अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
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अ॒हं रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिश्चराम्य॒हमा॑दि॒त्यैरु॒त वि॒श्वदे॑वैः। अ॒हं मि॒त्रावरु॑णो॒भा बि॑भर्म्य॒हमि॑न्द्रा॒ग्नी अ॒हम॒श्विनो॒भा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । रु॒द्रेभि॑: । वसु॑ऽभि: । च॒रा॒मि॒ । अ॒हम् । आ॒दि॒त्यै: । उ॒त । वि॒श्वऽदे॑वै: । अ॒हम् । मि॒त्रावरु॑णा । उ॒भा । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒हम् । अ॒श्विना॑ । उ॒भा ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । रुद्रेभि: । वसुऽभि: । चरामि । अहम् । आदित्यै: । उत । विश्वऽदेवै: । अहम् । मित्रावरुणा । उभा । बिभर्मि । अहम् । इन्द्राग्नी इति । अहम् । अश्विना । उभा ॥३०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं [परमेश्वर] (रुद्रेभिः) ज्ञानदाताओं वा दुःखनाशकों (वसुभिः) निवास करानेवाले पुरुषों के साथ (उत) और (अहम्) मैं ही (विश्वदेवैः) सर्व दिव्य गुणवाले (आदित्यैः) प्रकाशमान, अथवा अदीन प्रकृति से उत्पन्न हुए सूर्य आदि लोकों के साथ (चरामि) चलता हूँ। (अहम्) मैं (उभा) दोनों (मित्रावरुणा) दिन और रात को, (अहम्) मैं (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि को, (अहम्) मैं ही (उभा) दोनों (अश्विना) सूर्य और पृथिवी को (बिभर्मि) धारण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् सर्वोत्पादक और सर्वपोषक है, उसकी उपासना से सब मनुष्य नित्य उन्नति करें ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है-मण्डल १० सूक्त १२५। वहाँ सूक्त की वागाम्भृणी ऋषि और वागाम्भृणी ही देवता है ॥
टिप्पणी
१−(अहम्) परमेश्वरः (रुद्रेभिः) अ० २।२७।६। रुत्+र। रुद्रैः। ज्ञानदातृभिः। दुःखनाशकैः (वसुभिः) अ० २।१२।४। वासयितृभिः। धनैः (चरामि) गच्छामि (आदित्यैः) अ० १।९।१। प्रकाशमानैः। अदितेरदीनायाः, देवमातुः प्रकृतेः सकाशादुत्पन्नैः सूर्यादिलोकैः (उत) अपि च (विश्वदेवैः) सर्वदिव्यगुणयुक्तैः (मित्रावरुणौ) अहोरात्रौ। (उभा) उभौ (बिभर्मि) धारयामि (इन्द्राग्नी) अ० १।३५।४। वाय्वग्नी (अश्विना) अ० २।२९।६। द्यावापृथिव्यौ ॥
विषय
देवों के साथ महादेव
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (रुद्रेभि: वसुभिः चरामि) = रुद्रों व वसुओं के साथ गति करता हूँ। (अहम्) = मैं ही (आदित्यैः) = आदित्यों के साथ (उत) = और (विश्वदेवै:) = सब देवों के साथ गति करता हूँ। जब कोई उपासक मुझे प्राप्त करता है तो इन सब देवों को भी प्राप्त करता है अथवा जो इन देवों को प्राप्त करने का यत्न करता है, वही मुझे प्रास करता है। देवों को-दिव्य भावों को प्राप्त करनेवाला ही तो महादेव की प्राप्ति का अधिकारी होता है। २. (अहम्) = मैं (मित्रावरुण उभा) = स्नेह व निषता की भावनाओं को-दोनों वृत्तियों को (बिभर्मि) = धारण करता हूँ। प्रभु का उपासक किसी के प्रति द्वेषवाला नहीं होता, वह सबके प्रति स्नेहवाला होता है। (अहम्) = मैं (इन्द्राग्री) = इन्द्र और अग्नि का धारण करता हूँ। प्रभु का उपासक (इन्द्र) = जितेन्द्रिय होता है तथा अग्नि-प्रगतिशील होता है। यह शक्ति [इन्द्र] व प्रकाश [अग्नि] का पुञ्ज बनता है। (अहम्) = मैं (अश्विना उभा) = प्राण और अपान दोनों का धारण करता हूँ। प्रभु का उपासक प्राणापान की साधना द्वारा आधिव्याधि-शून्य जीवनवाला बनता है।
भावार्थ
