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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - भुरिक्पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    यद॒साव॒मुतो॑ देवा अदे॒वः संश्चिकी॑र्षति। मा तस्या॒ग्निर्ह॒व्यं वा॑क्षी॒द्धवं॑ दे॒वा अ॑स्य॒ मोप॒ गुर्ममै॒व हव॒मेत॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒सौ । अ॒मुत॑: । दे॒वा॒: । अ॒दे॒व: । सन् । चिकी॑र्षति । मा । तस्य॑ । अ॒ग्नि: । ह॒व्यम् । वा॒क्षी॒त् । हव॑म् । दे॒वा: । अ॒स्य॒ । मा । उप॑ । गु॒: । मम॑ । ए॒व । हव॑म् । आ । इ॒त॒न॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदसावमुतो देवा अदेवः संश्चिकीर्षति। मा तस्याग्निर्हव्यं वाक्षीद्धवं देवा अस्य मोप गुर्ममैव हवमेतन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । असौ । अमुत: । देवा: । अदेव: । सन् । चिकीर्षति । मा । तस्य । अग्नि: । हव्यम् । वाक्षीत् । हवम् । देवा: । अस्य । मा । उप । गु: । मम । एव । हवम् । आ । इतन ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विजयी पुरुषो ! (असौ) वह (अदेवः सन्) राजद्रोही होकर (अमुतः) उस स्थान से (यत्) जो कुछ [कुमन्त्र] (चिकीर्षति) करना चाहता है। (अग्निः) अग्निसमान तेजस्वी राजा (तस्य=तस्मै) उसको (हव्यम्) अन्न (मा वाक्षीत्) न पहुँचाये। (देवाः) व्यवहारकुशल लोग (अस्य) इस की (हवम्) पुकार को (मा उप गुः) न प्राप्त करें। (मम एव) मेरी ही (हवम्) पुकार को (आ−इतन) तुम आकर प्राप्त होवो ॥३॥

    भावार्थ

    राजा और सब विद्वान् लोग राजविद्रोही पुरुष को यथावत् दण्ड देकर प्रजा में शान्ति फैलावें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) यत्किञ्चित्कुमन्त्रम् (असौ) (अमुतः) अमुष्यात्। तस्माद्देशात् (देवाः) हे विजिगीषवः (अदेवः) देवविरोधी। राजविद्रोही (सन्) वर्तमानः सन् (चिकीर्षति) कर्तुमिच्छति (तस्य) चतुर्थ्यां षष्ठी। तस्मै। अदेवाय (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (हव्यम्) हु अदने−यत्। अन्नम् (मा वाक्षीत्) वह−लुङ्। न प्रापयेत् (हवम्) आह्वानम् (देवाः) व्यवहारिणः (मा उप गुः) नैव प्राप्नुवन्तु (मम) (एव) ही (हवम्) (आ इतन) आ गच्छत ॥

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    विषय

    अदेव के सुधार के लिए

    पदार्थ

    १. यदि कोई हमारा विरोध करता है तो प्रभु ठीक मार्ग पर चलनेवाले हम लोगों का रक्षण करें और उस अदेववृत्ति के व्यक्ति को उचित दण्ड दें। हे (देवा:) = देवो! (यत्) = जो (असौ) = वह (अदेवः सन्) = अदेव [न देने की] वृत्तिवाला होता हुआ व्यक्ति (अमुत:) = उस सुदूर प्रदेश से हमारे विरोधी पक्ष से (चिकीर्षति) = हमारा हानिकर कर्म करना चाहता है तो (अग्निः) = वे प्रभु (तस्य) = उसके (हव्यं मा वाक्षीत्) = हव्यपदार्थ का वहन न करें-प्रभु उसे आवश्यक पदार्थों से वञ्चित करें। वह इसप्रकार दरिद्रता में व्यथित हो कि उसमें पर-पीड़न की शक्ति ही न रहे। २. (देवाः) = विद्वान् लोग (अस्य हवं मा उपगु:) = उसकी पुकार को सुनकर उसे प्रास न हों-विद्वानों से उसका बहिष्कार किया जाए। ये विद्वान् (मम एव हवं एतन) = मेरी ही पुकार पर प्राप्त हों। इसप्रकार यह अदेव सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा को अनुभव करे।

     

