अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
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अ॒हं राष्ट्री॑ सं॒गम॑नी॒ वसू॑नां चिकि॒तुषी॑ प्रथ॒मा य॒ज्ञिया॑नाम्। तां मा॑ दे॒वा व्य॑दधुः पुरु॒त्रा भूरि॑स्थात्रां॒ भूर्या॑वे॒शय॑न्तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । राष्ट्री॑ । स॒म्ऽगम॑नी । वसू॑नाम् । चि॒कि॒तुषी॑ । प्र॒थ॒मा । य॒ज्ञिया॑नाम् । ताम् । मा॒ । दे॒वा: । वि । अ॒द॒धु॒: । पु॒रु॒ऽत्रा । भूरि॑ऽस्थात्राम् । भूरि॑ । आ॒ऽवे॒शय॑न्त: ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । राष्ट्री । सम्ऽगमनी । वसूनाम् । चिकितुषी । प्रथमा । यज्ञियानाम् । ताम् । मा । देवा: । वि । अदधु: । पुरुऽत्रा । भूरिऽस्थात्राम् । भूरि । आऽवेशयन्त: ॥३०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (वसूनाम्) धनों की (संगमनी) पहुँचानेवाली और (यज्ञियानाम्) संगतियोग्य पूजनीय विषयों की (चिकितुषी) जाननेवाली (प्रथमा) पहिली (राष्ट्री) नियम करनेवाली शक्ति हूँ। (देवाः) विद्वानों ने (पुरुत्रा) बहुत प्रकारों से (भूरिस्थात्राम्) अनेक पदार्थों में ठहरी हुई (ताम् मा) उस मुझ को (भूरि) अनेकविध से (आवेशयन्तः) [अपने आत्मा में] प्रवेश कराके (व्यदधुः) विविध प्रकार धारण किया है ॥२॥
भावार्थ
अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वपोषक, सर्वनियन्ता परमेश्वर सब स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों में विद्यमान है। विद्वान् लोग ही उसकी अपार महिमा का अनुभव करते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(अहम्) परमेश्वरः। (राष्ट्री) अ० ४।१।५। राज्ञी। नियन्त्री शक्तिः (संगमनी) सन्+गम्लृ-ल्युट्। ङीप्। संगमयित्री प्रापयित्री (चिकितुषी) कित ज्ञाने-क्वसु। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। ज्ञानवती। प्राप्तज्ञाना (प्रथमा) प्रख्याता मुख्या (यज्ञियानाम्) अ० २।१२।२। यज्ञार्हाणां संगमनीयानां देवानाम् (ताम्) तथाविधाम् (मा) माम्। परमेश्वरम् (देवाः) विद्वांसः (व्यदधुः) धाञो लङि रूपम्। विविधं स्थापितवन्तः (पुरुत्रा) देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यः। पा० ५।४।५६। इति सप्तम्यर्थे−त्रा। बहुषु प्रकारेषु (भूरिस्थात्राम्) अदिशदिभू०। उ० ४।६। इति भू-क्रिन्। भूरि बहु-निघ० ३।१। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति ष्ठा-त्रिन्। बहुपदार्थेषु कृतावस्थानाम् (भूरि) अनेकधा (आवेशयन्तः) विश, णिच्-शतृ। प्रवेशयन्तः स्वात्मानं प्रति ॥
विषय
'सबके शासक, सबके आधार' प्रभु
पदार्थ
१. (अहम् राष्ट्री) = मैं ही इस विश्वराष्ट्र की शासिका-ईश्वरी हूँ, (वसूनां संगमनी) = सब वसुओं को-निवास के लिए धनों को प्राप्त करानेवाली हूँ, (चिकितुषी) = ज्ञानवाली हूँ, अतएव (यज्ञियानां प्रथमा) = उपास्यों में प्रथम हूँ। २. (ताम्) = उस (मा) = मुझे (देवा:) = देववृत्ति के लोग (पुरुत्रा) = पालन व पूरण के दृष्टिकोण से खूब ही (व्यदधुः) = धारण करते हैं। उस मुझे धारण करते हैं जोकि (भूरिस्थानाम्) = पालक व पोषकरूप में सर्वत्र स्थित हूँ तथा (भूरि आवेशयन्त:) = पालक व पोषक तत्वों को सब जीवों में प्रवेश करानेवाली हूँ। प्रभु सूर्यादि देवों को भी देवत्त्व प्राप्त कराते हैं तथा सब जीवों का पोषण भी वही करते हैं।
भावार्थ
प्रभु ही सबके शासक और सबके आधार हैं।
भाषार्थ
(अहम्) मैं (राष्ट्री) ब्रह्माण्ड-राष्ट्र की अधीश्वरी हूँ, (वसूनाम्, संगमनी) सम्पत्तियों का मुझ में संगम है [मैं सम्पत्तियों की स्वामिनी हूँ], (चिकितुषी) सम्यक्-ज्ञानवाली हूँ (प्रथमा यज्ञियानाम्) यजनीयों में मुख्य यजनीया हूँ; (भूरिस्थात्राम्) बहुरूपों में स्थित हुई तथा उनका त्राण करने वालो (ताम्, मा) उस मुझको;-(भूरि आवेशयन्तः) निज बहुरूपों में प्रविष्ट करते हुए (देवाः) सूर्य-चन्द्र-अग्नि-वायु आदि देवों ने, (पुरुत्रा) विविध रूपों में (व्यदधुः) विविध प्रकार से-धारण किया हुआ है।
टिप्पणी