हम रुद्र बनें [रुत्द्र]-रोगों को अपने से दूर भगाएँ, वसु बनें-उत्तम निवास वाले हों, आदित्य बनें-गुणों का आदान करें, सब दिव्यताओं को अपनाने के लिए यत्नशील हों-ऐसा करने पर प्रभु का हमारे साथ निवास होगा। प्रभु की उपासना ही हमें इन दिव्य गुणों को प्राप्त कराएगी।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( अहम् ) = मैं परमेश्वर ( रुद्रेभि: ) = ज्ञानदाता व दुःखनाशकों ( वसुभि: ) = निवास करानेवाले पुरुषों के साथ ( उत ) = और ( अहम् ) = मैं ही ( विश्वदेवैः ) = सब दिव्यगुणवाले ( आदित्यैः ) = सूर्यादि लोकों के साथ ( चरामि ) = चलता हूँ। अर्थात् वर्त्तमान ( अहम् ) = मैं ( उभौ ) = दोनों ( मित्रावरुणौ ) = दिन रात को ( अहम् ) = मैं ( इन्द्र -अग्नी ) = पवन और अग्नि को ( अहम् ) = मैं ही ( उभौ अश्विनौ ) = दोनों सूर्य, पृथिवी को ( बिभर्मि ) = धारण करता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ = परमात्मा कृपासिन्धु हम पर कृपा करते हुए उपदेश करते हैं कि मैं दुःख दूर करनेवालों और दूसरों को ज्ञान दे कर लाभ पहुँचानेवालों के साथ रहता हूँ और मैं ही दिव्यगुणयुक्त सूर्यादि लोकलोकान्तरों के साथ और दिन, रात्रि में पवन और अग्नि, सूर्य और पृथिवी को धारण कर रहा हूं। ऐसे परमात्मा की उपासना करनी चाहिये ।
भाषार्थ
(अहम्) मैं वाक्-पारमेश्वरी माता (वसुभिः) वसुओं के संग (चरामि) चलती हूं (अहम्) मैं (आदित्यै:) आदित्यों के संग, (उत) तथा (विश्वदेवः) अन्य सब देवों के संग [चलती हूं] (अहम्) मैं (मित्रावरुणा उभा) मित्र और वरुण, दोनों का (बिभर्मि) भरण-पोषण करती हूँ, (अहम्) मैं (इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि का (अहम्) मैं (अश्विना उभा) दोनों अश्वियों का [भरण पोषण करती हूं।]।
टिप्पणी
[मानुषी-माता शिशुओं को लेकर उन्हें चलाने के लिए उनके संग-संग चलती है। वसु आदि पारमेश्वरी माता के शिशुरूप हैं, यह मन्त्र का अभिप्राय है। वसवः आदि, यथा– वसवः= अग्निश्च पृथिवी च, वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च, चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसवः। एतेषु हीदं वसु सर्वं हितमिति तस्माद् वसव इति ॥३॥ रुद्राः= दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशः, ते यदास्माच्छरीरान्मर्त्यादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति, तद् यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति॥४॥ आदित्या:=द्वादश वै मासाः [संवत्सरः] आदित्या:, एते हीदं सर्वमाददाना यन्ति, ते यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति॥५॥ (बृहदा० उप० ३।९।३-५)। विश्वेदेवाः= वसुरुद्रादित्यव्यतिरिक्ता गणशा [तारामण्डल] वर्तमाना विश्वदेवाख्याः (सायण)। मित्रावरुणा= मित्रावरुणौ= मित्र 'सूर्यः' वरुण 'चन्द्रमा'। इन्द्राग्नी= विद्युत तथा पार्थिवानि। अश्विना= अश्विनौ 'अहोरात्रौ' (निरुक्त १२।१।१)।]
विषय
परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
ऋग्वेदे राष्ट्री देवता। वागम्भृणी ऋषिः। वागम्भृणी देवता। परमेश्वरी शक्ति स्वयं अपना वर्णन करती है। (अहं) मैं (रुद्रेभिः) रुद्रों और (वसुभिः) वसुओं के साथ सर्वत्र विश्वरूप राष्ट्र में और (विश्वदेवैः) विश्वेदेव, समस्त विद्वानों के साथ (चरामि) शक्ति रूप में विचर रही हूं। (अहम्) मैं (मित्रा वरुणा) मित्र और वरुण (उभा) दोनों को (विभर्मि) धारण करती हूं, (अहम् इन्द्राग्नी) मैं इन्द्र और अग्नि को और (अहम् उभा अश्विना) मैं ही दोनों अश्वियों को भी धारण पोषण करती हूं। परमात्मा स्वयं अपनी मातृ-शक्ति का वर्णन करता है और वह कहता है कि माता जिस प्रकार बच्चों को चलना सिखाने के लिये आरम्भ में उनके साथ २ स्वयं चलती है ताकि बच्चा कहीं गिर न जाय इसी प्रकार, परमात्मा-माता भी रुद्रादि वस्तुओं के साथ स्वयं मानो गति रही है और उन्हें अपने २ मार्गों में चला रही है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