    भावार्थ

    हे देवो! यदि कोई अदेव वृत्ति का व्यक्ति देववृत्ति के व्यक्तियों को पीड़ित करना चाहता है तो प्रभु उसे हव्य पदार्थ प्राप्त न कराके उसे दण्डित करें तथा विद्वान् लोग उसके आमन्त्रण को अस्वीकार करके उसे सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा को अनुभव कराएँ।

     

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे साम्राज्य के दिव्य अधिकारियो ! (अदेवः) यदि कोई अदिव्य अधिकारी, (अमुतः) उस अपने अधिकार-पद से (संचिकीर्षति) व्यवस्था में संकर अर्थात् गड़बढ़ करना चाहता है, तो (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (तस्य) उसके (हव्यम्) खाद्य-अन्न को उसे ( मा)(वाक्षीत) पहुँचाए, (देवाः) और साम्राज्य के हे दिव्य अधिकारियो ! (अस्य हवम्) इसके आह्वान पर (मा)(उपगु:) इसके पास जाओ, (मम, एव) मुझ मुख्य सेनापति के ही (हवम् ) आह्वान पर (एतन) आओ ।

    टिप्पणी

    [हव्यम्= हू दानादनयोः (जुहोत्यादिः), यहाँ "अदन" अर्थ द्वारा खाद्य-अन्न अभिप्रेत है। प्रधानमन्त्री उसे खाद्य-अन्न पहुंचाना निषिद्ध कर दे।]

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    विषय

    सैनिकों और सेनापतियों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (देवाः) देवगण ! राजगण ! जनो ! (असौ) वह अमुक नाम का (अमुतः) अमुक देश से (अदेवः सन्) राजा न होता हुआ भी (यत्) जो युद्ध आदि (चिकीर्षति) करना चाहता है (तस्य) उसकी (हव्यं) आज्ञा को (अग्निः) नेता लोग (मा वाक्षीत्) धारण न करें। और (देवाः) अन्य राजगण (अस्य) उसके (हवं) बुलाने पर उसकी राजसभा में (मा उप गुः) न जावें। प्रत्युत (मम एव हवम् एतन) आप लोग मेरे ही राजसूय आदि यज्ञ में आवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १, २ अग्निर्देवता। ३ विश्वेदेवाः। ४-९ इन्द्रः। २ त्र्यवसाना षट्-पदा जगती। ३, ४ भुरिक् पथ्यापंक्तिः। ६ प्रस्तार पंक्तिः। द्वयुष्णिक् गर्भा पथ्यापंक्तिः। ९ त्र्यवसाना षट्पदा द्व्युष्णिग्गर्भा जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Enemies

    Meaning

    O Devas, noble and positive powers of the world, if that negative, undivine, destructive power wants to attack us from that far off place and destroy our freedom and prosperity, let not Agni, enlightened and fiery leader of humanity, listen to carry out his call and offer, let no good and positive powers listen and go to join him. Let them all come and join my yajnic call for defence of freedom and prosperity of all.

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    Subject

    All Bounties of Nature

    Translation

    O enlightened cues, what that undivine person wants to perform there, may the sacrificial fire not carry his oblation. May the enlightened ones not go to him. May they come only unto my invocation.

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    Translation

    O learned persons! whatever plot from yonder territory an unrighteous and impious man desires to frame let not the leader of the country hear his call and may not other states men respond to his call, but let all people attend my yajna and my call.

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    Translation

    Whatever plot from yonder, O warriors, that godless man would frame, let not the leading persons help him with provisions, let not the learned fight on his behalf, let them fight on my behalf.

    Footnote

    ‘My’ means the king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) यत्किञ्चित्कुमन्त्रम् (असौ) (अमुतः) अमुष्यात्। तस्माद्देशात् (देवाः) हे विजिगीषवः (अदेवः) देवविरोधी। राजविद्रोही (सन्) वर्तमानः सन् (चिकीर्षति) कर्तुमिच्छति (तस्य) चतुर्थ्यां षष्ठी। तस्मै। अदेवाय (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (हव्यम्) हु अदने−यत्। अन्नम् (मा वाक्षीत्) वह−लुङ्। न प्रापयेत् (हवम्) आह्वानम् (देवाः) व्यवहारिणः (मा उप गुः) नैव प्राप्नुवन्तु (मम) (एव) ही (हवम्) (आ इतन) आ गच्छत ॥

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