अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
0
श॒तेन॒ पाशै॑र॒भि धे॑हि वरुणैनं॒ मा ते॑ मोच्यनृत॒वाङ्नृ॑चक्षः। आस्तां॑ जा॒ल्म उ॒दरं॑ श्रंसयि॒त्वा कोश॑ इवाब॒न्धः प॑रिकृ॒त्यमा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तेन॑ । पाशै॑: । अ॒भि । धे॒हि॒ । व॒रु॒ण॒ । ए॒न॒म् । मा । ते॒ । मो॒चि॒ । अ॒नृ॒त॒ऽवाक् । नृ॒ऽच॒क्ष॒: । आस्ता॑म् । जा॒ल्म: । उ॒दर॑म् । श्रं॒श॒यि॒त्वा । कोश॑:ऽइव । अ॒ब॒न्ध: । प॒रि॒ऽकृ॒त्यमा॑न: ॥१६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ्नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः ॥
स्वर रहित पद पाठशतेन । पाशै: । अभि । धेहि । वरुण । एनम् । मा । ते । मोचि । अनृतऽवाक् । नृऽचक्ष: । आस्ताम् । जाल्म: । उदरम् । श्रंशयित्वा । कोश:ऽइव । अबन्ध: । परिऽकृत्यमान: ॥१६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वरुण की सर्वव्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(वरुण) हे दुष्टनिवारक परमेश्वर ! (शतेन) सौ (पाशैः) फाँसों से (एनम्) इस [मिथ्यावादी] को (अभि धेहि) बाँध ले, (नृचक्षः) हे मनुष्यों के देखनेवाले ! (अनृतवाक्) मिथ्यावादी पुरुष (ते) तेरी (मा मोचि) मुक्ति न पावे। (जाल्मः) नीच अन्यायी (उदरम्) युद्ध कर्म को (श्रंसयित्वा= स्रंसयित्वा) नीचे गिराकर (परिकृत्यमानः) कटी हुई, (अबन्धः) अपने से छुटी (कोशः इव) फूल की कली के समान (आस्ताम्) बैठा रहे ॥७॥
भावार्थ
सर्वशक्तिमान् परमेश्वर के दण्ड से कोई मिथ्यावादी नहीं छूट सकता, और अधर्मी दुष्ट धर्मात्माओं के सन्मुख ऐसा गिर जाता है, जैसे फूल की अधखिली कली अधिक पवन आदि के कारण गिरकर कुम्हला जाती है ॥७॥
टिप्पणी
७−(शतेन) बहुभिः (पाशैः) दण्डबन्धनैः (अभि धेहि) अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। बधान (वरुण) हे दुष्टनिवारक (एनम्) अनृतवादिनम् (ते) तव (मा मोचि) मुक्तिं न प्राप्नुयात् (अनृतवाक्) मिथ्यावादी (नृचक्षः) चक्षेर्बहुलं शिच्च। उ० ४।२३३। नृ+चक्षिङ्दर्शने-असुन्। हे नृणां मनुष्याणां साध्वसाधुचरित्राणां द्रष्टः (आस्ताम्) तिष्ठतु (जाल्मः) जल अपवारणे-म प्रत्ययः। जालयति दूरी करोति हितज्ञानमिति। पामरः। क्रूरः (उदरम्) उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च। उ० ५।१९। इति उद्+दॄ विदारे-अच्। उदो दस्य लोपः। उद्विदारणं युद्धम् (श्रंसयित्वा) स्रंसु अवस्रंसने=अधः पतने णिचि क्त्वा, सकारस्य शकारः। स्रंसयित्वा। अधः पातयित्वा (कोशः) कुश संश्लेषे-घञ्। कोशोऽस्त्री कुड्मले, इत्यमरः−२३।२१८। कुड्मलः। विकाशोन्मुखकलिका (इव) यथा (अबन्धः) बन्धेन शाखासंयोगतन्तुना विश्लिष्टः (परिकृत्यमानः) कृती छेदने-कर्मणि यक्, शानच्, मुक् च। परिच्छिद्यमानः ॥
विषय
अनृतवादी का बन्धन
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पाप-निबारक प्रभो! (एनम्) = उस अनृतवादी को (शतेन पाशै:) = सैकड़ों पाशों से (अभिधेहि) = बाँधिए। हे (नृचक्ष:) = मनुष्यों के कर्मों के द्रष्टा प्रभो! (अनृतवाक्) = यह असत्य बोलनेवाला मनुष्य (ते) = आपसे (मा मोचि) = न छोड़ा जाए। २. यह (जाल्म:) = असमीक्ष्यकारी दुष्टपुरुष (उदरं सत्रंसयित्वा) = जलोदररोग से अपने उदर को त्रस्त करके (अबन्धः कोशः इव) = चारों ओर से बन्ध से रहित कोश की भाँति [फूल की कली को भौति] (परिकृत्यमानः) = चारों ओर से छिन्न होता हुआ (आस्ताम्) = बन्धन में पड़ा रहे।
भावार्थ
अनृतवाक् पुरुष बन्धन में डाला जाए। यह जलोदर आदि रोगों से पीड़ित होकर बन्धन से मुक्त न हो।
भाषार्थ
(वरुण) हे वरुण ! (एनम्) इसे (शतेन पार्शः) सौ फंदों द्वारा (अभि धेहि) तू बांध, (नृचक्ष:) हे नर-नारियों पर दृष्टि रखनेवाले ! (अनृतवाक्) असत्यवक्ता (ते) तेरे फंदों से (मा मोचि) न छुटा रहे। (जाल्मः) असत्य बोलकर जाल बिछानेवाला (उदरम्) निज पेट को (श्रंसयित्वा= स्रंसयित्वा) अयस्रस्त करके (आस्ताम्) रहे, (इव) जैसेकि (अबन्धः) बन्धरहित (कोशः) पुष्पकोश (परिकृत्यमानः) सब ओर से कटा हुआ होकर रहता है।
टिप्पणी