All-sustaining Vak
Meaning
Note: Vak, the Word, in this sukta is Rashtri Devi, Spirit of the human Nation, Light and Life Divine, supreme power of the universe which creates and sustains every thing in existence: ‘Vacha heedam sarvam krtam’ (Shatapatha Brahmana 8, 1, 2, 9). Vak creates and sustains every thing at the individual, organisational and cosmic level. Words such as Rudra, Vasu, Aditya and Vishvedeva, in this sukta, are to be interpreted at all the three levels as different but cooperative and cohesive versions of the same one Supreme power, Vak. Rudra is pranic energy of cosmic vitality of life, Vasu is the sustaining power that settles forms of existence, humans included, and gives them peace and security. Aditya is illuminative power such as the sun at the cosmic level, and teacher intellectual at the social level, Vishvedevas are nature’s generous powers and all creative and contributive humans taken together. Mitra is the sun, the day and love and warmth of friends. Varuna is the moon, the night, the spirit of judgement and discrimination. Indra is cosmic energy and organisational power. Agni is the fire, enthusiasm and passion for living and leadership, Ashvins are complementarities of the dynamic circuit of energy in the universe and humanity such as positive and negative currents, plus and minus, physician and surgeon, teacher and preacher. Tvashta is the creative and formative power of nature and humanity that makes the forms such as sun and earth, various living species and human institutions. Pusha is the power of nourishment, growth and health. Samudra is the unfathomable, all bearing space and all tolerant generosity of peace. Dyau is the heaven of light, knowledge and enlightenment. Prthivi is the earth and undisturbed, inviolable human spirit of sustenance. Read with Purusha Sukta of the Veda, this sukta may be taken as the voice of Purusha reverberating from the individual to the cosmic dimensions of existence. I am Rashtri Devi, light of life, voice of omniscience, universal power and speech all bearing, all borne, co-existent with eleven Rudras, pranic energies, eight Vasus, earth, water, fire, air, space, sun, moon and stars, all abodes and supports of life, twelve Adityas, twelve yearly phases of the sun, and the Vishvedevas, generous and creative divinities of nature and humanity. I bear and support both Mitra and Varuna, day and night, I bear and support Indra and Agni, cosmic energy and vitality of life and intelligence. I bear and support both the Ashvins, all complementaries of nature and humanity such as positive and negative currents of energy circuit in operation, science and technology, physician and surgeon, teacher and preacher.
