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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
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    तान्त्स॒त्यौजाः॒ प्र द॑हत्व॒ग्निर्वै॑श्वान॒रो वृषा॑। यो नो॑ दुर॒स्याद्दिप्सा॒च्चाथो॒ यो नो॑ अराति॒यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । स॒त्यऽओ॑जा: । प्र । द॒ह॒तु॒ । अ॒ग्नि: । वै॒श्वा॒न॒र: । वृषा॑ । य: । न॒: । दु॒र॒स्यात् । दिप्सा॑त् । च॒ । अथो॒ इति॑ । य: । न॒: । अ॒रा॒ति॒ऽयात् ॥३६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तान्त्सत्यौजाः प्र दहत्वग्निर्वैश्वानरो वृषा। यो नो दुरस्याद्दिप्साच्चाथो यो नो अरातियात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान् । सत्यऽओजा: । प्र । दहतु । अग्नि: । वैश्वानर: । वृषा । य: । न: । दुरस्यात् । दिप्सात् । च । अथो इति । य: । न: । अरातिऽयात् ॥३६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सत्यौजाः) सत्य बलवाला, (वैश्वानरः) सब नरों का हित करनेवाला, (वृषा) सुख वर्षानेवाला वा ऐश्वर्यवान् (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (तान्) उन सबको (प्र दहतु) भस्म कर डाले। (यः) जो (नः) हमें (दुरस्यात्) दुष्ट माने, (च) और जो (दिप्सात्) मारना चाहे, (अथो) और भी (यः) जो (नः) हम से (अरातियात्) बैरी सा बर्ताव करे ॥१॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करके धर्म के विघ्नकारियों को नष्ट करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(तान्) निर्दिष्टान् (सत्यौजाः) अवितथबलः (प्र) प्रकर्षेण (दहतु) भस्मीकरोतु (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितः (वृषा) अ० १।१२।१। सुखवर्षकः। ऐश्वर्यवान् (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (दुरस्यात्) उपमानादाचारे। पा० ३।१।१०। इति दुष्ट-क्यच्। दुरस्युर्द्रविणस्युर्०। पा० ७।४।३६। इति क्यचि दुष्टस्य दुरस् भावः। तदन्ताल्लेटि आडागमः। दुष्टानिवाचरेत् (दिप्सात्) दम्भु दम्भे-सन्। दम्भ इच्च पा०। ७।४।५६। इति इत्वम्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इति अभ्यासलोपः। भष्भावाभावश्छान्दसः। धिप्सेत्। दम्भितुं हिंसितुमिच्छेत् (च) (अथो) अपि च (अरातियात्) पूर्ववत् क्यचि लेट्। अरातिवदाचरेत्। शत्रुवदनुतिष्ठेत् ॥

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    विषय

    'सत्यौजा-वैश्वानर-वृषा' अग्नि

    पदार्थ

    १. (सत्यौजा:) = सत्य के बलवाला या सत्य बलवाला (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला (वृषा) = सबपर सुखों का सेचन करनेवाला (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तान् प्रदहतुः) = उन्हें भस्म कर दे (य:) = जो (न:) = हमें (दुरस्यात्) = बुरी अवस्था में फेंकनेवाला हो-हममें अविद्यमान दोषों का भी यूँही उद्भावन करता रहे, (च) = और (दिप्सात) = हिंसित करने की इच्छा करे [धिप्सेत्] (अथ उ) = और निश्चय से (यः) = जो शत्रु (न:) = हमारे प्रति (अरातियात्) = अराति-[शत्रु]-बत् आचरण करे जो हमारे प्रति सदा शत्रुता की भावनावाला है। २. अध्यात्म में 'काम' रूप शत्रु हमें बड़ी दुरवस्था में फेंकनेवाला होता है, 'क्रोध' हमें हिंसित करता है [दिप्सात्] तथा 'लोभ' हमारे प्रति अराति की भाँति आचरणवाला होता है [अ-राति न देने की वृत्ति] वस्तुत: न देने की वृत्ति [अ+राति] ही तो लोभ है। काम को जीतकर हम सत्य बलवाले होंगे, क्रोध को जीतकर ही 'वैश्वानर' बनेंगे। लोभ को जीतकर दान करते हुए सबपर सुखों का वर्षण करनेवाले होंगे [वृषा]। इसप्रकार उन्नति-पथ पर बढ़नेवाले हम 'अग्नि' ही बन जाएंगे।