[पारमेश्वरी माता सूर्यादि में, सूर्यादि विविध नामों से प्रविष्ट है, सूर्य में सूर्य नाम से, चन्द्र में चन्द्र नाम से, अग्नि में अग्नि नाम से प्रविष्ट है। कहा भी है "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः" (अथर्व० ४।३९।९), अर्थात् परमेश्वर अग्नि में अग्नि नाम से प्रविष्ट है। इस प्रकार जो दैवत नाम हैं, वे सब, अध्यात्म में, परमेश्वर के भी नाम हैं। यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापति:" (यजु ३२।१)।]
विषय
परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(अहं) मैं (राष्ट्री) सब संसार पर राज्य करने वाली ईश्वरी शक्ति हूं। मैं (वसूनां) सब वास कराने हारे लोकों में (सं-गमनी) संग्राम समतोलन उत्पन्न करने वाली, (चिकितुषी) सब का ज्ञान करने वाली और सब को ज्ञान कराने, (यज्ञियानां प्रथमा) सब यज्ञयोग्य देवों में सब से प्रथम, सब से उत्कृष्ट हूं। (तां) उस (भूरि-स्थात्रां) नाना पदार्थों में स्थित होकर उनका त्राण अर्थात् रक्षा करने वाली (मां) मुझको (देवाः) विद्वान् लोग (भूरि) बहु मात्रा में (आवेशयन्तः) अपने हृदयों में प्रवेश करते हुए (वि-अदधुः) मेरा विविध रूप से या विशेष रूप से ध्यान करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
All-sustaining Vak
Meaning
I am the spirit and organisation of the social system. I am the pioneer and harbinger of the wealth, honours and excellences of the corporate system. I am the thought, awareness and determined organisation and constitution of the basics of human life, its principles and values. Scholars, sages and leaders establish me in many socio-political forms with many permament stabilities and many evolving powers and possibilities of progress in many directions.
Translation
I support the foe-destroying herbs, the sun, the strength giving food and the riches; I bestow wealth upon the institutor of worship offering the oblation and deserving careful protection, and upon those, who perform selfless noble deeds.(Also Rg. .X.125.2)
Translation
I am the sovereion power of the nation (Rastri), I gather all treasures, I am the first well-informed and informative body of state’s and peoples affairs. The learned persons and statesmen making me enter many affairs in various ways constitute and establish me. I have my working in many form and many institutions.
Translation
I am the foremost administrative power, that bestows treasures, and knows all important topics. The learned realise, Me, existent in innumerable objects in diverse forms, by making Me rest in their soul through various devices.
Footnote
Various devices: Through contemplation, knowledge and noble deeds. ‘I’ refers to God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अहम्) परमेश्वरः। (राष्ट्री) अ० ४।१।५। राज्ञी। नियन्त्री शक्तिः (संगमनी) सन्+गम्लृ-ल्युट्। ङीप्। संगमयित्री प्रापयित्री (चिकितुषी) कित ज्ञाने-क्वसु। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। ज्ञानवती। प्राप्तज्ञाना (प्रथमा) प्रख्याता मुख्या (यज्ञियानाम्) अ० २।१२।२। यज्ञार्हाणां संगमनीयानां देवानाम् (ताम्) तथाविधाम् (मा) माम्। परमेश्वरम् (देवाः) विद्वांसः (व्यदधुः) धाञो लङि रूपम्। विविधं स्थापितवन्तः (पुरुत्रा) देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यः। पा० ५।४।५६। इति सप्तम्यर्थे−त्रा। बहुषु प्रकारेषु (भूरिस्थात्राम्) अदिशदिभू०। उ० ४।६। इति भू-क्रिन्। भूरि बहु-निघ० ३।१। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति ष्ठा-त्रिन्। बहुपदार्थेषु कृतावस्थानाम् (भूरि) अनेकधा (आवेशयन्तः) विश, णिच्-शतृ। प्रवेशयन्तः स्वात्मानं प्रति ॥
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