Subject
Vak or Speech (multiform)
Translation
I associate with all the learned men called as Vasu (young preceptors), and Aditya (the matured professors). I support all nature’s bounties such as the sun, ocean, fire, lightning, and the pair of twin divines. (Also Rg. X.125.1).
Translation
[N.B. This hymn is concerned with the Vak the declaration of the people or parliament of a nation. This represents the power of the people as a whole.] I, the parliament of the people conduct the affairs of the nation with Rudra, the destructive powers, Vasus, Constructive powers, Adityas, the learned persons and Vishvedevas, the other physical forces and sanctions of the state. I possess the two gas—the hydrogen and oxygen, I possess electricity and fire and I hold under my control both the ashvinis, the air and water.
Translation
I remain in the company of all learned persons, all living objects, all luminous objects like the Sun, etc., born of matter. I support the Day and Night, the Air and Fire, the Sun and Earth.
Footnote
‘I' refers to God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अहम्) परमेश्वरः (रुद्रेभिः) अ० २।२७।६। रुत्+र। रुद्रैः। ज्ञानदातृभिः। दुःखनाशकैः (वसुभिः) अ० २।१२।४। वासयितृभिः। धनैः (चरामि) गच्छामि (आदित्यैः) अ० १।९।१। प्रकाशमानैः। अदितेरदीनायाः, देवमातुः प्रकृतेः सकाशादुत्पन्नैः सूर्यादिलोकैः (उत) अपि च (विश्वदेवैः) सर्वदिव्यगुणयुक्तैः (मित्रावरुणौ) अहोरात्रौ। (उभा) उभौ (बिभर्मि) धारयामि (इन्द्राग्नी) अ० १।३५।४। वाय्वग्नी (अश्विना) अ० २।२९।६। द्यावापृथिव्यौ ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
অহং রুদ্রেভির্বসুভিশ্চরাম্যহমাদিত্যৈরুত বিশ্বদেবৈঃ।
অহং মিত্রবরুণোভা বিভর্ম্যহমিন্দ্রাগ্নী অহমশ্বিনোভা।।৭৪।।
(অথর্ব ৪।৩০।১)
পদার্থঃ পরমেশ্বর বলছেন, (অহম্) আমি (রুদ্রভিঃ) জ্ঞানদাতা এবং দুঃখনাশক, (বসুভিঃ) বসবাসের উপযোগী অষ্টবসুকে (উত) এবং (অহম্) আমিই (বিশ্বদেবৈঃ) সকল দিব্যগুণযুক্ত (আদিত্যৈঃ) সূর্যাদি লোককে (চরামি) চালিত করি। (অহম্) আমিই (মিত্রাবরুণা উভা) স্নেহ ও দ্বেষহীনতা-উভয় গুণকে ধারণ করি । (অহম্) আমি (ইন্দ্র অগ্নি) ইন্দ্র এবং অগ্নিকে ধারণ করি। (অহম্) আমিই (উভা অশ্বিনা) প্রাণ ও অপান উভয়কেই (বিভর্মি) ধারণ করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমাত্মা কৃপাসিন্ধু আমাদের উপর কৃপা করে উপদেশ করছেন যে, “আমি দুঃখের নাশক এবং যারা অন্যদের জ্ঞান দান করেন, তাদের সাথে থাকি। অষ্ট বসু এবং দিব্যগুণযুক্ত সূর্যাদি লোক লোকান্তরকে আমিই চালিত করি এবং মিত্রতা ও দ্বেষহীন গুণসমূহকে, ইন্দ্র এবং অগ্নি, প্রাণ ও অপান বায়ুকে ধারণ করে থাকি।” আমাদের উচিত ওইরূপ পরমাত্মার উপাসনা করা ।।৭৪।।
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