    भावार्थ

    हम काम-क्रोध व लोभ को जीतकर 'सत्यौजा-वैश्वानर-वृषा' अग्नि बनें।

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    भाषार्थ

    (सत्यौजा:) सत्य के स्थापन में ओजवाला, (वैश्वानर:) सब नर-नारियों का हितकारी, (वृषा) तथा उनपर सुखवर्षा करनेवाला (अग्निः) सर्वाग्रणी प्रधानमन्त्री (तान्) उन्हें (प्र दहत्) पूर्णतया दग्ध करे (यः) जो (न:) हमें (दुरस्यात्) दुष्ट जानकर हमारे साथ व्यवहार करे, (दिप्सात्) दम्भ अर्थात् छल-कपट का व्यवहार करे (च अथो) और तथा (यः) जो (न:) हमें (अरातियात्) शत्रु जानकर हमारे साथ शत्रु का सा व्यवहार करे।

    टिप्पणी

    [प्रधानमन्त्री तो सर्वोपकारी है, सबका सुख चाहता है, परन्तु फिर भी जो अन्यदेशीय राजा उसकी प्रजा के साथ बुरा व्यवहार करे, तो राजा उसे प्रदग्ध कर देने की स्वीकृति प्रदान करे। राजा स्वयं प्रदहन नहीं करता, अपितु वह प्रदहन करने की स्वीकृति प्रदान करता है, प्रदहन तो सेनापति ही करेगा। सत्यौजाः-यथा "सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम्" (अथर्व० ३।१।४)। सेनापति की उक्ति अगले मन्त्रों में हुई है। दूरस्यात्= आदि यथा दुर्व्यवहार करे, दम्भ करे, शत्रुता करे (लेटि आड् आगम)।]

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    विषय

    न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।

    भावार्थ

    न्यायविधान और दुष्टों के दमन करने का उपदेश करते हैं। (सत्य-ओजाः) सत्य के बल को धारण करने वाला, न्यायाधीश (अग्निः) ज्ञानी, अग्नि के समान पापियों को दण्ड देने वाला, (वैश्वानरः) समस्त नरों का हितकारी (वृषा) सत्य, सुखों का वर्षक, एवं धर्मात्मा, न्यायकारी पुरुष (तान्) उन २ को (प्रदहतु) उत्तम रीति से समूल भस्म करे, दण्डित करे। १—(यः) जो (नः) हम में से (दुरस्यात्) दुष्टता का व्यवहार करे, हमें अपने भाइयों को दुर्दुरावे, २—(यः दिप्सात्) जो दूसरों को पीड़ित करे या ठगे, ३—(अथो) और (यः) जो (नः) हम से (अराति यात्) अराति = शत्रु के समान वर्त्ताव करे और हमें हमारा अधिकार न दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Power of Truth

    Meaning

    Let generous Agni, commander of the blaze of truth, all-watching ruler of humanity, bum those forces of negativity which intend to hurt us, subject us to adversity and rob us of felicity.

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    Subject

    Satyaujá Agni : Real Vigour; Fire of Real Force

    Translation

    May the mighty adorable Lord, with truth as his vigour, and benefactor of all men, burn him down, who reviles us, who wants to injure us, or who behaves as an enemy towards us.

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    Translation

    Let the authority dispensing justice whose vigor is truth and who is the custodian of public's well-being and who is mighty in his administration, burn, with his awards to them who pain us, who injure us and him who bears hostility against us.

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    Translation

    Endowed with true strength, let God, the Benefactor of humanity, the Bestower of joys, burn them up; him who would consider us low in character, him who would like to injure us, him who would treat us as a foe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(तान्) निर्दिष्टान् (सत्यौजाः) अवितथबलः (प्र) प्रकर्षेण (दहतु) भस्मीकरोतु (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितः (वृषा) अ० १।१२।१। सुखवर्षकः। ऐश्वर्यवान् (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (दुरस्यात्) उपमानादाचारे। पा० ३।१।१०। इति दुष्ट-क्यच्। दुरस्युर्द्रविणस्युर्०। पा० ७।४।३६। इति क्यचि दुष्टस्य दुरस् भावः। तदन्ताल्लेटि आडागमः। दुष्टानिवाचरेत् (दिप्सात्) दम्भु दम्भे-सन्। दम्भ इच्च पा०। ७।४।५६। इति इत्वम्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इति अभ्यासलोपः। भष्भावाभावश्छान्दसः। धिप्सेत्। दम्भितुं हिंसितुमिच्छेत् (च) (अथो) अपि च (अरातियात्) पूर्ववत् क्यचि लेट्। अरातिवदाचरेत्। शत्रुवदनुतिष्ठेत् ॥

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