्। (अनुसंचरन्ति)। अनुप्रविश्य सम्यग् गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। अन्यद् गतम् ॥
विषय
यज्ञों द्वारा अग्नि का आराधन
पदार्थ
१. (ये) = जो अग्नियाँ (दिवम्) = धुलोक में, (पृथिवीम्) = पृथिवीलोक में (अनुसञ्चरन्ति) = अनुप्रविष्ट होकर विचरण करती है, (ये) = जो (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष लोकों में तथा (विद्युतम्) = मेघस्थ विद्युत् - में (अनु) = [सञ्चरन्ति] अनुप्रविष्ट होकर गति करती हैं। २. (ये) = जो अग्नियाँ (दिक्ष अन्त:) = दिशाओं में स्थित हैं और (ये) = जो (वाते अन्त:) = वायु के अन्दर हैं, (तेभ्यः अग्निभ्य:) = उन अग्नियों के लिए (एतत्) = यह (हुतम्, अस्तु) = हवन हो। हवन के द्वारा हम सब लोकों में स्थित अग्नियों की अनुकूलता प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
यज्ञों के द्वारा सर्वत्र स्थित अग्नियों की अनुकूलता प्राप्त होती है।
भाषार्थ
(ये) जो अग्नियाँ (दिवम्) द्युलोक में, (पृथिवीम्) पृथिवी में, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (अनु) अनुप्रवेश करके (संचरन्ति) संचार करती हैं, (ये) जो (विद्युतम्) विद्योतमान राशिचक्र में विचरती हैं। (ये) जो (दिक्षु अन्तः) सब दिशाओं के भीतर हैं, (थे) जो (वाते अन्तः) वायु के भीतर उल्काग्नियाँ हैं, (तेभ्यः अग्निभ्यः) उन अग्नियों के लिए (एतत्) यह प्राकृतिक तथा आत्म हवि: (हुतमस्तु) प्रदत्त हो, अर्पित हो।
टिप्पणी
[उल्का=(अथर्व० १९।९।८,९)। दिक्षु= अथर्व० (१९।८।१)। ये अग्नियाँ हैं परमेश्वर का तेज:स्वरूप जो कि इनमें भासित हो रहा है, "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्डक० उप० २।२।१०)।]
विषय
लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।
भावार्थ
और(ये दिवं) जो द्युलोक में, आदित्य और दिव्य विज्ञान के पीछे और (पृथिवीम्) पृथिवी और पार्थिव-लोक-रचना सम्बन्धी विज्ञान के पीछे और जो (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष, वायु-विद्या के पीछे, और (ये विद्युतम्) जो विद्युत्-विद्या के पीछे २ (अनु सं चरन्ति) ज्ञान मार्ग से उनका अनुसरण करते, ज्ञान खोजते और उनका प्रयोग करते हैं और (ये दिक्षु अन्तः) जो दिशाओं के और (ये वाते) जो वात= प्रचण्ड वायु के ज्ञान में ही संलग्न हैं,(तेभ्यः अग्निभ्यः हुतम् अस्तु एतत्) उन ज्ञानमय विद्वान् रूप अग्नियों के लिये हमारी त्याग रूप आहुति प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Energy, Kama Fire and Peace
Meaning
To those fires which radiate across the regions of light, which magnetise the earth and shake the middle regions, which flash and thunder with the lightning, those which energise the quarters of space and blow into the winds, to all these fire forms of divine energy, this oblation in homage for peace.
Translation
To those fires, that move in the sky, on the earth, in the midspace, that follow- the lightning; that are within the quarters; that are within the storm, to all those fire, let this oblation be offered.
Translation
Let this oblation be offered to all those fires which operate in heavenly region or the Sun, in the earth, in the firmament in the lightning, which operates in the regions of the space and which enter into air.
Translation
May my sacrifice be offered to learned persons, who follow spiritual and physical laws, who know the science of space and lightning, and who adhere to the knowledge of the regions and air.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(दिवम्) सूर्यलोकम्। (पृथिवीम्) भूमिम्। (अनु) अनुप्रविश्य। (ये) अग्नयः। (विद्युतम्) अ० १।१३।१। विद्योतमानां तडितम्। (अनुसंचरन्ति)। अनुप्रविश्य सम्यग् गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(যে) যে অগ্নি-সমূহ (দিবম্) দ্যুলোকে, (পৃথিবীম্) পৃথিবীতে, (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষে (অনু) অনুপ্রবেশ করে (সং চরন্তি) সঞ্চার করে/সঞ্চারিত হয়, (যে) যা (বিদ্যুতম্ অনু) বিদ্যোতমান রাশিচক্রে বিচরণ করে। (যে) যা (দিক্ষু অন্তঃ) সকল দিশার ভেতরে আছে/বর্তমান, (যে) যে (বাতে অন্তঃ) বায়ুর ভেতরে উল্কাগ্নি-সমূহ রয়েছে, (তেভ্যঃ অগ্নিভ্যঃ) সেই অগ্নি-সমূহের জন্য (এতৎ) এই প্রাকৃতিক এবং আত্মহবিঃ (হুতমস্তু) প্রদত্ত হোক, অর্পিত হোক।
टिप्पणी
[উল্কা= (অথর্ব০ ১৯।৯।৮, ৯)। দিক্ষু=অথর্ব০ (১৯।৮।১)। এই অগ্নি-সমূহ হলো পরমেশ্বরের তেজঃস্বরূপ, যা এদের মধ্যে ভাসিত হচ্ছে, "তস্য ভাসা সর্বমিদং বিভাতি" (মুণ্ডক০ উপ০ ২।২।১০)।]
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যে) যে [তেজ] (দিবম্) সূর্যলোকে, (পৃথিবীম্) পৃথিবীতে এবং (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষে (অনু) নিরন্তর এবং (বিদ্যুতম্) বিদ্যুতের মধ্যে (অনুসংচরন্তি) নিরন্তর চলতে থাকে, (যে) যা (দিক্ষু অন্তঃ) দিকসমূহের অভ্যন্তরে এবং (যে) যা (বাতে অন্তঃ) পবনের মধ্যে/অভ্যন্তরে বর্তমান, (তেভ্যঃ) সেই (অগ্নিভিঃ) অগ্নি [ঈশ্বর তেজ] কে (এতৎ) এই (হুতম্) দান [আত্মসমর্পণ] (অস্তু) হোক ॥৭॥
भावार्थ
যে পরমাত্মার তেজ সকল লোক, সকল পদার্থ এবং সকল দিশায় বর্তমান, সেই জগদীশ্বরকে আমাদের নমস্কার ॥৭॥
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