[वरुण है “अपामधिपतिः” (अथर्व० ५।२४।४), अतः मन्त्र में उदर का रोग अभिप्रेत है, जलोदर [Dropsy]। इससे पेट फूल जाता और नीचे की ओर अवलम्बित हो जाता है, इसे अवस्रस्त द्वारा निर्दिष्ट किया है। जलोदर रोग मुख्य है, इसके अवान्तर दुष्परिणामों को “शतेन पाशै:” द्वारा निर्दिष्ट किया है। पुष्प के मूलभाग अर्थात् जड़ के चारों ओर एक गोलाकृतिक बन्ध१ होता है, जिसे कि ‘वृन्त’ कहते हैं। पुष्प के आभ्यन्तर की ओर निचले हिस्से में गोलाकृतिक एक अल्पगर्त होता है, इसे ‘कोश’ कहा है।] [१. बन्ध के कट जाने से पुष्प की पंखड़ियां कटकर बिखर जाती हैं, अलग-अलग होकर गिर जाती है। जाल्म:= जालिम?]
विषय
राजा और ईश्वर का शासन।
भावार्थ
व्यवस्थापक लोग असत्यवादी के लिये उचित दण्ड की व्यवस्था करते हैं। हे (वरुण) राजन् ! हे (नृचक्षः) सब मनुष्यों को व्यवहारचक्षु से देखने वाले ! (अनृत् वाक्) जो असत्य बोलता है वह (मा ते मोचि) तेरी दण्ड-व्यवस्था से छूट न जाय। (एनं) इस को तो (शतेन पाशैः) सौ पाशों से (अभि-धेहि) सब के सन्मुख बांध और (जाल्मः) ज़ालिम, अत्याचारी, आततायी पुरुष (उदरं) अपने पेट, मध्य भाग को (श्रंशयित्वा) भूमि पर गिरा कर (अबन्धः) बिना बन्धे (कोष इव) फूल या म्यान के समान (परिकृत्यमानः आस्तां) टुकड़े २ काटा या तड़पाया जाता रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। सत्यानृतान्वीक्षणसूक्तम्। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्, ५ भुरिक्। ७ जगती। ८ त्रिपदामहाबृहती। ९ विराट् नाम त्रिपाद् गायत्री, २, ४, ६ त्रिष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
All Watching Divinity
Meaning
O Varuna, all presiding, all watching ruler, with a hundred bonds of your laws bind and restrain this liar. Let him not escape the bonds of your law. Let this unfortunate man, his inner personality split into shreds, self-tortured, lie loose like a broken vessel.
Translation
O venerable Lord may you bind him with a hundred fetters; O overseer of men's conduct, may not a liar escape you. May the unrighteous person remain with his belly hanging loose (with water), like an unbound sheath being cut round about.
Translation
O Imperial Ruler Varuna (the Supreme Being), the watcher of men! snare him with a hundred noose and let not him who lies scape from you. Let the villain sit with hanging belly like a cask which is open and broken into pieces.
Translation
O God, seer of the noble and ignoble deeds of man, snare him with a hundred nooses, who tells a lie, and let him not escape Thee. Let the villain who avoids struggle sit listless, as a bud released from the flower falls to the ground and is cut to pieces.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(शतेन) बहुभिः (पाशैः) दण्डबन्धनैः (अभि धेहि) अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। बधान (वरुण) हे दुष्टनिवारक (एनम्) अनृतवादिनम् (ते) तव (मा मोचि) मुक्तिं न प्राप्नुयात् (अनृतवाक्) मिथ्यावादी (नृचक्षः) चक्षेर्बहुलं शिच्च। उ० ४।२३३। नृ+चक्षिङ्दर्शने-असुन्। हे नृणां मनुष्याणां साध्वसाधुचरित्राणां द्रष्टः (आस्ताम्) तिष्ठतु (जाल्मः) जल अपवारणे-म प्रत्ययः। जालयति दूरी करोति हितज्ञानमिति। पामरः। क्रूरः (उदरम्) उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च। उ० ५।१९। इति उद्+दॄ विदारे-अच्। उदो दस्य लोपः। उद्विदारणं युद्धम् (श्रंसयित्वा) स्रंसु अवस्रंसने=अधः पतने णिचि क्त्वा, सकारस्य शकारः। स्रंसयित्वा। अधः पातयित्वा (कोशः) कुश संश्लेषे-घञ्। कोशोऽस्त्री कुड्मले, इत्यमरः−२३।२१८। कुड्मलः। विकाशोन्मुखकलिका (इव) यथा (अबन्धः) बन्धेन शाखासंयोगतन्तुना विश्लिष्टः (परिकृत्यमानः) कृती छेदने-कर्मणि यक्, शानच्, मुक् च। परिच्छिद्यमानः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal